मायावती के नब्ज पर हाथ रखने से मोदी सरकार हुई बेहाल


बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमों मायावती एक बार फिर अपनी पार्टी को पुराने शिखर पर पहुंचाने के लिए कटिबद्धता दिखा रही हैं। मान्यवर कांशीराम के निर्वाण दिवस पर उन्होंने लखनऊ में पार्टी का बिग शो आयोजित किया जिसमें पांच लाख लोगों के पहुंचने का अनुमान राजनीतिक विद्वान बता रहे हैं। भाजपा सहित किसी पार्टी में फिलहाल यह दम नही है कि अपनी रैली में इतनी भीड़ इकटठी करके दिखा सके। फिर भाजपा के पास तो सत्ता के संसाधन भी हैं, कांग्रेस कर्नाटक में रैली करे तो वह भी सरकारी मशीनरी का फायदा वहां उठा लेगी। लेकिन बसपा न तो केंद्र में सत्ता में हैं और न ही किसी राज्य में उसकी सत्ता है। विधायी संस्थाओं में वह लगभग शून्य पर पहुंच चुकी है फिर भी उसके पास समर्पित कार्यकर्ताओं की इतनी बड़ी फौज मौजूद है जो कि अन्य पार्टियों के लिए ईर्ष्या का विषय है। भले ही इस विशाल शक्ति प्रदर्शन में एक बिरादरी विशेष की कशिश का ही योगदान माना जाये लेकिन यह बिरादरी आज भी सर्वहारा की हालत में है। मानना पड़ेगा कि उसकी स्वाभिमानी चेतना को बसपा ने जो बुलंदी प्रदान की है उसी का नतीजा है कि अभाव में भी जीवट दिखाने की उसकी दिलेरी किसी से भी बहुत आगे है। इस बीच व्यवस्था के केंद्र से छिटकी रहने वाली कुछ और जातियों को भी शासन सत्ता की कमान संभालने तक का अवसर मिला पर वे इसमें सुविधा भोगिता का शिकार भी हुई हैं इसलिए उनका जीवट कहीं न कहीं चुक गया है। उनका प्रतिनिधित्व करने वाले दल वोट ज्यादा ले सकते हैं लेकिन रैली की भीड़ जुटाने की होड़ में वे बसपा से आगे नही निकल सकते।
मंथरा के अवतार में मीडिया
पार्टी को पुनः संगठित करने की कवायद की कड़ी में मायावती ने लखनऊ में 20 अक्टूबर को एक बड़ी बैठक आयोजित की थी जिसमें पार्टी के सभी राष्ट्रीय पदाधिकारी प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय समन्वयक और अन्य जिम्मेदार नेता उपस्थित रहे थे। मीडिया में आजकल रिवाज हो गया है कि किसी दल या नेता के नीति संबंधी वक्तव्यों पर कोई ध्यान नही दिया जाता। उनकी बैठकों और बयानों में चटपटा मसाला ढूढ़ा जाता है। यह देखा जाता है कि कौन सी अटपटी बात कही गयी, एक दूसरे पर कटाक्ष की क्या बात हुई और अगर आपस में जूतम-पैजार हुआ हो तब तो सोने में सुहागा हो जाता है। मीडिया ने इस मामले में मंथरा का अवतार लेने की ठान रखी है। तथापि बसपा की राष्ट्रीय बैठक के जनसत्ता में दिये गये कवरेज में मायावती के नीति संबंधी वक्तव्य को प्रमुखता दी गयी है। खबर में बताया गया है कि मायावती ने व्यवस्था की एक दुखती रग पर हाथ रखते हुए बैठक में कहा कि आज सरकारें राजनीतिक स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए काम कर रहीं हैं। उनके फैसलों का राष्ट्रहित और जनहित से कोई संबंध नही होता।
फार्मूलाई फिल्म की तरह नही चलती राजनीति
मायावती ने यह बहुत मार्के की बात कही है। मौजूदा सरकार की सतही लोकप्रियतावादी प्रवृत्ति के तमाम उदाहरण देखे जा सकते हैं। मोदी सरकार सत्ता मे आई तो उसने नोटबंदी का एलान कर दिया। फार्मूलाई फिल्म की तरह राजनीति में चौंकाने वाले कदम उठाते रहने का अपना फायदा है जिसे इस सरकार में बखूबी देखा गया है। नोटबंदी के पीछे भी शुद्ध शोशेबाजी थी जिससे कोई फायदा नही हुआ सिवा नुकसान के। बैंकों में लगभग पूरा रुपया काले से सफेद होकर पहुंच गया। बड़े आदमियों के काले धन के नोट बैंक अधिकारियों और कर्मचारियों ने कमीशन लेकर घर बैठे बदल दिये जबकि आम आदमी को सारा काम धाम छोड़कर कई दिन लाइन में खड़े रहने के बावजूद नोट बदलवाने में कामयाबी नही मिल पायी। अगर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और काले धन को जब्त करने की मंशा से यह कदम उठाया गया होता तो देश का बहुत भला हो जाता। नोटबंदी के दिन ही जिले से लेकर शासन स्तर तक के बड़े अधिकारियों, नेताओं और व्यापारियों के यहां छापेमारी करा दी जाती तो खरबों रुपये की बेहिसाबी नगदी बरामद हो सकती थी लेकिन सरकार को ऐसा करना ही नही था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो यह दिखाना था कि उनके पास बड़े से बड़े मदारी से ज्यादा करिश्मे हैं।
