कुछ समय पहले सरकार के अंदर सोशल मीडिया पर अंकुश की खिचड़ी तेजी से पक रही थी। जो दिग्गज पत्रकार सांस्थानिक मीडिया से निकाले जाने के बाद अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सक्रिय हुए थे उनमें इस विपदा को लेकर खलबली थी। अपनी व्याकुलता को लोगों के साथ साझा करने के लिए टैक्नोलॉजी के देवता की कृपा से खुली खिड़की भी बंद हो जाने के आसार उनकी नींद हराम किये हुए थी। पर अब जैसे लगता है कि संकट टल गया है। सरकार ने खुद ही अपना इरादा बदल दिया है। क्या इसलिए कि सरकार में बैठे लोगों का जमीर जाग पड़ा है।
मन मारकर चल रही सरकार
लेकिन इस मामले में कोई गलतफहमी पालने की जरूरत नही है। सामाजिक अन्याय के शिकार वर्गों में ठाठे मारती अधिकार चेतना के कारण मौजूदा सरकार को मन मारकर काम करना पड़ रहा था। सर संघ चालक मोहन भागवत ने बिहार के 2015 के विधान सभा चुनाव में आरक्षण की समीक्षा का शोशा छोड़कर आरक्षण से मुक्ति पाने की भूमिका बनाई थी लेकिन बुरा हो इस अधिकार चेतना का जिसकी वजह से दलितों और पिछड़ों ने चुनाव में भाजपा को ऐसा मजा चखाया कि मोहन भागवत से लेकर मोदी तक पानी मांग गये। कसमें खाने लगे कि आरक्षण में कोई छेड़छाड़ नही की जायेगी। दलितों और पिछड़ों के बल के एहसास के कारण वफा की कसमें यहां तक खायी जाने लगीं कि माननीय प्रधानमंत्री ने सनद कर डाली कि जब तक वे जिंदा हैं आरक्षण में इंच भर भी खरोंच नही आने देगें। मोहन भागवत कहने लगे कि जब तक शोषित समाज के लोग नही चाहेगें तब तक आरक्षण खत्म नही होने दिया जायेगा।
जात ही पूंछो साधु की
लेकिन पिछले कुछ महीने से शोषित समाज के बल की हवा निकालने वाली मिसाइलों के सफल परीक्षण के बाद अब मोहन भागवत से लेकर मोदी तक के यह बोल बंद पड़ गये हैं क्योंकि इस अदा से वे दलितों और पिछड़ों का मनोबल तोड़ने के लिए सोशल मीडिया पर छेड़े गये युद्ध के लिए अपना मौन समर्थन व्यक्त करना चाहते हैं। शुरूआत हुई इटावा में एक यादव कथा वाचक की सिर मुड़ाकर पिटाई से। कहा तो यह जाता है कि कथा वाचक पर महिला का मूत्र तक छिड़का गया। पाखंड देखिये कल तक अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ानी थी तो उमा भारती आदि के मुंह से पूरी श्रद्धा के साथ कथाएं सुनी जा रहीं थीं। ऐसा भी नही कि किसी को उनकी जाति पता न हो लेकिन कहीं कोई एतराज नही था। पर आज जब सत्ता के केंद्र में पहुंचने की मशक्कत सफल हो चुकी है तो कथा वाचक से जाति पूंछने की जरूरत महसूस होने लगी है। निश्चित है कि अपमानित किये गये कथा वाचक को अच्छी तरीके से कथा पढ़ना और प्रवचन करना आता होगा तभी तो उन्हें बुलाकर लाया गया था। फिर उनसे जाति पूंछने की क्या जरूरत थी। इस मामले में कार्रवाई हुई लेकिन उपद्रवियों के खिलाफ औपचारिकता के लिए और कथा वाचकों पर चार सौ बीसी से लेकर कितनी ही संगीन दफाएं थोप दी गयी। यह घटना एक सैंपल थी। दलित, पिछड़े समाज में इसके उग्र प्रतिकार की कोई स्थिति नही आई तो कुछ और घटनाएं करके देखने की सोच लीं गयीं। हर घटना में इसी तरह का हश्र सामने आया। फिर विस्फोट के रूप में एक कुंठित बुजुर्ग का मानव बम की तरह इस्तेमाल करते हुए दलित सीजेआई पर कोर्ट की कार्रवाई के दौरान जूता फिकवा दिया गया।
