बुर्जुआजी लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका इंजन की तरह है बशर्ते उसका चरित्र जन पक्षधरता का हो। हालांकि बुर्जुआजी में वर्ग नही टूटते, उनका अस्तित्व बरकरार रहता है जबकि वर्गों के बीच द्वंद्वात्मकता अनिवार्य है। जाहिर है कि इस द्वंद्वात्मकता के पीछे शोषण का चक्र होता है जिसके अंत की बात कथित क्रांतिकारी शक्तियां करती हैं लेकिन अनुभवों से यह सिद्ध हो चुका है कि वर्ग विहीन समाज यूटोपिया भर है जिसके छलावे में जनता तानाशाही के दमन चक्र में पिसने को मजबूर होती रही है। इसलिए वर्तमान युग यूटोपिया से उबर कर यथार्थ में जीने का है जिसने बुर्जुआ लोकतंत्र के लिए सहमति और स्वीकृति तैयार की है। आदर्श बुर्जुआ लोकतंत्र में शोषण के जरिये अतिरिक्त कमाई कर समृद्धि और ऐश्वर्य के टापू बनाने वाला वर्ग तो फलेगा-फूलेगा लेकिन शेष जनता के लिए मौलिक अधिकारों की गारंटी भी रहेगी। इस संतुलन को बनाये रखने में मीडिया अपनी उपयोगिता सिद्ध करे तभी उसकी सार्थकता है। लेकिन देश में मीडिया क्या अपने इस दायित्व का निर्वाह कर पा रही है।
व्यवसायीकरण ने किया बेड़ा गर्क
निश्चित रूप से कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है जिससे लोग देश की मीडिया से असंतुष्ट होते जा रहे हैं। व्यवसायीकरण मीडिया के विकास की जरूरत थी- मंहगे तकनीकी संसाधन जुटाने के लिए और सूचनाओं के गुणवत्ता पूर्ण इनपुट का जरिया बनाने के लिए। लेकिन भारत में व्यवसायीकरण ने मीडिया में जबर्दस्त अनर्थ घटित कर डाला है। नये स्वरूप में व्यवसाय प्राथमिक हो गया है और मीडिया के मूल उददेश्य दोयम। इसकी परिणति ही मीडिया की विश्वसनीयता में गिरावट की मुख्य वजह सिद्ध हो रही है। बहुत स्पष्टता से कहा जाये तो व्यवसायीकरण की लहर ने मीडिया को यथास्थितिवादी शक्तियों का सबसे मजबूत औजार बना दिया है। उसका इस्तेमाल जनता की परिवर्तन की आकांक्षाओं को भ्रमित करने के लिए हो रहा है जो अत्यंत निराशापूर्ण स्थिति है। यही कारण है कि देश में लोकतंत्र का परिणाम आरंभिक काल खंड में परिवर्तन की दृष्टि से बेहद सकारात्मक था लेकिन आज स्थिति बेहद निराशापूर्ण है। मीडिया के माध्यम से परिवर्तन को विफल करने वाली प्रक्रियायें बल प्राप्त कर रही हैं। शोषण की पक्षधरता के इस रुझान को बेनकाब कौन करे जब बहुत चालाकी के साथ प्रतिरोध के स्पेस पर भी यथास्थितिवादी तबकों ने ही कब्जा जमा लिया है। पक्ष भी उन्हीं तत्वों का है और विपक्ष में भी उन्हीं की बिरादरी भेष बदल कर खड़ी है। द्वंद्वात्मकता को नूरा कुश्ती में बदल कर रख दिया गया है।
व्यक्तिवाद में उलझी मीडिया
व्यवसायिक मीडिया विचारधाराओं को क्षतिग्रस्त कर हर राजनैतिक पार्टी में व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने में लगी हुई है। जनता दल के समय क्या हुआ। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद देश भर में जो तूफान खड़ा हो गया था उससे बहुत कुछ बदल जाने वाला था। लेकिन विचारधारा को तार्किक परिणति पर पहुंचाने की निष्ठा दिखाने की बजाय जनता पार्टी के नेताओं के एक वर्ग ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को प्राथमिकता दी। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की राजनीति की प्रतिगामिता को इसे समझने की दृष्टि से सबसे ऊपर चिन्हित किया जा सकता है। बिहार को देखें तो वहां भी लालू ने व्यक्तिगत निरंकुशता को सर्वोपरि मानकर कार्य किया। इस तरह परिवर्तनवादी राजनीति में अपने बीच से ही भस्मासुर तैयार हो गये। जिन्होंने सही मायने में संघर्ष करने वाले नेताओं के तपबल को स्वाहा कर डाला।
मंडल क्रांति में बेनकाब हुई मीडिया की जनविरोधी चेतना
