मोदी- अटलवादी या मधोकवादी


भारतीय जनता पार्टी को क्या बलराज मधोक की याद है। पार्टी के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी अनुसंधान वृत्ति में सारे रिकार्ड तोड़े हुए हैं। कांग्रेस ने नेहरू से बड़े अपने किन नेताओं को गुमनाम बन जाने के लिए मजबूर कर दिया इसकी पूरी फेहरिस्त उनके पास है जिसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस से लेकर सरदार पटेल तक के नाम शामिल हैं। यहां तक कि गांधी को भी कांग्रेस में कूड़ेदान में फेंक दिये जाने का आरोप लगाने से वे नही चूंके। मोदी जी ने उनसे जुड़े तमाम अनकहे अनसुने वृतांतों की झड़ी लगा दी जिनके बारे में पहले उनके समकालीन विद्वानों तक ने कभी जिक्र नही किया था। यह दूसरी बात है कि इन दिवंगत नेताओं के परिजनों ने इस मामले में कभी कोई विलाप किया हो या क्षोभ जताया हो यह पहले कभी देखने में नही आया था। उल्टे इस हरकत के लिए उनके परिजन वर्तमान नेताओं पर नाराजगी जाहिर करते हुए पाये गये फिर भी भाजपाइयों का मुंह बंद नही हुआ। पर जनसंघ के वे नेता जिनकी लाइन पर भाजपा आज चल रही है इतिहास के खजाने में दफन उनके नाम याद करने की जरूरत पार्टी के अतीतवादी नेतृत्व को क्यों महसूस नही होती यह एक सवाल है।


किस मजबूरी में है ये एहसान फरामोशी
बलराज मधोक की तरह और भी नाम हैं जिनकी चर्चा मोदी जी को अपनी लाइन पुष्ट करने के लिए छेड़नी चाहिए पर विरोधी पार्टी के लिए उनके मानक अलग है और अपने लिए मानक अलग। आज वे प्रधानमंत्री के पद पर हैं तो उन्हें याद रखना चाहिए कि इसका रास्ता तैयार करने का श्रेय किसको है। जब दलितों के वोट याद आते हैं तो मोदी जी निजी तौर पर भी बाबा साहब अंबेडकर की याद में अभिभूत हो जाने का अभिनय बहुत कुशलता से करते हैं। बाबा साहब अंबेडकर को मिले भारत रत्न अंलकरण का श्रेय भी भाजपा लेती है लेकिन इस अंलकरण को देने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह का नाम लेने में उनकी हिम्मत जबाव दे जाती है। अगर प्रधानमंत्री मोदी में नैतिक हिम्मत हो तो उन्हें वीपी सिंह और अपनी पार्टी के थिंक टैंक गोविंदाचार्य का खुलकर एहसान जताना चाहिए। अगर वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू न की होती तो भाजपा 1991 में देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को कभी न बनाती। कल्याण सिंह को पहले तो यह स्वीकार नही होता था लेकिन जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने निस्संकोच वीपी सिंह को पिछड़ों का मसीहा घोषित करना शुरू कर दिया था। मोदी भी प्रधानमंत्री बने तो इसलिए कि भाजपा यह एहसास कर चुकी थी कि उसे गठबंधन में सरकार बनाने की हैसियत से ऊपर उठकर अकेले दम पर बहुमत की चोटी छूने के लिए पिछड़े नेता को सबसे ऊपर प्रोजेक्ट करना पड़ेगा। इसके पीछे पार्टी की कोई प्रतिबद्धता नही थी और न है। यह रणनीति का तकाजा था। निश्चित रूप से भाजपा का यह फैसला अंतरिम है और उसे अंत में सत्ता के अपने सफर को वर्ण व्यवस्थावादी गंतव्य पर स्थापित करके ही चैन मिल पायेगा।


खुद के भी गिरेबां में तो झांको
मोदी और उनकी टोली वीपी सिंह का नाम न लें तो उसे गोविंदाचार्य का नाम तो लेना चाहिए। गोविंदाचार्य की ही रणनीति का परिणाम है कि भाजपा ने पिछड़ा नेतृत्व को आगे करके अपने लक्ष्य तय करने की कार्यनीति स्वीकार की इसलिए और भी गोविंदाचार्य को प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी मोदी पर है क्योंकि ट्रंप के टैरिफ के बाद उनके लिए स्वदेशी का जाप मोक्ष के तरीके रूप में बचा है और अर्थ व्यवस्था के स्वदेशी मॉडल के लिए जनमत तैयार करने का परिश्रम गोविंदाचार्य लंबे अर्से से कर रहे हैं। पर मोदी जी की फितरत है कि दूसरों के घरों के कोने तो झांकते फिरते हैं लेकिन अपने गिरेबां में भी कभी-कभी झांक लिया करें इसकी समझ उनमें पैदा नही हो पायी है।


