बिहार में विधानसभा का चुनाव प्रचार गर्मा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाएं आयोजित होने लगी हैं। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव भी संयुक्त सभाएं संबोधित करने वाले हैं लेकिन उनका कार्यक्रम अभी जारी नही हुआ है। कांग्रेस को तमाम टाल-मटोल के बाद आखिरकार तेजस्वी यादव को महागठबंधन में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना ही पड़ा। अगर महागठबंधन की सरकार बनी तो तेजस्वी यादव के साथ दो उप मुख्यमंत्री भी बनाये जायेगे। इनमें एक नाम वीआईपी दल के मुखिया मुकेश सहनी का होगा। दूसरा मुख्यमंत्री कांग्रेस पार्टी से बनाया जायेगा लेकिन कांग्रेस अभी यह तय नही कर पाई है कि इसके लिए वह किस नेता को प्रस्तावित करेगी।
नीतिश के पैर अभी भी नही उखड़े
मुख्यमंत्री नीतिश कुमार पर उम्र के असर की तमाम चर्चाओं के कारण उनकी क्षमताओं पर लोगों का भरोसा प्रभावित हुआ है इसके बावजूद तमाम सर्वे में यह बात निकलकर सामने आई है कि लोगों की आस्था और हमदर्दी अभी भी नीतिश के साथ है। दूसरी ओर तेजस्वी यादव युवाओं के एक बड़े वर्ग का समर्थन अपने साथ खींचने में सफल हो रहे हैं। वे नीतिश के साथ गठबंधन में दो बार कुल मिलाकर लगभग 20 माह के लिए उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस कार्यकाल को लेकर उन्होंने यह प्रचारित कराया है कि सत्ता में रहते हुए युवाओं को लगभग 5 लाख नौकरियां उनकी वजह से मिलीं। युवा इस प्रचार पर यकीन भी कर रहे हैं। चुनाव अभियान में इसी के मददेनजर तेजस्वी यादव का जोर फिर से युवाओं को ज्यादा से ज्यादा नौकरी दिलाने पर है।
तेजस्वी के सपनों में कितनी जड़
तेजस्वी यादव ने एलान कर रखा है कि वे बिहार के प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देगें। उन्होंने राज्य के सभी संविदा कर्मियों के नियमितीकरण का वायदा भी किया है। उनकी यह घोषणाएं तुरुप का इक्का साबित होती दिख रहीं हैं। भाजपा गठबंधन इन घोषणाओं से विचलित भी है और बौखलाया भी। सभी संविदा कर्मियों के नियमितीकरण के तेजस्वी के वायदे पर भाजपा ने कहा कि तेजस्वी संविदा कर्मियों के साथ क्रूर मजाक कर रहे हैं। भाजपा को भय है कि युवाओं को तेजस्वी की रोजगार परक घोषणाएं बहुत अधिक लुभा सकती हैं। युवा न केवल उन्हें एक मुश्त वोट दे सकते हैं बल्कि उनके मन में महागठबंधन को सफलता दिलाने के लिए करो या मरो जैसे जोश के साथ चुनाव मैदान में सक्रिय होने का संकल्प भी जाग सकता है। इसलिए भाजपा ने तेजस्वी के वायदों को खोखला साबित करने के लिए पूरी ताकत झोंकने की ठान ली है। भाजपा को मालूम है कि नौकरी का ऑफर कितना हृदय स्पर्शी होता है। 2014 के लोकसभा के चुनाव में मोदी ने प्रतिवर्ष दो करोड़ युवाओं को नौकरी देने का जो वायदा किया था उसके कारण युवा मोदी के दीवाने हो गये थे। यह दूसरी बात है कि नौकरी का वायदा करना आसान है जबकि देना उतना ही मुश्किल है। मोदी भी कहां नौकरियों की व्यवस्था कर पाये। जब उनसे इस बारे में बहुत ज्यादा सवाल होने लगे तो मोदी ने कह दिया कि पकौड़े तलना भी तो एक तरह का रोजगार है। हताश युवाओं को उनके इस बयान से बहुत पीड़ा हुई थी। उन्होंने जमकर भड़ास निकाली तब प्रधानमंत्री को अपनी गलती का एहसास भी हुआ था।
