ऋषिकांत शुक्ला तो है नमूना भर, पुलिस में तो आवा का आवा खराब


दरोगा से वाया आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की सीढ़िया चढ़कर उपाधीक्षक की पायदान पर जा चढ़े ऋषिकांत शुक्ला के निलंबन का मामला मीडिया में छाया हुआ है। इसे सरकार की भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टोलरेंस कार्रवाई की श्रखंला की कड़ी बताया जा रहा है। यह दूसरी बात है कि जानने वालों को पता है कि ऋषिकांत शुक्ला का जाल में फंसना महज एक संयोग है जिसके लिए सरकार अपनी पीठ थपथपाते हुए विदूषक जैसी हरकते नजर आ रही है। हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार पर रोक का मामला सरकार की प्राथमिकताओं से बहुत दूर है।
अभी भी हावी सपा की रीति-नीति
सीएम योगी आदित्यनाथ अपने पूर्ववर्ती सपा शासन के कटु आलोचक हैं। वे ढूढ़-ढूढ़ कर ऐसे मामले सामने लाते है जिनके हवाले से यह साबित किया जा सके कि जब भी सपा के नेता शासन में रहे उन्होंने पुलिस विभाग में अपराधीकरण और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के रिकार्ड तोड़े हैं। वे अपनी सरकार के पराक्रम के लिए सपा शासन की रीति-नीति और उसके माध्यम से पोषित अवांछनीय तत्वों के उन्मूलन की मिसालों को गिनाते हैं तो उन्हें लोगों की भरपूर शाबाशी मिलती है। इसलिए यह नही माना जा सकता कि पुलिस में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन के नाम पर सपा शासन में क्या गुल खिलाये गये थे। उस गंदगी से अपना दामन बचाने के लिए ही उन्होंने इस व्यवस्था को अपनी सरकार में विराम दे डालने का काम किया है। लेकिन दिक्कत यह है कि जिन पुलिस अफसरों को योगी ने अपने दरबार का नवरत्न बना रखा है आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की व्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का रहा है। योगी जी इस बात से बखूबी परिचित होगें कि सपा शासन में पुलिस विभाग में आउट ऑफ टर्न प्रमोशन किस तरह बेचे जाते थे। यह पैसा सरकार में बैठे हुए लोगों को ही नही तत्कालीन डीजीपी और उनके नीचे के कुछ अधिकारियों को भी पहुंचता था। इस नाते होना तो यह चाहिए था कि आउट ऑफ टर्न प्रमोटेड पुलिस वालों के लिए महत्वपूर्ण पदों पर पोस्टिंग रोक दी जाती। लेकिन योगी शासन ने भी खरीद कर प्रमोशन पाने वाले पुलिस अफसरों को ही फील्ड में संवेदनशील पदों पर तैनाती दी। जाहिर है कि सपा शासन में जो उच्चाधिकारी इस व्यवस्था के लिए दलाल की भूमिका अदा कर रहे थे सीएम योगी ने उनको ही अपना आंख-कान मान लिया। ऋषिकांत शुक्ला के नाम में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट का टैग जोड़ दिया गया था क्योंकि आउट ऑफ टर्न का हकदार बनाने के लिए यह टैग बड़ी मदद करता था। लगभग सभी आउट ऑफ टर्न प्रमोटेड डिप्टी एसपीज के साथ यह टैग देखने को मिल जायेगा। इस टैग के आधार पर योगी सरकार ने भी ऐसे अफसरों को पूरी दरियादिली से प्रोत्साहित किया। इसीलिए वे वर्तमान में साइड पोस्टिंग की बजाय मैनपुरी जिले के मलाईदार भोगांव सर्किल में सीओ बने हुए थे।