नोटबंदी का खोखला तमाशा
2014 के चुनाव में भ्रष्टाचार का अंत और कालाधन को बाहर निकालना सबसे बड़े मुददे थे। मनमोहन सरकार और कांग्रेस को महाभ्रष्ट साबित करने के लिए बड़ी प्रोपोगंडा मशीनरी का इस्तेमाल किया गया था। मोदी के बारे में प्रचारित हुआ था कि उनके कोई घर-परिवार है नही। लोगों को इस कारण भरोसा हुआ था कि अगर उनके हाथ में सत्ता सौंपी गयी तो उन्हें भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने में कोई लाग-लपेट करने की जरूरत महसूस नही होगी। नोटबंदी को लोगों ने इस जिहाद का शंखनांद माना लेकिन जल्द ही इसका खोखलापन उजागर हो गया। इसके बाद तो सरकार जैसे भ्रष्टाचार और कालाधन जैसे अल्फाजों को भूल ही गयी। कहा जा रहा था कि अधिकारियों और नेताओं की नामजद और बेनामी संपत्तियों को उजागर करने के लिए श्वेत पत्र लाया जाये लेकिन फिर भ्रष्टाचार पर प्रहार के लिए किसी भी प्रयास का नाम लेवा तक सरकार में बैठे लोगों में नही रह गया। वर्तमान में स्थिति यह है कि सरकार ने सत्ता के दोहन को अधिकार की तरह मान्यता दे दी है। लोग भारी भरकम टैक्स चुकाते हैं और विकास कार्यों के बहाने से उसका खजाना कमीशन के जरिये कर्ता-धर्ताओं के द्वारा अपनी जेब में खींच लिया जाता है।
लोगों के जमीर से डरने लगीं सरकार
शुरूआती दौर में सरकार ने एक और पाखंड किया था। प्रचारित किया गया था कि प्रधानमंत्री देश के धन का एक पैसा अपने ऊपर खर्च नही करते। खाना-पीना से लेकर कपड़े तक का खर्चा वे अपने वेतन से अदा करते हैं। अब पता चल रहा है कि 12 घंटे की प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा में 12 करोड़ रुपये का सरकारी खर्चा हो जाता है। पहले किसी प्रधानमंत्री का इतना खर्चा नही रहा। प्रधानमंत्री के त्याग के इसी मिथक के आधार पर लोगों से कहा गया था कि जो सक्षम हैं वे रसोई गैस का अनुदान छोड़ दें। झांसे में तमाम लोगों ने अनुदान छोड़ दिया जबकि यह एक अच्छी पहल थी। लोगों की नैतिकता को झकझोरने का यह क्रम जारी रखा जाना चाहिए था लेकिन अपनी पोल खुलने के बाद प्रधानमंत्री कच्चे पड़ गये। आज खुद सरकार के लोग कह रहे हैं कि गरीबी का फर्जी राशनकार्ड होने के कारण तमाम अच्छे खासे खाते-पीते लोग राशन की दुकान से मुफ्त अनाज उठा रहे हैं। ऐसे लोगों के जमीर को अब प्रधानमंत्री आवाज क्यों नही देना चाहते। एक मुफ्त अनाज की ही बात नही है तमाम अन्य सुविधाएं हैं जिनमें सक्षम लोग सरकार की बचत कर सकते हैं। हेमामालिनी और कंगना रनौत सांसद का सरकारी बंगला क्यों लें जबकि वे दिल्ली में इन बंगलों से कई गुना आलीशान बंगले खुद खड़ा कर सकती हैं पर क्या सरकार की लोगों से अनुदान आदि सुविधाएं छोड़ने के लिए अपील करने की डयूटी खत्म हो गयी है। गजब तो यह है कि अगर एक पूर्व सांसद पूर्व विधायक भी रहा हो तो वह दो पेंशन उठाता है। माननीय पैसे के इतने भूखे हैं तो आम लोग लालच से परहेज कैसे करेगें। राज्य सभा के पूर्व सभापति जगदीप धनखड़ पद से हटे तो उनके घर का चूल्हा बुझ गया। कई दिन वे और उनकी पत्नी भूखे सोये। आखिर में विधायकी की पेंशन के लिए बेचारे जयपुर में विधानसभा अध्यक्ष के पास जा पहुंचे। बेशर्मी और लोलुपता की हद है लेकिन छवि बनाने के लिए रसोई गैस की सब्सिडी छुड़वाने का नाटक खत्म कर लेने के बाद प्रधानमंत्री जी लोकप्रियता का दूसरा नुस्खा ढ़ूढ़ने निकल पड़े।
जीएसटी: लौट के बुद्धू………..
