योगी आदित्यनाथ अब आर-पार के मूड में, कहां तक जायेगी दीपोत्सव की तकरार


उत्तर प्रदेश में राजनैतिक माहौल फिर सनसनी से भर गया है। दीपावली का त्यौहार गुजर जाने के बाद प्रदेश में किसी बड़ी राजनीतिक उठापटक की अटकलें लगाई जा रही हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके दोनों उप मुख्यमंत्रियों केशव मौर्या और बृजेश पाठक के बीच एक बार फिर तलवारें खिच गयी हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के रवैये से यह लगता है कि इस बार उन्होंने लाचार दिखने की बजाय दो-दो हाथ करने की ठान रखी है।


योगी ने जानबूझ कर काटी चिकोटी
योेगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से अयोध्या में प्रतिवर्ष छोटी दीपावली पर दीपोत्सव आयोजित होता है। इसमें राम की पैड़ी पर लाखों दिये जलाये जाते हैं। हर वर्ष इस मामले में बीते वर्ष का रिकार्ड तोड़ा जाता है। भगवान राम के प्रति वर्तमान प्रदेश सरकार की असीम श्रद्धा के प्रदर्शन के साथ-साथ इस आयोजन को योगी की सर्वोच्च हिन्दू नायक के रूप में ब्रांडिंग के अवसर के तौर पर भी देखा जाता है। वैसे तो भगवान राम से जुड़े आयोजन में कोई तकरार पैदा करना बड़े जोखिम का काम है। लेकिन दोनों उप मुख्यमंत्रियों ने अपने स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने की कोशिश के बतौर दीपोत्सव में मुख्यमंत्री के लोगों की कारगुजारी देखी तो वे आपा खो बैठे। न केवल वे आयोजन में नही पहुंचे बल्कि उन्होंने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से इस मामले की शिकायत भी कर डाली। दूसरी ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनकी नाराजगी को कोई भाव नही दिया। शायद उनके समर्थन में ही राज्यपाल आनन्दी बेन पटेल ने भी दीपोत्सव कार्यक्रम से मुंह मोड़ लिया लेकिन तब भी मुख्यमंत्री कहीं विचलित नजर नही आये। न उन्होंने कोई सफाई दी और न ही उप मुख्यमंत्रियों को मनाने के लिए कोई दूत भेजा।


खुलेआम दोनों उप मुख्यमंत्री हुए बेइज्जत
इसके पूर्व दोनों उप मुख्यमंत्रियों ने 19 अक्टूबर को अयोध्या में उपस्थित होने का प्रोटोकॉल जारी कर दिया था। उप मुख्यमंत्री केशव मोर्य को उनका कद बढ़ाने के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें बिहार के विधानसभा चुनाव के लिए धर्मेंद्र प्रधान के साथ सह प्रभारी बना रखा है। केशव मौर्या इसके कारण लगातार बिहार में प्रवास कर रहे हैं और अयोध्या के कार्यक्रम की वजह से ही उन्होंने इसके बीच लखनऊ आने का समय निकाला था। जाहिर है कि उनकी पूरी हसरत थी कि वे अयोध्या में दीपोत्सव कार्यक्रम में भागीदार होकर धर्मप्राण जनता की सहानुभूति और सराहना बटोरें। दूसरे उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक भी इसी तरह जनता में भले बनने की पूरी तैयारी किये बैठे थे। लेकिन हुआ यह कि दीपोत्सव के पूरे-पूरे पृष्ठ के जो विज्ञापन छपे उनमें दोनों उप मुख्यमंत्री नाचीज साबित कर दिये गये। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के फोटो छपे, कृषि मंत्री सूर्यप्रताप शाही और पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के नाम भी अतिथि के रूप में प्रकाशित हुए। राज्यपाल आनंदी बेन पटेल का नाम मुख्यमंत्री के समकक्ष अंकित होना ही था पर दोनों उप मुख्यमंत्रियों का नाम इसमें देने की जरूरत नही समझी गयी। जिन दो मंत्रियों के नाम दिये गये उनके पीछे तर्क यह था कि सूर्य प्रताप शाही अयोध्या जिले के प्रभारी है जबकि कार्यक्रम की मेजबानी पर्यटन विभाग की होने से जयवीर सिंह का नाम दिया जाना आवश्यक था। उप मुख्यमंत्री के पद का वैसे तो संविधान में कोई उल्लेख नही है लेकिन इस पदीय संबोधन में वजन बढ़ाने की क्षमता तो है ही तो यह हैसियत जुड़ जाने के बाद आप कुछ दे या न दें लेकिन वरिष्ठता का सम्मान तो देना ही पड़ेगा। इस नातें जब आप सामान्य मंत्रियों का नाम दे रहे थे तो उप मुख्यमंत्रियों का भी नाम देना अनिवार्य रूप से बनता था।


