भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी से लोक सभा तक का सफर तय करने वाले रामराज उर्फ उदित राज का नाम हमेशा से चर्चाओं में रहा है। उनको लेकर ताजा मामला उनकी पत्नी सीमा राज जो कि स्वयं भी आईआरएस अधिकारी थीं और हाल ही में सेवा निवृत्त हुई हैं उनके नाम से दिल्ली के पंडारा पार्क पर आवंटित सरकारी बंगले को जबरन खाली कराये जाने का है। सरकारी सूत्र बताते हैं कि रिटायरमेंट के बाद सीमा राज को गत 31 मई तक आवास की वैकल्पिक व्यवस्था करने तक उस बंगले में रहने की अनुमति थी। लेकिन डैड लाइन गुजरने के बाद भी उन्होंने नया ठिकाना तलाशने और इज्जत के साथ सरकारी बंगला खाली करने की कोई सुध नही ली। इस बीच उन पर बंगले का 21 लाख 45 हजार रुपये किराया भी चढ़ गया फिर भी वे चुप्पी साधे रहीं। 5 अगस्त को उन्हें बंगला खाली करने का नोटिस भेज दिया गया। फिर भी ढीठता पूर्वक वे बंगले में जमी रहीं तो उन्हें जबरिया बेदखल करने की कार्रवाई की गयी। उनका सामान उठाकर सड़क पर रख दिया गया। उदित राज अब इस मुददे को उत्पीड़नात्मक बताकर उंगली कटाकर शहीद बनने की कोशिश कर रहे हैं। उनका आरोप है कि अनुसूचितों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ वे जिस तरह मुखर थे सरकार को बर्दास्त नही हो रहा था इसलिए सजा के तौर पर उनको बंगले से बेआबरू करके निकाला गया। मजे की बात यह है कि सीमा राज जिनके नाम से बंगला है वे सामान्य वर्ग से आती हैं। मूल रूप से पंजाबी खत्री वर्ग की सीमा से रामराज की मुलाकात 1990 में नागपुर में हुई थी जहां दोनों आयकर विभाग की नौकरी की ट्रेनिंग कर रहे थे।
राहुल ने तो नही रोया था रोना
बेशक कई नेता और अधिकारी हैं जिनके बंगले पद से हट जाने के बाद भी लंबे समय तक खाली कराने की याद सरकार को नही आती। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि के मुकदमें में 2 वर्ष की सजा हुई तो आनन-फानन उनकी सदस्यता समाप्त करा दी गयी और उनको बंगला खाली करने का नोटिस भी थमा दिया गया। जबकि मायावती जो लंबे समय से किसी सदन की सदस्य नहीं रह गयी थीं फिर भी उन्हें सरकारी बंगले से नही हटाया गया था। हालांकि अब वे निजी आवास में रह रहीं हैं। सेवा निवृत्त प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने भी अपना सरकारी बंगला काफी समय तक खाली नही किया था लेकिन सरकार ने उनको टोकने की जरूरत नही समझी। पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का निधन 6 अगस्त 2019 को हो गया था पर उनके परिजनों ने सरकारी आवास 29 जून 2021 को खाली किया। उनके साथ भी इस दौरान कोई जबर्दस्ती नही की गयी। इसके बावजूद राहुल गांधी ने जब उनको नोटिस मिला तो कोई जिरहबाजी न करके तत्काल बंगला खाली कर दिया था।
धम्म का शील क्यों नही रहा याद
उदित राज के स्वभाव से परिचित लोग जानते हैं कि इस तरह के शील की अपेक्षा उनसे करना बेकार है। वे 2001 में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के बाद रामराज से उदित राज बने। बौद्ध धर्म में शील को व्यक्ति के चरित्र में बहुत महत्व दिया गया है लेकिन उदित राज में न तो अंबेडकरवाद की गहराई है और न बौद्ध धर्म की। व्यवहारिक स्तर पर उनकी पहचान अभद्र व्यक्ति के रूप में होती है। बाबा साहब अंबेडकर सिद्धांत और व्यवहार दोनों में ही महान लोकतंत्रवादी थे। उदित राज से मेरी व्यक्तिगत मुलाकात भी हुई है। उनमें मैने सामंतवादी अहंकार को फुंफकार मारते हुए देखा।