जूता कांड में कहां से आ गये बाबा साहब
यह प्रस्तावना थी शोषित समाज के लोगों को उनकी हद बताने की। जस्टिस बीआर गवई ने अगर कुछ गलत कहा तो उसमें बाबा साहब अंबेडकर कहां से आ गये। संविधान निर्माता के रूप में उनकी पहचान को खंडित करने का इसमें क्या संदर्भ था। संविधान सभा की कार्यवाही के अंश पढ़िये तब पता चलेगा कि संविधान की मौलिकता में कौन निहित है- डा. अंबेडकर या बीएन राव। बीएन राव तो अस्पृश्यता उन्मूलन को दंडनीय घोषित करवाने और अनुसूचित जाति, जनजाति व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान कराने में रुचि ले नही सकते थे जो संविधान के समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित समाज के निर्माण के संकल्प की कसौटी स्वरूप हैं लेकिन इसका तात्पर्य यह नही है कि उन्होंने संविधान सभा में अपनी पोजीशन का लाभ सिर्फ दलितों और पिछड़ों के हितों को बढ़ावा देने के लिए किया हो। सच तो यह है कि बाबा साहब की दृष्टि में नागरिक समाज के निर्माण का सपना बसा हुआ था जिसके लिए उन्होंने जाति, धर्म से परे होकर हर आम आदमी के सशक्तीकरण के प्रावधान कराये। वयस्क मताधिकार की व्यवस्था किसने करायी। 1947 के पहले शिक्षा, कर देयता, संपत्ति का मालिकाना आदि के आधार पर मताधिकार की व्यवस्था थी। देश की आबादी का कुल 14 प्रतिशत हिस्सा मताधिकार के योग्य पाया गया था। लेकिन बाबा साहब ने देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को मताधिकार देने का प्रस्ताव पारित कराया। संविधान सभा के अध्यक्ष और बाद में राष्ट्रपति बने डा. राजेंद्र प्रसाद से उन्हें इसके लिए संघर्ष करना पड़ा क्योंकि डा. राजेंद्र प्रसाद शिक्षित लोगों को ही वोट देने के अधिकार के हामी थे और अगर ऐसा होता तो देश की 90 प्रतिशत आबादी वोटर बनने से वंचित रह जाती। इसी तरह संविधान में प्रत्येक व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकारों की व्यवस्था कराने में तो उनकी देन है ही लेकिन इसके बाद सवाल यह था अगर मौलिक अधिकार कुचले जा रहे हों तो पीड़ित व्यक्ति मदद किससे मांगे। संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य कह रहे थे कि इसे राज्य की एजेंसियों के भरोसे छोड़ा जाना चाहिए पर बाबा साहब ने कहा कि राज्य की एजेंसियां इतनी भली हों तो मौलिक अधिकारों पर आघात की नौबत ही नही आयेगी। इस कारण उन्होंने राज्य की एजेंसियों की बजाय इस मामले में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को सीधे हस्तक्षेप का अधिकार दिलाया।
ईश्वरीय न्याय तक नही मान्य