अरमान बड़े, साधन छूछे
तेजस्वी यादव के लिए भी हर परिवार के एक सदस्य लायक नौकरियां जुटाना कम मुश्किल नही हैं। बिहार में तीन करोड़ से अधिक परिवार हैं। यदि यह माना जाये कि इनमें से केवल 30 प्रतिशत परिवार ही नौकरी के प्रार्थी होगें तो भी 90 से 95 लाख नौकरियां देनी पड़ेगीं। बिहार में अभी 20 लाख सरकारी पद हैं। जिनमें से 5.75 लाख ही खाली हैं। ऐसे में तमाम अतिरिक्त पद सृजित करने पड़ेगें। इतने ज्यादा पद बनाकर आप कर्मचारियों से काम क्या करायेगें। आदमियों के लिए काम तो कंप्यूटर और एआई आदि टैक्नोलॉजी आने के बाद घट रहा है और आप इतना ज्यादा बढ़ाने की बात कर रहे हैं। इसके अलावा 90 लाख नौकरियां देने पर केवल वेतन के लिए 9 से 15 लाख करोड़ रुपये का बजट चाहिए जबकि 2025-26 का बिहार का बजट मात्र 2.94 लाख करोड़ है।
कम पड़ जायेगा कुबेर का खजाना भी
संविदाकर्मियों के नियमितीकरण के मामले में भी बड़ा पेंच है। 4 से 5 लाख संविदा कर्मियों को वर्तमान बजट में मानदेय देने के लिए 4986 करोड़ रुपये का प्रावधान है जबकि नियमितीकरण हो जाने पर यह बजट बढ़कर 27 हजार करोड़ रुपये हो जायेगा। तेजस्वी इतने बड़े बजट की व्यवस्था कहां से करेगें। जहां तक केंद्रीय सहायता का सवाल है अभी जितनी मिल रही है उनकी सरकार बन जाने पर उसमें भी लाले पड़ जायेगें। केंद्रीय सहायता बढ़ने का सवाल ही नही है। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार को अतिरिक्त चावल देने के वायदे को निभाने के लिए केंद्र की ऐसी हरकत के कारण नाकों चने चबाने पड़ गये थे। मोदी जी का मामला तो अलग है। उनके समर्थक अंध भक्ति के शिकार हैं। मोदी चाहे जितनी गप्पें हांके उनके समर्थकों का भरोसा फिर भी उन पर नही टूटेगा। वे तो माने बैठे हैं कि जब तक मोदी जी इस दुनियां में हैं भारत तभी तक सलामत और सुरक्षित है। मोदी जी के अलावा सारे लोग देश के साथ गददारी करने में लगे हैं इसलिए मोदी जी कुछ भी स्याह-सफेद करें उनको सब मंजूर है पर तेजस्वी इस हालत में नही हैं। इसलिए उनको विश्वसनीय वायदे ही करने चाहिए जिनकी व्यवहार्यता को वह स्पष्ट कर सकें। दोनों हाथों से सरकारी नौकरियां बांटने का उनका वायदा अमल में लोगों को मात्र हवाई किला नजर आता है इसलिए यह वायदा उन्हें कुछ देने की बजाय गडढे में न धकेल दे।
कमीशन बिन सब सून
यह तो एक प्रदेश में सरकारी नौकरियों की बात हुई लेकिन इसी तारतम्य में देश में सरकारी नौकरियों की स्थिति पर चर्चा कर ली जाये तो यह पूरी तरह प्रासंगिक होगा। देश की अर्थव्यवस्था दुनियां में तीसरे नंबर पर पहुंच गयी। इसका ढिढोरा पीटने वालों को यह बताना चाहिए कि अगर देश आर्थिक रूप से इतना शक्तिशाली हुआ है तो प्रतिव्यक्ति आय में 50वें नंबर पर क्यों है। अगर देश की माली हालत इतनी सुदृढ़ है तो नौकरियां देने के लिए उसके पास पैसे की कमी क्यों हो रही है। इसी कमी का तो कारण है कि आप नियमित भर्तियां बंद करके संविदा और ठेका कर्मचारी का विकल्प काम कराने के लिए अपना रहे हैं। हमारे देश में दो तरह के भारत हैं। एक भारत है अभिजनों का जिसमें सामाजिक दर्जें के हिसाब से सवर्ण आबादी आती है और उच्च मध्यम