मंडल की राजनीति के अंदर लाक्षागृह बनाने में मीडिया ने जो भूमिका अदा की वह किसी से छुपी नही है। इसमें दोनों चीजें थी- भारतीय मीडिया में संतुलन नही है। इसके कारण मीडिया में उन लोगों का बोलबाला है जिनके सड़ीगली भेदभाव की व्यवस्था में निहित स्वार्थ है इसलिए अपनी वर्ग चेतना के कारण वे परिवर्तन की राजनीति के प्रति द्रोह से स्वयं ही भरे हुए थे। दूसरे यह भी तथ्यात्मक रूप से उजागर हुआ कि परिवर्तन की राजनीति में व्यक्ति पूजा के अनर्थकारी उभार के लिए उसने भरपूर पैसा भी लिया था। इसका प्रमाण मुलायम सिंह द्वारा विवेकाधीन कोष से पत्रकारों पर सरकारी पैसा लुटाने के रूप में खुलकर तभी सामने आ गया था। इसी संदर्भ में वीपी सिंह बनाम चंद्रशेखर के विमर्श में मीडिया की भूमिका भी विचारणीय है। अगर मीडिया ने जन सरोकारों के लिए प्रतिबद्धता दिखायी होती तो उसे वीपी सिंह की न्यायपूर्ण लाइन को बल देना चाहिए था। भले ही उसे यह लगता कि वीपी सिंह ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की है लेकिन परिवर्तन की राजनीति को तीव्र अग्रसरता प्रदान करने के निमित्त बनकर उन्होंने जो लाइन खीची थी न्याय का तकाजा था कि मीडिया का उसे समर्थन मिलता पर मीडिया सामंतवादी लाइन के पोषक चंद्रशेखर के साथ खड़ी दिखायी दी जिनसे पत्रकार व्यक्तिगत रूप से समय-समय पर उपकृत होते रहते थे।
ग्रास रूट लेवल तक मीडिया के जहर का असर
शिखर की राजनीति में मीडिया की मुकरे गवाह की भूमिका के तमाम उदाहरण गिनाये जा सकते हैं लेकिन यह रवैया केवल शिखर तक सीमित नही है। मीडिया में इस संक्रामक रोग का प्रसार ग्रास रूट लेविल तक है। राजनीति के परिवर्तनकारी खेमों में मीडिया के इस शरारतपूर्ण दखल को बहुत बारीक निगाह रखने वाले अच्छी तरह देख पा रहे हैं। मीडियाकर्मी कैरियरिज्म से पीड़ित कार्यकर्ताओं को ऐसे दलों में प्रोत्साहित करते हैं जिनके लिए विचारधारा नही व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ही सर्वोपरि ध्येय है। पार्टी का हित ध्यान में रखने की बजाय मीडिया के सहयोग से अपना कद बढ़ाने वाले इन तत्वों के कारण दलों में अस्थिरता बढ़ी है। यही तत्व आगे हो गये है जिसने विचारधारा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए हतोत्साहन की स्थितियां बना दी हैं। नतीजा यह हो रहा है कि मोह भंग से पीड़ित होकर ऐसे कार्यकर्ता घर बैठ चुके हैं। खासतौर से युवाओं की सोच पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। राजनीति के नाम पर युवा धार्मिक आडंबरों की राजनीति के कहार बनकर रह जा रहे हैं। परिवर्तन की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है।
याद आती है कांशीराम की मीडिया नीति
ऐसे में कांशीराम युग की बसपा राजनीति का स्मरण हो उठता है। कांशीराम ने मीडिया को लेकर जो नीति अपनायी थी उसमें उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि चूंकि अखबार मनुवादी प्रचार के टूल हैं इसलिए हम लोग इन पर भरोसा करेगें तो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य हो जायेगा। कांशीराम साफ कह देते थे कि उनके कार्यकर्ता इन अखबारों को न पढ़े। पत्रकारों से भी कह देते थे कि आप भी हम लोगों से कोई उम्मीद न रखें। हमें आपके अखबारों में कोई न्यूज नही छपानी। इसका असर था कि वर्गीय सोच के कारण बसपा में भ्रम पैदा करके बिखराव उत्पन्न करने के पत्रकारों के मंसूबे धराशायी हो जाते थे। प्रचार लोलुपता ने आज परिवर्तनवादी दलों से जुड़े लोगों को एडस का मरीज बना दिया है। उनकी हिम्मत नही है कि मीडिया से इस तरह से दो टूक बात कर सकें। उनके समर्पणकारी रवैये से वैकल्पिक मीडिया के विकास की गुंजाइश भी पैदा नही हो रही। वे लोग अपनी व्यक्तिगत प्रचार लोलुपता की संतुष्टि तक सीमित हो चुके हैं जबकि मीडिया के माध्यम से साम्प्रदायिक और यथास्थितिवादी राजनीति के तेजी से फलते-फूलते विमर्श को लेकर चिन्तित होने की कोई जरूरत नही समझ रहे। यह स्थिति लोकतंत्र के खोखलेपन को उजागर कर रही है अन्यथा बहलाने के लिए ही सही लेकिन सत्ता को वोट की खातिर आम जनता की स्थिति में सुधार के लिए कुछ न कुछ करते रहने की जरूरत महसूस होती रहती है। पर भावनात्मक राजनीति की तरंगों ने जनता को बेखुदी की स्थिति में पहुंचा दिया है जिससे उसके हितों की पूर्ण अनदेखी करने का दुस्साहस सत्ता में देखा जाने लगा है। जाहिर है कि ऐसे में यथास्थितिवाद का घटाटोप और गहरायेगा। परिवर्तन की राजनीति के सूर्य के उदय के लिए वंचित शोषित वर्ग को लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
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