प्रधानमंत्री जी को कैच वर्ड गढ़ने में महारथ हासिल है। काश वे किसी मीडिया प्लेटफार्म पर होते तो उनकी हैडिंग टीआरपी के सारे रिकार्ड तोड़ डालती। लेकिन मीडिया की हैडिंग की उपयोगिता अगले दिन खत्म हो जाती है फिर ढ़ूढ़ो नई हैडिंग। प्रधानमंत्री जी ने जब जीएसटी लागू की तो एक देश एक टैक्स का स्लोगन गंुजाया। इस स्लोगन में बड़ा फोर्स था। विपक्ष ने कहा और आर्थिक मामलों के जानकारों ने भी कहा कि जीएसटी के इतने ज्यादा स्लैब बनाने की कोई तुक नही है। जीएसटी का सरलीकरण करने और कर की दरें कम रखने का सुझाव दिया गया पर राजनीतिक स्वार्थों की पटटी आंखों में बांधकर काम करने वाली इस सरकार ने किसी की न सुनी। अब जब सनकी ट्रंप के टैरिफ वार से व्यवस्था लड़खड़ा गयी तो जीएसटी की दरें संतुलित करके उसने कहा कि अब चीजें सस्ती होने का जश्न मनायें। होना यह चाहिए था कि सरकार मानती कि उसने कई चीजों पर बहुत ज्यादा जीएसटी तय कर दी थी जो गलती थी। कहती कि अब हमने उसमें सुधार कर दिया है पर उसमें इतना बड़ा दिल तो है नही।
खुद को भी रेवड़ी कल्चर ने ललचाया
रेवड़ी कल्चर के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत भाषण दिया। अगर वे नीतिगत सोच से काम करते होते तो इस पर डटे रहते लेकिन बिहार में अपनी हालत खस्ता दिखी तो महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपये डलवाकर रेवड़ी कल्चर का नया रिकार्ड कायम कर डाला। सरकारी नौकरियों के बारे में भी आपकी कोई नीति नही है। अगर आपको विश्वास है कि निजीकरण से पर्याप्त अवसर भी सृजित होगें और काम की गुणवत्ता में भी सुधार होगा तो आप इस लीक को मजबूती से पकड़े। पर आप तो चुनाव के लिए फंडिंग की व्यवस्था करने वाले उद्योगपतियों को सरकारी उपक्रम कबाड़ के भाव सौंपने का काम कर रहे हैं। ये वे उद्योगपति हैं जो शेयर बाजार के मैनुपुलेशन जैसे हथकंडों से रुपये की तीन अठन्नी बनाने में माहिर हैं बजाय उत्पादकता का कमाल दिखाने के। कागजी घोड़े दौड़ाकर मुनाफा बटोरने में माहिर लोग कुछ बनाने का काम करने में ऊर्जा नही खपाते और जब उत्पादकता पर ध्यान नही दिया जायेगा तो वैकल्पिक रोजगार भी कैसे पैदा होगें।
नेता-नेता आपस में मौसेरे भाई
विदेशों में जमा काला धन देश में लाने की बड़ी-बड़ी डींगे मोदी जी ने 2014 के चुनाव के पहले हांकी थीं पर अब जाहिर हो चुका है कि वे इसके इच्छुक ही नही हैं। वीपी सिंह ने काले धन की सर्च के लिए दुनियां की आर्थिक मामलों की सबसे बड़ी कंपनी फेयर फैक्स की सेवाएं ली थीं। तमाम उद्योगपति इसमें बेनकाब होने लगे थे इसीलिए उनकी सरकार गिरवाई गयी। फेयर फैक्स का संचालक माइकल हर्शमैन मोदी सरकार में दिल्ली आया था और उसने कहा था कि अगर भारत सरकार उससे कहे तो वह बोफोर्स की दलाली लेने वालों को भी पकड़वा देगा और काले धन के सारे मगरमच्छ कानून के जाल में फांसकर सरकार को सौंप देगा। मोदी जी ऊपर से तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ इतना नाटक करते हैं लेकिन अगर सचमुच उन पर किसी कार्रवाई की उनकी मंशा होती तो वे माइकल हर्शमैन को बुलवाकर उससे बात करते। सोनिया परिवार के साथ-साथ तमाम और बिग गन उनके शिकंजे में आ जाते। लेकिन हमाम में जब सब नंगे हैं तो चाहे कुर्सी पर मोदी रहें और चाहे राहुल जनता के दुश्मनों पर किसी को कुछ नही करना।
बहनजी भी कर लेती हैं काम की बात
अब हम फिर आते हैं बसपा सुप्रीमों मायावती के बयान पर। लोगों को खुद उनका बयान परखना चाहिए। राजनैतिक स्वार्थ की बातें चुनावी रैलियों तक होनी चाहिए लेकिन इसके बाद तो सरकार का जो कदम हो वह देश और लोगों के कल्याण की दृष्टि से उठाया जाये। मायावती का बयान इस मामले में बहुत गंभीरता से मनन किये जाने योग्य है। 

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