सिलसिला या संयोग
हुआ यह कि कानपुर में कथित रूप से जमीन हथियाने, झूठी एफआईआर करवाकर मालदार लोगों को ब्लेकमेल करने व ऐसे ही अन्य तरीकों से जबर्दस्त उगाही करने वाले सिंडीकेट संचालक अखिलेश दुबे की चपेट में भाजपा का एक नेता आ गया। उसने ऊपर रोना रोया तो अखिलेश दुबे पर शिकंजा कस गया। अखिलेश दुबे अब जेल में है। उसके सिंडीकेट में तमाम पुलिस वाले भी शामिल रहे हैं। इनके चेहरे भी बेनकाब होने लगे। इसी में ऋषिकांत शुक्ला का नाम भी आ गया। विशेष जांच दल ने जब ऋषिकांत शुक्ला के बारे में पड़ताल की तो पता चला कि वह दर्जनों करोड़ की संपत्ति नौकरी में रहते हुए बना चुका है। प्रारंभिक अनुमान में एसआईटी ने उसकी 100 करोड़ रुपये की संपत्ति का पता लगाया है। हालांकि अभी उसके पास इससे कई गुना और संपत्ति है। ऋषिकांत शुक्ला पुलिस में अकेला नही है जिसने इतनी अकूत संपत्ति बना रखी है। लगातार थानों की कमान संभालने वाले अधिकांश पुलिस अफसर हैं जो संपत्ति के मामले में बड़े-बड़े उद्योगपतियों के कान काटते हैं। सरकार जीरो टोलरेंस की बात करती है लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में धरातल पर ऐसा कोई अभियान कहीं नही चल रहा। वरना सैकड़ों की संख्या में अकेले पुलिस विभाग में न जाने कितनी बड़ी मछलियां पकड़ में आ गयी होतीं।
श्रीगणेश ही बिगड़ा
योगी जी जब मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने सभी आईजी, डीआईजी और जिला पुलिस प्रमुखों को आदेश दिया था कि मंहगी गाड़ियों से चलने और विभिन्न स्थानों पर आलीशान बंगले बनवा लेने वाले सिपाहियों, दरोगाओं और इंस्पैक्टरों को चिन्हित किया जाये। पुलिस की काली भेड़ों की विभाग में छटनी करने और भ्रष्टाचार से बनाई गयी इनकी संपत्ति को जब्त करने के निर्देश दिये गये थे। लेकिन कार्रवाई का अंजाम क्या हुआ। पूरा अभियान ढाक के तीन पात साबित होकर रह गया। जीरो टोलरेंस की इतनी डीगें हांकने वाले खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपने अभियान की विफलता पर कोई रंज नही हुआ। योगी जी ने अपने कार्यकाल की शुरूआत में सुलखान सिंह को डीजीपी पद के लिए चुना था जिनकी ईमानदारी 24 कैरेट की मानी जाती थी। उनके रिटायरमेंट के बाद योगी ने उनकी अध्यक्षता में पुलिस सुधार आयोग के गठन का आदेश जारी कर दिया। उम्मीद थी कि इससे पुलिस व्यवस्था को ढांचागत तौर पर साफ सुथरा बनाने में महत्वपूर्ण प्रगति होगी पर कुछ ही दिनों में सीएम योगी की प्राथमिकताएं बदल गयीं। पुलिस सुधार आयोग को उन्होंने श्रीगणेश के पहले ही दफन कर देने का इंतजाम कर दिया। जाहिर है कि योगी जी काकस के चंगुल में फंस गये। उस काकस के चंगुल में जो पुलिस सुधार आयोग के काम को अपने गले का फंदा मान रहा था।
थाने बेचने वाले कप्तानों को क्यों मिला अभयदान