मौर्य और पाठक ने दिखाये तेवर, योगी पर नही हुआ कोई असर
अब उनके नाम असावधानी में छूट गये या मुख्यमंत्री के इशारे पर दोनों उप मुख्यमंत्रियों को चिढ़ाने के लिए जानबूझ कर ऐसा किया गया यह तो बाद में स्पष्ट होगा। पर जैसा कि तय था इसकी विस्फोटक प्रतिक्रिया दोनों उपमुख्यमंत्रियों में हुई। उन्होंने इसे अपनी घोर अवमानना माना और फौरन अयोध्या का अपना कार्यक्रम रदद करने की सूचना जारी कर दी। केंद्रीय नेतृत्व से भी मुख्यमंत्री के इस रवैये की शिकायत की गयी। एक तो यह त्यौहार के ऐन मौके पर किया गया दूसरे केंद्रीय नेतृत्व इस समय बिहार के विधानसभा चुनाव की आपाधापी में व्यस्त है। इसलिए उच्च स्तर से कोई हस्तक्षेप संभव नही था। उधर मुख्यमंत्री ने अपना कार्यक्रम तसल्ली से निपटाया। दोनों उप मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ राज्यपाल महोदया ने भी इस कार्यक्रम में अपना जाना कैंसिल करके उनकी नाराजगी को बल देने का कदम उठा डाला था। फिर भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहज बने रहे। उन्होंने इस घटनाक्रम को बिल्कुल भी नोटिस में नही लिया।


शपथ ग्रहण के दिन ही रच गया था अमंगल

क्या मुख्यमंत्री के लिए सब कुछ कैलकुलेटिव रहा। दरअसल योगी आदित्यनाथ के दूसरी बार शपथ ग्रहण के समय उप मुख्यमंत्रियों का पुच्छल्ला उनके साथ लगाने की जरूरत ही नही थी क्योंकि पहला कार्यकाल ही पूरा मिल जाने से योगी आदित्यनाथ शासन संचालन की बारीकियों में पूरी तरह परिपक्य हो गये थे। पांच साल का समय बहुत होता है। तमाम तीरंदाज मुख्यमंत्री टुकड़ों-टुकड़ों में पांच साल का समय पूरा कर पाये थे। इसलिए यह कहना कि अमुक नेता तीन बार मुख्यमंत्री रहा-चार बार मुख्यमंत्री रहा यह बात कोई महत्वपूर्ण नही है। फिर भी उप मुख्यमंत्री बनाना था तो योगी आदित्यनाथ की सुविधा और मर्जी पूंछी जानी चाहिए थी। वे कोई विपक्ष के मुख्यमंत्री नही हैं जिसके राज्य में छांटकर ऐसा राज्यपाल भेजा जाये जिसका काम मुख्यमंत्री को चैन से सोने न देना हो। यदि यह सूत्र आप अपने मुख्यमंत्री पर लागू करेगें तो आपकी ही नंबरिंग बिगड़ेगी।


स्वतंत्र देव से केंद्रीय नेतृत्व क्यों हुआ खिन्न
लेकिन भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के दिमाग में दूसरी बात रहती है। वह पार्टी के मुख्यमंत्रियों की भी हालत दयनीय बनाये रखना चाहता है तांकि वे सिर उठाकर काम न कर सकें और केंद्रीय नेतृत्व के सामने रहमत के लिए गिड़गिड़ाते रहें। योगी आदित्यनाथ चाहते थे कि अगर पिछड़े वर्ग से उप मुख्यमंत्री बनाना है तो स्वतंत्र देव सिंह के नाम पर विचार कर लिया जाये। स्वतंत्र देव सिंह की संगठनात्मक क्षमता और चुनाव प्रबंधन की कला का कायल केंद्रीय नेतृत्व भी है। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व को अगर स्वतंत्र देव सिंह का नाम मंजूर नही हो पाया तो उसकी वजह यह थी कि प्रदेश अध्यक्ष के रूप में प्रदेश में शक्ति के समानान्तर केंद्र खड़े करने की बजाय उन्होंने मुख्यमंत्री के सहयोग की नीति अपनाई जिससे केंद्रीय नेतृत्व की निगाह में उनके सारे पुण्य धुल गये थे। केंद्रीय नेतृत्व ने तो उन्हें मंत्रियों की सूची में ही शामिल नही किया था। जब शपथ ग्रहण के समय योगी उनके नाम के लिए अड़ गये तब उनको मंत्रिमंडल में जगह मिल पायी।