हिंदू राष्ट्रवाद के फायर ब्रांड नेता थे मधोक
तो बात हो रही थी बलराज मधोक की। बलराज मधोक जनसंघ के संस्थापक नेताओं में थे। 1966 में वे जनसंघ के अध्यक्ष भी बने। उन्हें हिंदू राष्ट्रवाद का फायरब्रांड नेता माना जाता था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय मौत के बाद अटल जी जनसंघ में उनके समानान्तर उभरे। अटल जी 1957 में उत्तर प्रदेश की बलरामपुर सीट से पहली बार लोकसभा पहुंचे थे। अटल जी रहने वाले तो ग्वालियर के थे (मूल रूप से तो आगरा जिले की बाह तहसील का बटेश्वर गांव उनका जन्म स्थान था) पर उनका राजनैतिक कैरियर बलरामपुर से शुरू हुआ जहां उनका कोई नातेदार भी नही रहता था और लोग उनसे परिचित भी नही थे। बलरामपुर में वे संघ के प्रचारक बनकर गये थे। बलरामपुर के राजा कांग्रेस के घनघोर विरोधी थे लेकिन स्वयं चुनाव लड़ना उन्हें इसलिए स्वीकार नही था कि अपनी प्रजा से वोट की भीख मांगना उन्हें शान में गुस्ताखी महसूस होता था। इसलिए उन्होंने अटल जी को उम्मीदवार बनवाया और अटल जी उनके नाम पर चुनाव जीत गये।


जिंदगी भर अटल जी ने की नेहरू की कॉपी
उन दिनों जवाहर लाल नेहरू के लिए जनता के मन में बहुत रोमांटिक भावनाएं थीं। उनका वैश्विक कद था। पहली बार चुने गये सांसद के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी कि नेहरू जैसी शख्सियत नाम लेकर उनकी तारीफ कर देती थी। किवदंती तो यह है कि लोक सभा में उनके पहले भाषण को ही सुनकर नेहरू जी उनके इतने मुरीद हो गये थे कि उन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि यह युवा सांसद एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनेगा। इसका अटल जी पर इतना असर हुआ कि वे जीवन भर नेहरू जी की कॉपी करते रहे। मधोक उन पर कांग्रेसी सोच से ग्रस्त होने का आरोप लगाते थे और यह सही भी था। उन्होंने भले ही दलबदल न किया हो लेकिन कांग्रेस की नीतियों को अपने कार्य के लिए उन्होंने हमेशा मार्गदर्शक माना। अगर कांग्रेस की नीतियां देश के लिए, हिंदुओं के लिए और समूचे समाज के लिए बहुत अनिष्टकारी रहीं हैं तो कांग्रेस के इस गुनाह में आज के भाजपाइयों को अटल जी का भी नाम शामिल करना पड़ेगा।


निष्कासन से मधोक को चुकानी पड़ी प्रतिबद्धता की कीमत
आरएसएस और जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने इसके बावजूद मधोक की तुलना में अटल जी को अनुमोदित किया। नौबत यहां तक आई कि अपने कटटर हिंदुत्ववादी विचारों के कारण बलराज मधोक को 1973 में जनसंघ से निष्काषित हो जाना पड़ा। इसके बाद वे जनता पार्टी बनने पर उसमें शामिल हुए लेकिन उनकी गाड़ी फिर कभी पटरी पर नही चढ़ पाई। 1977 में मोरारजी देसाई सरकार में जनसंघ घटक को कैबिनेट में चार मंत्रियों का कोटा मिला। मधोक की चलती तो वे एक भी मुसलमान का नाम अपने घटक के कोटे से नही देते लेकिन अटल जी को नाम तय करने थे। वे मधोक की तरह कटटर हिंदूवाद में विश्वास न करके कांग्रेस की समावेशी लाइन के कायल थे। इसलिए उन्होंने दो नामों में खुद को और आडवाणी जी को रखा और दो नाम मुसलमानों के दिये जो आरिफ बेग और सिकंदर बख्त थे। इसी तरह विदेश मंत्री के रूप में उन्होंने कांग्रेस की नीति के अनुरूप अरेबियनों को तरजीह दी बजाय इजराइल को लिफ्ट देने के।


