देश में आजादी के बाद के एक दशक बाद की पीढ़ी के कई लोग मौजूद हैं जो उस समय के देश के हालातों की जीवंत गवाह हैं। जीवित तो ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने आजादी की पहली भोर को देखा था लेकिन उनकी संख्या बहुत कम रह गई है। बहुत ज्यादा हालात तो आजादी के दो-तीन दशक बाद तक नही बदल पाये थे। उस समय जिन नीतियों का बीजारोपण किया गया सही मामले में उसके लाभ वर्तमान शताब्दी के पदार्पण के बाद लोगों ने अनुभव किये। पुराने आम लोग जो आजादी के शुरूआती कालखण्ड के अनुभवों के भोक्ता हैं उनसे बात करिये तो पता चलेगा कि तब का जीवन कितना अभाव ग्रस्त, कितना रंगहीन था। आज की तुलना में जब वे उन दिनों पर गौर करते हैं तो कहते हैं कि जीवन में इतनी तरक्की और इतनी भव्यता की कल्पना तक उस समय वे नही कर सकते थे।
कितना रंगहीन था पुराना समय
देश की ज्यादातर आबादी के पास पहनने के कपड़े नही थे। घर में गेंहू की रोटी का बनना उत्सव का दिन माना जाता था। आम लोग भले ही वे किसी बिरादरी को हों पुस्तैनी तौर पर चले आ रहे बड़े आदमियों के बराबर पहुंचने का सपना तक नही देख पाते थे। आज स्थिति बदल गयी है। मध्य वर्गीय आबादी का बहुत बड़ा दायरा पसर चुका है जिसका मतलब है कि तमाम आबादी के पास बुनियादी जरूरतों के साधन ही सहज नही हो गये बल्कि वह उपभोक्ता सामान खरीदने की सामर्थ्य भी जुटा चुका है। विज्ञान के तमाम आविष्कारों से उसने अपने जीवन को पहले की तुलना में बहुत ज्यादा सुविधापूर्ण बना लिया है। जिन लोगों को पहले की जीवन और वर्तमान जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव है उनसे अगर कोई अतीत युग में लौटने को कहे तो वे सिहर उठेगें। उन लोगों को वर्तमान की खुशहाली की कीमत शायद बहुत अच्छी तरह मालूम है। लेकिन फिर भी क्या कारण है कि इस व्यवस्था को नकारने की मुहिम चलायी जा रही है तांकि पुरानी व्यवस्था को फिर से लागू किया जा सके।
संतों की सार्थक भूमिका की बाट जोह रहा समाज
आश्चर्य की बात यह है कि इसमें सरकार के जिम्मेदार लोग भी अपने आप को शामिल कर रहे हैं। क्या देश और समाज से राजनीतिक स्वार्थ ज्यादा बड़े हैं। जिम्मेदारों के आचरण को देखकर तो यही लगता है। ऐसा न होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिन्दू राष्ट्र के लिए यात्राएं निकालने वाले बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री के चरणों में बिछने के लिए छतरपुर में उनके आश्रम पर उन्हें महिमा मंडित करने के लिए क्यों पहुंचते। मेरा इरादा धीरेंद्र शास्त्री और बागेश्वर धाम के प्रति श्रद्धा रखने वाले भक्तों की आस्था को आहत करना नही है। धीरेंद्र शास्त्री का उल्लेख जिस मुददे को यहां उठाया जा रहा है उसकी बानगी के बतौर है और भी कई लोग हैं जो संत होकर भी राजनैतिक एजेंडे के लिए अपने को इस्तेमाल होने दे रहे हैं। वर्तमान सरकार के आने के पहले देश में लोगों के चरित्र की गिरावट को लेकर समझदार लोगों को बहुत चिंता में डूबा देखा जाता था। तटस्थ समाज चिंतकों में यह सोच व्याप्त थी कि सरकार कोई भी आये-जाये लेकिन देश की छवि और काम तब तक ठीक नही हो सकता जब तक कि समाज के नैतिक पुनरूत्थान का काम नही किया जायेगा। इस काम के लिए लोग संतों की ओर आशा भरी नजरों से देखते थे। वास्तविक धर्म ही लोगों को सदाचारी बनाने का सबसे कारगर उपकरण है। कहा गया है कि संतन को कहा सीकरी से काम। संतों ने सत्ता या किसी भी ग्लैमर से दूर रहकर अपनी सादा जिंदगी से भगवद उपदेशों को प्रमाणिक बनाया जिससे लोगों के अंदर ईश्वर के लिए सचमुच का समर्पण पैदा हुआ। इसका प्रकटन उनके द्वारा लोभ, लालच और प्रभुता, अन्याय से विराग के रूप में उनके व्यवहार में होता था। आज भी जो संत इस रास्ते पर चल रहे हैं वे सद प्रेरणा का प्रसार कर पा रहे हैं लेकिन इसके लिए संतों की जितनी बड़ी संख्या चाहिए उसके अनुपात में अभी ऐसे महात्माओं की तादाद बहुत न्यून है। चर्चाओं में रहने वाले ग्लैमर जीवी संत अपना भला तो भले ही बहुत कर पा रहे हों लेकिन समाज का भला नही कर पा रहे हैं।
वर्तमान व्यवस्था से टूटी मठाधीशी का किसको साल रहा दर्द