इसके बावजूद कहा जा रहा है कि बाबा साहब का नाम इतिहास से गायब कर देना हमारा प्रण हैं। आरक्षण को लेकर शोषित समाज के लोगों को फेसबुक आदि पर घृणित गालियां तक दी जा रहीं हैं। इस मामले में गजब की हठधर्मिता है। 80 प्रतिशत से अधिक जिस आबादी का यह देश है उसे ही व्यवस्था में किनारे कर दिया गया था। यह प्राकृतिक न्याय के विपरीत व्यवस्था थी जिसके मददेनजर इसे महापाप कहा जाये तो गलत नही होगा। पर यह महापाप करते हुए समाज के कर्ता-धर्ताओं की आत्मा नही कांपी। यह खतरनाक भी था समाज के लिए भी और देश के लिए भी। जिनकों देश से प्रेम था उन्होंने सवर्ण समाज में जन्म लेते हुए भी खतरे को टालने के लिए घर के मालिकाने में सभी भाइयों को हिस्सेदार बनाने का समर्थन किया और आज भी कर रहे हैं लेकिन वे लोग जिन्हें देश पर अपना कब्जा होने का मुगालता है वे अंग्रेजों की तरह सोचते हैं। उन्हें लगता है कि देश की बहुसंख्यक जनता अगर सिर उठाकर जीने लगेगी तो उनका शासन छिन जायेगा। इसलिए उन्हें बहुत कोफ्त है देश के लोकतंत्र से और संविधान से जिसके कारण जाति के आधार पर वंचित किये गये तमाम लोग खुशहाली से जीने लगे हैं। उनके पास पहनने के कपड़े और खाने की रोटी तक नही थी, रहने के लिए टपकती झोपड़ी मात्र मयस्सर थी वे आज चैन और सम्मान की जिंदगी बसर कर रहे हैं यह बदलाव उन्हें बर्दास्त नही है। इसीलिए वे कहते हैं कि 2014 के पहले देश बर्बाद हो गया था। निश्चित बर्बाद हो गया था क्योंकि जिन्हें आपने जानवरों से भी बदतर हालातों में धकेल रखा था वे न केवल खाने कमाने लगे बल्कि कुर्सी पर बैठने में भी उनकी बराबरी करने लगे हैं। हिन्दू राष्ट्र की जब वे मांग करते हैं तो उनकी घृणा ऐसे लोकतंत्र और संविधान के लिए खुलकर सामने आ जाती है।
विदेशी कब्जेदारों को मात करने वाला रवैया
हमने पहले ही कहा कि कुछ लोग विदेशी कब्जेदारों की तरह पेश आने के अभ्यस्त हो चुके हैं। सोशल मीडिया पर वे जो विषवमन कर रहे हैं क्या उन्हें पता नही है कि सामाजिक एकता को तोड़कर देश को कमजोर करने में उनकी सहभागिता इन कृत्यों से प्रदर्शित हो रही है। लेकिन वे यह तो तब सोचें जब उन्हें लगे कि देश हमारा है। सरकार इनके दुस्साहस पर फिदा है। शोषित समाज की सरेंडर मनोदशा को सरकार अपना कांटा निकल जाने की तरह राहतकारी महसूस कर रही है। इसीलिए सरकार सोशल मीडिया के नियमन के अपने इरादे को फिलहाल ठंडे बस्ते में डालने में गनीमत मान चुकी है तांकि इसके मंचों पर शाब्दिक आतंकवाद जारी रह सके और बहुसंख्यक शोषित समाज का मनोबल इसके जरिये इतना तोड़ा जा सके कि लंबे समय तक प्रतिरोध का ख्याल तक उसके मन में न आये। अगर सरकार की सहमति न हो तो वर्ग वैमनस्य भड़काकर राष्ट्रीय सुरक्षा और अखण्डता को क्षति पहुंचाने के कड़े कानूनी प्रावधानों का शिकंजा सोशल मीडिया के कुछ ही छिछोरों पर कस दे तो यह सारा उत्पात शांत होते देर न लगे। पर सरकार तो उस खबर को भी संज्ञान में लेने को तैयार नही है जिसके मुताबिक मध्य प्रदेश के भिण्ड में जाटवों के गांवों के सामाजिक बहिष्कार का एलान किया जा रहा है जबकि अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीड़न अधिनियम के उल्लघंन की यह बहुत ही क्षुब्ध करने वाली मिसाल है।







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