अटल जी का गांधीवादी समाजवाद
जनता पार्टी के खंड-खंड हो जाने के बाद जब अटल जी पर संघ का और अपने अन्य साथियों का दबाव पड़ा कि पुरानी पार्टी को पुनर्जीवित किया जाये तो अटल बिहारी बाजपेयी ने जनसंघ के नाम में कटटरता जुड़ी होने के कारण इसका नाम बदल दिया और जो पार्टी खड़ी की उसे भारतीय जनता पार्टी का नाम दिया। बलराज मधोक कोटा परमिट राज के खिलाफ थे। वे पूंजीवाद के समर्थक थे और उद्योगपतियों के लिए कम से कम नियंत्रण की वकालत करते थे। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद उस समय जनसंघ को उद्योगपतियों का समर्थन नही मिला था। उसकी छवि छोटे व्यापारियों की पार्टी की थी। बहरहाल भारतीय जनता पार्टी बनी तो आर्थिक मामलों के लिए उन्होंने गांधीवादी समाजवाद को अपना लक्ष्य घोषित किया।


थोथी अटल भक्ति
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिखावा भले ही अटल भक्ति का करें लेकिन बलराज मधोक जिस वैचारिक लाइन के कारण अपने समय में विफल हुए वर्तमान में उसी पर आरूढ़ होकर मोदी जी सफलता की सिद्धि करने में लगे हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अटल जी की समावेशी दृष्टि में कोई विश्वास नही है। आज भाजपा न मुसलमानों को टिकट देती है और न मंत्री बनाती है। इस नीति के कारण मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन तक का पत्ता कट गया। मोदी जी ने अपने पहले कार्यकाल में ही इजराइल के लिए वर्जना तोड़कर उसके साथ राजनयिक संबंध कायम कर लिये थे जिसकी पैरवी मधोक करते थे। मधोक धारा 370 के भी खिलाफ थे लेकिन कांग्रेस की नीति की तरह अटल जी ने इस धारा को बनाये रखने में ही गनीमत समझी। आर्थिक मामलों में भी मोदी मधोक की लाइन का पालन कर रहे हैं। समाजवाद की लाइन को उन्होंने खूटे पर ले जाकर टांग दिया है। खुल्लमखुल्ला उद्योगपतियों को बढ़ावा देना उनकी सरकार का सबसे महत्वपूर्ण मिशन है। तो प्रधानमंत्री मोदी को अगर बलराज मधोक का नाम लेने और उनकी नीतियों को अपने मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा जाये इसमें अन्यथा क्या है।


कांग्रेस के प्रति घृणा की बेतुकी राजनीति
समय के साथ-साथ समाज की मान्यताएं बदलती हैं। कल तक जिन मान्यताओं के लिए समाज हिकारत की भावना रखता था आज उन पर चलने को गौरव समझ रहा है। समय के इस फेर की अपनी फितरत है। कांग्रेस की जिन नीतियों में कल तक समाज को स्वर्ग नजर आता था आज उसमें बहुत बिगाड़ दिख रहा है तो यह बदलाव सामान्य है। भाजपा के मामले में भी तो ऐसा ही है। अतीत में भाजपा में भी तो मधोक की नीतिया स्वीकार्य नही थी लेकिन आज मोदी उन्हीं नीतियों को अपनाकर भगवान की तरह पुज रहे हैं। पर अटल जी को अघोषित रूप से खारिज करते हुए भी जिस तरह से आप उन्हें देश विरोधी, हिंदू विरोधी जैसे तगमे देने की धृष्टता करने की नही सोच पाते आपका सुलूक कांग्रेस के लोगों के साथ भी तो वैसा ही होना चाहिए। उन्होंने जिन नीतियों पर देश चलाया वे नीतियां लोगों की पसंद की थीं और उनके आधार पर कांग्रेस की देश भक्ति का पैमाना तय करना उस समय की जनता जनार्दन को अपमानित करने की गुस्ताखी की तरह है। इस परंपरा को प्रबुद्धजन किसी देश में प्रोत्साहित नही करते और न ही हमारे देश में ऐसी घृणित परंपरा स्वीकार्य होना चाहिए। 

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