वर्तमान व्यवस्था के प्रति अनास्था पैदा करने वाले लोग कौन हैं जबकि यह व्यवस्था ही है जिसने मठाधीशी तोड़ कर हर जाति धर्म के पुरुषार्थी लोगों को शिखर तक पहुंचने का द्वारा खोला है। सोशल मीडिया पर एक वर्ग है जो पुराने राजाओं की संतानों पर निसार होकर अपने को धन्य बनाये हुए है। वह पूंछना नही चाहता कि देश और समाज के लिए विरासत की कमाई खा रहे इन लोगों का क्या योगदान है। राजशाही के प्रति उसकी आसक्ति एक नमूना है जिससे पता चलता है कि अतीत मोह की बीमारी को किस कदर फैलाया जा चुका है। अंग्रेजों के तलुवे चाटकर राज भोग का सुख पाने वाले इन तथा कथित श्रीमंतों की लादी को जब इंदिरा गांधी ने लोगों के सिर से उतार कर फेका तो लोगों ने इसलिए उन्हें हाथों-हाथ लिया कि इससे आम क्षमतावान लोगों की रुकावट हटी। उत्तर प्रदेश में क्षत्रिय समाज के नाम से मुख्यमंत्री पद को अपनी बपौती घोषित करने वाले राजाओं के हाथ से सत्ता निकलकर वीर बहादुर सिंह, राजनाथ सिंह और आज योगी आदित्यनाथ जैसे आम क्षत्रियों के लिए वरेण्य हुई जो प्रजा पालन की नई राहों में मील के पत्थर गाड़ सके। क्या लोग चाहते हैं कि अतीत राग में वे फिर राजगददी को उन लोगों का बंधक बना दें जो बाहरी आक्रांताओं को ललकारने का साहस दिखाने की बजाय उनके चरणों में लोटने में गनीमत समझे। लोकतंत्र की इस क्रांति की महिमा को समझें यह केवल एक जाति या एक क्षेत्र का किस्सा नही है। मठाधीशी टूटी इसीलिए देश को वंचित वर्ग से नरेंद्र मोदी जैसा असाधारण नेता प्रधानमंत्री पद के लिए मिला। देश के शीर्ष उद्योगपतियों में टाटा और बिड़ला के ही नाम चलते रहते। सबके लिए दरवाजे खुले तभी तो अडाणी आया जिसने दुनियां के सबसे बड़े रईसों की सूची में एक बार भारत का नाम दूसरे नंबर पर दर्ज करा दिया था और अभी भी उसकी संभावनाएं बरकरार हैं। वह नंबर दो क्या दुनियां का नंबर एक का रईस बनकर दिखा दे तो भी आश्चर्य न होगा। आम लोगों के लिए यह उड़ान केवल कुछ अपवादों तक सीमित नही है। गांव कस्बे में बैठे लोग भी देख सकते हैं कि एक ही पीढ़ी में कितने लोग आम परिवार से निकलकर अपने शहर और गांव में सरताज बन गये हैं।
आत्मा के शुद्धिकरण के धर्म की बहुत दरकार
तो ऐसी जी जलन क्यों। क्यों माना जा रहा है कि इस व्यवस्था में दलित पिछड़े इतने आगे क्यों निकल रहे हैं। यदि धर्म आत्मा की शुद्धिकरण का माध्यम है तो भारतीय समाज की आत्मा के शुद्धिकरण की बहुत आवश्यकता है। यदि आत्मा शुद्ध हो जाये तो समाज के प्रभु वर्ग की अंतरात्मा खुद कहेगी कि देश में हुकूमत चलाने का अधिकार मुटठी भर वर्ग के हाथ में कैद रखना पाप है। इससे किसी देश और समाज का कल्याण नही हो सकता। समाज का प्रभु वर्ग स्वयं यह पहल करता कि बहुसंख्यक आबादी जो गलत धारणाओं के कारण पीछे कर दी गयी है उसे व्यवस्था में अधिकतम भागीदारी देकर सुरक्षित और टिकाऊ समाज को बनाया जाये। सामाजिक सत्ता पर अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानना परदेशी मानसिकता है। जब कोई देश दूसरे देश पर कब्जा करता है तो शासक देश के अधिकारी इस मानसिकता से ग्रसित रहते हैं लेकिन जहां सब अपने हैं वहां तो जलन नही स्नेह और दुलार होना चाहिए। किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति हिकारत की भावना सभ्यता पर भी प्रश्न चिन्ह है। सुसंस्कृत होने का मतलब है कि उन लोगों के प्रति कुछ करने को प्राथमिक दायित्व समझना जो पिछड़े हैं, तिरस्कृत हैं और नारकीय स्थितियों को झेल रहे हैं। उनकी स्थितियों में मजा लेना परपीड़क आनंद के रूप में परिभाषित किया जाता है और ऐसे लोग अच्छे लोगों में शुमार नही किये जाते।
कुंठित सोच वालों का है यह द्रोह
हिन्दू राष्ट्र तो एक बहाना है। कुल मिलाकर सबको खुशहाल होने का अवसर देने वाली मौजूदा व्यवस्था, उसके संविधान और परंपराओं के लिए निषेध का भाव कुंठित सोच का परिणाम है। इस व्यवस्था से द्रोह के लिए उकसाने वाले लोग न केवल दलित और पिछड़ों के सिर पर चढ़ जाने से परेशान हैं बल्कि जाने-अनजाने में वे सवर्ण समाज के आम परिवार के क्षमतावान लोगों का भी अहित कर रहे हैं जिन्होंने नई व्यवस्था में बहुत कुछ हासिल किया है। इसलिए किसी मृग मरीचिका में भटकने की बजाय वर्तमान संविधान और व्यवस्थाओं के ऐसे उपयोग में अपनी ऊर्जा लगाने को लोगों को समर्पित होना होगा जिससे अधिकतम लोगों को अपनी उम्मीदें पूरी करने का संबल मिल सके।
—







Leave a comment