पिटे हुए मोहरे को इतना भाव
केंद्रीय नेतृत्व ने उप मुख्यमंत्री पद के लिए पिछड़ा कोटा से केशव प्रसाद मौर्या का नाम प्रस्तावित किया जबकि केशव प्रसाद मौर्या चुनाव हार चुके थे। पिटे हुए मोहरे को मंत्रिमंडल में जगह देने से पार्टी का क्या लाभ होने वाला है, केंद्रीय नेतृत्व ने यह नही सोचा। इसी तरह ब्राह्मण चेहरे के लिए पहले उप मुख्यमंत्री रहे दिनेश शर्मा की जगह भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने आयातित नेता बृजेश पाठक का चयन किया। इसकी भी कोई तुक नही थी। बृजेश पाठक ने छात्र संघ का चुनाव भले ही विद्यार्थी परिषद के टिकट पर जीता हो लेकिन उनकी असल राजनीति तो बसपा में परवान चढ़ी। भाजपा और बसपा की कार्यनीति बहुत अलग है। बसपा अपने मंत्री, विधायकों से कहती है कि अपनी बिरादरी को देखो। तुम्हें सर्व समाज की नेतागीरी करने की कोई जरूरत नही है। इस कारण बसपा में रहकर नेता जातिवादी व्यवहार में ढल जाता है। जबकि भाजपा सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर चलती है। भाजपा अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को सभी जातियों में पैठ बनाने और हर जाति के लोगों को पार्टी से जोड़ने का काम सिखाती है। दिनेश शर्मा को शुरू से भाजपा में होने के कारण इस बात की ट्रेनिंग थी इसलिए उनकी उपयोगिता अधिक थी। जबकि बृजेश पाठक का व्यवहार शुद्ध जातिवादी है। एक मंत्री के रूप में दूसरे किसी जाति के आदमी को वे पहचानना तक नही चाहते जिससे सरकार की छवि प्रभावित होती है। लेकिन फिर भी दिनेश शर्मा का नंबर उप मुख्यमंत्री बनाने के मामले में इस कारण काट दिया गया क्योंकि वे सौम्य हैं। मुख्यमंत्री से उलझना उनके स्वभाव में नही था। बृजेश पाठक केंद्रीय नेतृत्व के लिए अधिक उपयोगी इसलिए बन गये क्योंकि मुख्यमंत्री के लिए मुसीबतें खड़ी करने का काम उन्हें अच्छी तरह आता है और वे यही कर रहे हैं।


पाठक ने शासनादेश को रखा उठल्लू पर
मुख्यमंत्री ने एक शासनादेश जारी किया जिसमें हाईकोर्ट के आदेश के अनुपालन में यह आज्ञा जारी की गयी कि किसी को जातिगत भावनाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन की इजाजत नही होगी। सरकार का अंग होने के नाते बृजेश पाठक को ऐसे काम करने चाहिए थे जिससे इसके लिए उदाहरण स्थापित होते हों पर पाठक जी सजातीय सम्मेलन में पहुंच गये। यह एक तरह से अपनी ही सरकार के इकबाल को चोटिल करने वाला काम था। उन्होंने कहा कि वे विप्र कल्याण बोर्ड के गठन के लिए सरकार पर दबाव डालेगें। इस मांग में कुटिलता की बू आती है। पिछड़े और दलित गलत सामाजिक सोच से उत्पीड़ित होते रहे हैं। इस सोच को बदलने के लिए उनके संरक्षण के विधायी उपाय करने के पीछे नैतिक तर्क हैं। लेकिन ठाकुर और ब्राह्मण कहने लगें कि वे खुद ही उत्पीड़ित हैं तो यह तो सामाजिक विषमता के सच की लीपापोती कहलायेगी। बृजेश पाठक के इस आचरण से मुख्यमंत्री को धर्म संकट झेलना पड़ा। जिसका मलाल निश्चित रूप से उनके मन में होगा।
केशव को अब मजा लेने की मिलेगी सजा
केशव प्रसाद मौर्या भी पार्टी और सरकार में सुगठित टीम तैयार करने का काम करने की बजाय मुख्यमंत्री की टांग घसीटने में अपनी ताकत दिखाते हैं। उन्होंने संगठन सरकार से बड़ा होता है की जो बात कही उसकी क्या तुक थी। क्या वे संगठन में थे जिसके कारण उन्हें यह शिकायत हुई कि संगठन को दोयम समझा जा रहा है। यह शिकायत अगर सच थी तो इसे भूपेंद्र चौधरी को उठाना चाहिए था। पर भूपेंद्र चौधरी ने तो ऐसा नही कहा। जाहिर है कि केशव मौर्या का काम जिस डाल पर बैठो उसी को काटने लग जाओ जैसा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मुख्यमंत्री अपने खिलाफ हो रहे षणयंत्र से आजिज आ चुके हैं इसलिए आर-पार की ठानकर उन्होंने विज्ञापन से दोनों उप मुख्यमंत्रियों के नाम गायब कराये। वे अपने उप मुख्यमंत्रियों की यह गलतफहमी दूर कर देना चाहते हैं कि पार्टी के दूसरे मुख्यमंत्रियों की तरह केंद्रीय नेतृत्व उन्हें जब चाहे कान पकड़कर कुर्सी से उतार सकता है। एक तरह से उन्होंने शक्ति परीक्षण के लिए मुनादी करा दी है। त्यौहार निपट जाने के बाद से बिहार चुनाव के परिणाम आने तक प्रतीक्षा रहेगी कि मुख्यमंत्री की इस शह के बाद केंद्रीय नेतृत्व का पैतरा क्या रहता है। वह परेशान करने की बजाय अब मुख्यमंत्री को संतुष्ट करने पर ध्यान देगा या उत्तर प्रदेश में भी बदलाव के पत्ते फेंटने का शौक पूरा करने की सोचेगा।

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