वर्गीय परिवार से लेकर धनाढय आते हैं। उनके लिए देश की नीतियां तरक्की के सोपान पर उन्हें चढ़ाने वाली हैं। दूसरा भारत है उन लोगों का जो सामाजिक व्यवस्था में पतित करार दिये गये हैं और आर्थिक तौर पर जो अभाव से जूझने वाली आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जाहिर है कि दूसरा भारत बहुतायत में तो है लेकिन उसके लिए दुनियां में नंबर तीन और नंबर दो पर विराजमान होती इस अर्थव्यवस्था का दुष्चक्र अभिशाप बनकर रह गया है। यह अर्थव्यवस्था नौकरियों के मामले में क्यों बंजर है इसका रहस्य हम बताते हैं। विदेश उपनिवेशवादियों ने देश की जितनी लूट नही की होगी उतनी लूट इस अर्थ अव्यवस्था में हो रही है। राष्ट्रवाद के नशे में लगातार बढ़ रहे टैक्स का दर्द लोगों को परेशान नही करता। उनकी बेखुदी से उनके मेहनत की लगभग पूरी कमाई ऐंठ कर सरकारी खजाने में जमा कराई जा रही है। इसके बाद विकास के सब्जबाग में उलझाकर खजाने से पूरी रकम खींच लेने का इंतजाम किया जाता है। गौर से देखें तो विकास किसका होता है। बच्चे-बच्चे को पता है कि सरकार के हर काम में 70 प्रतिशत तक रकम की बंदरबांट कमीशन में होती है और यह कमीशन नेता और अधिकारी की शक्ल में बैठे लुटेरों की जेब में जमा हो जाता है। अगर सरकारी नौकरियां देगें तो नेता और अधिकारी का क्या फायदा होगा। जिस व्यक्ति को नौकरी मिलेगी सरकारी खजाना उसे तनख्वाह देने में खर्च हो जायेगा। नेताओं और अधिकारियों के लिए यह घाटे का सौदा है। इसलिए उन्हें नौकरियां बढ़ाने या सुरक्षित रखने में कोई दिलचस्पी नही है।
विकास में आम के आम गुठलियों के दाम
विकास में आम के आम और गुठलियों के दाम का सूत्र लागू होता है। पहले परिसंपत्तियां और संरचनाएं बनते समय कमीशन बरसता है इसके बाद ये सारी परिसंपत्तियां चहेते उद्योगपतियों को कबाड़ के भाव बेचने में अलग कमीशन की व्यवस्था हो जाती है। उत्तर प्रदेश में बिजली का सरंजाम चिन्हित उद्योगपतियों में से एक को कौड़ियों के भाव बेचने की जुगत लगाई जा रही है लेकिन बाबा जी की अंतरात्मा कभी-कभी बाधक बन जाती है जिससे इसकी रफ्तार सुस्त पड़ जाती है। ऐसे में ऊर्जा मंत्री अरविंद शर्मा दुखी होकर अपने खिलाफ षणयंत्र रचे जाने का रोना रोने लगते हैं।
तंत्र की कुशलता में भी लड़खड़ाहट
इस परिदृश्य में सरकारी सेवाओं की कुशलता नियमित कर्मचारियों के अभाव के कारण बहुत गिरती जा रही है लेकिन जिम्मेदारों को इसका बिल्कुल मलाल नही है। तो नौकरियों का यह अकाल किस तरह वास्तविक नही कृत्रिम है यह आप लोगों को समझ में आ रहा होगा। बिहार में राज्य स्तर पर इसके समाधान के लिए कोई नया प्रयोग आ सकता है इसकी उम्मीद करना भी प्रवंचना मात्र है। भारत का जो समाजवादी परिवार है जिसमें सैफई परिवार से लेकर लालू परिवार तक शुमार होते हैं इन्होंने कब जनवादी मॉडल प्रस्तुत करने की जहमत उठाई है। जमीन के बदले नौकरी देने के मुकदमें में फंसा लालू परिवार भी जनवाद से कितना दूर है यह छुपा नही है। ऐसे में तेजस्वी विकल्प देने के नाम पर ख्याली कुलाबे ही जोड़ सकते हैं नई जमीन तोड़ने की आशा उनसे भी बिल्कुल नही की जानी चाहिए।







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