कर्मचारियों के कंधे पर बंदूक रखकर चमकाई खुद की नेतागीरी
अनुसूचित जाति-जनजाति केंद्रीय कर्मचारियों की नेतागीरी में उन्होंने नाम और नामा दोनों ही खूब कमाया। इस दौरान उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि अटल जी की सरकार के समय अनुसूचित जाति-जनजाति केंद्रीय कर्मचारी परिसंघ के बैनर तले राजधानी दिल्ली में विशाल रैली के आयोजन की रही। जिसके कारण अटल बिहारी बाजपेयी सरकार को अनुसूचित जाति-जनजाति के अधिकारियों को पदोन्नति में मिलने वाले आरक्षण को प्रभावित करने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश को 77वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से सुरक्षित करने का शासनादेश जारी कराना पड़ा। इस उपलब्धि से उदित राज को जो ख्याति मिली उसके चलते उनकी महत्वाकांक्षाएं कुलाचे भरने लगीं। नतीजतन उन्होंने नौकरी से वीआरएस ले लिया और बौद्ध धर्म की नाटकीय दीक्षा लेकर राजनीति के मैदान में उतरने के लिए जस्टिस पार्टी का गठन कर डाला। इस दौरान वीपी सिंह के मोर्चे में शामिल होकर उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में प्रमुखता हासिल करने का प्रयास किया जो विफल रहा।
कांशीराम और मायावती के पैर की धूल नही
उदित राज कांशीराम और मायावती के समकक्ष खड़े होना चाहते थे लेकिन बसपा के नेताओं के कठिन होमवर्क की बराबरी करना उनके बूते की बात नही थी। कांशीराम अक्खड़ थे लेकिन ऊपर से। उनका अपने सहयोगियों से वास्तविक संबंध बहुत आत्मीय था। उन्होंने सुदूर गांव-देहात तक गरीबों की झोपड़ियों में जाकर और उनके साथ रूखी-सूखी खाकर अपने साथ जोड़ा। मायावती भी इस संघर्ष में उनके साथ भागीदार रहीं। कांशीराम ने पार्टी को एक परिवार की तरह बनाया। उदित राज के लिए ऐसा जमीनी काम करना असंभव था। सामंतवादी स्वभाव के कारण लोगों के वैचारिक जागरण की बजाय वे व्यक्ति पूजा कराने में विश्वास रखते हैं। इसलिए बसपा की तरह कार्यकर्ताओं के लिए कैडर क्लास चलाने का काम भी उनसे नही हो सका। कांशीराम के पास त्याग और समर्पण की जो पूंजी थी उसका भी मुकाबला किसी से नही हो सकता था। उनके समय ही मायावती मुख्यमंत्री बन चुकी थीं जिसके कारण सत्ता और संसाधन भी उनके हिस्से में आ गये थे। इसके पहले देश भर के दलित अधिकारियों और कर्मचारियों से उनके पास पैसा आता था। दिमान रघुनाथ सिंह लोधी जैसे जमीदारों से लेकर जयंत मलहोत्रा तक को उन्होंने पार्टी से जोड़ा। लेकिन इस चंदे को अपने ठाट-बाट के लिए कभी खर्च नही किया। वे सामान्य आदमी से अधिक सादा जीवन जीते थे। न तो उन्होंने विवाह किया और न ही अपने मां और भाईयों की गरीबी दूर करने में पार्टी के चंदे का एक पैसा खर्च किया।
भाजपा की शरण लेते क्यों नही कचोटा जमीर
सुविधाभोगी उदित राज इसी कारण स्वतंत्र रूप से राजनीति की पारी जमाने में सफल नही हो पाये तो वर्ण व्यवस्थावादी भारतीय जनता पार्टी की शरण में चले गये। 2014 में मोदी लहर के समय उन्हें भाजपा के टिकट पर लोक सभा में प्रवेश का सपना साकार करने का भी अवसर मिल गया। लेकिन अपने बोल के कारण भाजपा में उनकी निभ नही सकी। वे मोहनलाल गंज के सांसद कौशल किशोर नही बन पाये। कौशल किशोर एक समय कम्युनिस्ट पार्टी के तेज-तर्रार दलित नेता थे। लेकिन संघर्ष करते-करते जब वे थक गये तो भारतीय जनता पार्टी में चले गये। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के अनुशासन में अपने को ढालना सीखा तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहने का अवसर भी उन्हें मिल गया। हालांकि 2024 में कौशल किशोर चुनाव हारने के कारण अब बेपटरी हो गये हैं लेकिन उन्हें पता है कि भाजपा में अगर दलित नेता जुबान पर ताला डालकर रहना जानता है तो उसे आगे भी कुछ न कुछ मिल सकता है। सो कौशल किशोर चुप रहकर पार्टी में बने हुए हैं, दिन बहुरने के इंतजार में।
भाजपा में निबाह का तरीका नही जाने
उदित राज को अपने उद्धत वक्तव्यों के कारण भाजपा से बाहर जाना पड़ा। 2019 में कांग्रेस में शामिल होकर उन्होंने चुनाव लड़ा लेकिन कामयाबी नही मिली। उदित राज अपने आपको अंबेडकरवादी कहते भले हो लेकिन बाबा साहब जैसी सोच की विराटता उनके अंदर नही है। बाबा साहब को जितना जातिगत अपमान और उत्पीड़न झेलना पड़ा उदित राज की जिदंगी उसके मुकाबले कुछ हद तक आसान रही। लेकिन बाबा साहब ने उस तिक्तता को अपनी सोच पर हावी नही होने दिया। अकादमिक मामलों में वे बहुत ईमानदार थे। सवर्णों से लाख शिकायत होने के बावजूद उन्होंने प्रतिपादित किया कि दलितों और सवर्णों में नस्ल का कोई अंतर नही है। उन्होंने दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार को लेकर कहा कि कोई एक मनु के लिए इतनी क्रूर और बर्बर प्रथाएं लागू करना संभव नही था। उन्होंने मनु को जातीय क्रूरता के लिए बरी करने का काम किया। उन्होंने अपनी पार्टी का नाम जाति के आधार पर नही रखा क्योंकि उनके लिए वर्ग चेतना जाति चेतना से ऊपर थी। केवल एक बार उन्हें शैडयूल कास्ट फैडरेशन के नाम से पार्टी बनानी पड़ी वजह थी क्रिप्स मिशन की शर्तें। सरदार पटेल जब तक उन्हें समझ नही पाये थे तब तक वे कहते थे कि डा. अंबेडकर के लिए संविधान सभा के दरवाजे खोलना तो दूर मैं एक खिड़की तक खोलने की सहमति नही दूंगा। लेकिन उन्ही सरदार पटेल ने संविधान सभा में जब बाबा साहब के व्यापक विधिक विवेक और न्याय दृष्टि का परिचय प्राप्त किया तो वे उनके मुरीद हो गये। बाबा साहब जिस सीट से संविधान सभा के लिए निर्वाचित हुए थे विभाजन के कारण वह क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया। जिससे संविधान सभा से बाबा साहब को बेदखल होना पड़ा। तब सरदार पटेल ही थे जो महाराष्ट्र की सामान्य वर्ग की सीट के ब्राह्मण सदस्य का इस्तीफा कराकर उप चुनाव के माध्यम से बाबा साहब को संविधान सभा में वापस लाये। उदित राज थोथी क्रांतिकारिता के कारण बाबा साहब के चिन्तन की इस विशेषता को स्पर्श करने में असमर्थ हैं। इतिहास की सच्चाईयां कड़वीं हैं लेकिन उन्हें कहने का अच्छा सलीका हो सकता है। बदलाव के लिए टकराव की नही ऐसी भाषा और तथ्यों के प्रस्तुतिकरण की जरूरत है जो लोगों में न्याय बुद्धि को जागृत कर सके पर उदित राज को विषवमन के अलावा सलीके से बाते रखकर हृदय परिवर्तन करना नही आता। बंगला खाली कराने के मामले में उन्हें अपने नेता राहुल गांधी के बड़प्पन से सीख लेनी चाहिए थी। उन्हें भाजपा से कृपा की उम्मीद करने की बजाय समय पर बंगला खाली करके उसकी चाबी सरकार के मुंह पर मार देनी चाहिए थी। लेकिन व्यक्तिगत सुविधा के लिए कौम का नाम लेना शर्मनाक है।







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