इस बीच आईपीएस अधिकारी वैभव कृष्ण विभाग में व्हिसिल ब्लोरिंग के लिए आ गये। उन्होंने बहुत सटीक ढंग से पांच जिलों के पुलिस कप्तानों द्वारा थानों की खुली नीलामी का भंडाफोड़ किया। इसमें कोई कार्रवाई होती इसके पहले सर्वप्रथम उन्हीं को निलंबन झेलकर शहीद हो जाना पड़ा। जिन पांच जिला पुलिस प्रमुखों पर उन्होनें उंगली उठाई थी उनमें अजय पाल शर्मा, सुधीर कुमार सिंह, राजीव नारायण मिश्रा, गणेश साहा और हिमांशु कुमार के नाम थे। इनके खिलाफ जांच शुरू हुई। 70 प्रतिशत आरोप सही पाये गये। कुछ के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक कानून के मुकदमें भी कायम कराये गये। लेकिन आगे चलकर यह मामला टांय-टांय फिस्स हो गया। पांचों की नौकरी सही सलामत है। उन्हें प्रमोशन भी मिल चुके हैं हालांकि खुद वैभव कृष्ण का भी निलंबन खत्म हो गया था। इस बीच वे स्वयं भी डीआईजी बन चुके हैं। यह एक बानगी थी जिससे थानाध्यक्षों की नियुक्ति में होने वाले भ्रष्टाचार की परतें खुली थीं जो केवल पांच जिला प्रमुखों तक सीमित नही थी। होना यह चाहिए था कि इसके बाद प्रदेश के सभी जिलों में गोपनीय ढंग से छानबीन कराई जाती कि कौन कप्तान थाना देने की कितनी कीमत ले रहा है पर ऐसा नही हुआ। हालांकि वैभव कृष्ण के पोल खोल कदम के बाद कुछ दिनों के लिए जिलों के पुलिस कप्तान सतर्क हो गये थे। कुछ दरोगा और इंस्पैक्टर पेशेवर बन चुके हैं जिनके पास हमेशा थाना रहता है। नतीजतन लंबी सूची उन दरोगाओं और इंस्पैक्टरों की हर जिले में है जिनकी नौकरी कई वर्ष की हो चुकी है लेकिन थानाध्यक्षी के लिए उनका नंबर अभी तक नही आ पाया। आये भी कैसे जब कुछ ही लोग स्थाई रूप से थानों में जमे रहने का हुनर रखते हैं। लेकिन जब पुलिस कप्तानों के लिए सहमने की स्थिति पैदा हुई तो अभिशप्त दरोगाओं और इंस्पैक्टरों को भी कुछ समय के लिए थाने मिलने लगे थे। अब फिर वही स्थिति बन गयी है। चूंकि सारे पुलिस कप्तानों को पता है कि भ्रष्टाचार के आधार पर कहीं कोई गाज नही गिरने वाली।
खाकी के भ्रष्टाचार की संवेदनशीलता
पुलिस विभाग का भ्रष्टाचार सत्ता के लिए बेहद खतरनाक होता है जिसे योगी सरकार नही समझ पा रही है। पुलिस विभाग लोगों के दमन और उत्पीड़न से पैसा कमाता है जिससे जन असंतोष बढ़ता है। आज उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात की है कि पुलिस विभाग का भ्रष्टाचार राज्य में चरम सीमा पार कर गया है। पुलिस का रेट पहले से चार गुना ज्यादा हो चुका है। आंकड़े बताते हैं कि यूपी में पुलिस भ्रष्टाचार के केस राष्ट्रीय औसत से 20 प्रतिशत ज्यादा हैं। इसके बावजूद भ्रष्टाचार पर प्रहार के लिए संस्थागत प्रयास में योगी सरकार कोई रुचि नही ले रही। मायावती के समय से मध्य प्रदेश की तरह यहां लोकपाल संस्था को मजबूत करने का प्रस्ताव विचाराधीन है। इसके लिए कहा गया है कि सतर्कता, भ्रष्टाचार निवारण व आर्थिक अपराध अनुसंधान संगठन को लोकपाल से जोड़ दिया जाये और इसके बाद लोकपाल को पर्याप्त मानव संसाधन देकर भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने के लिए अभियान चलाने की जिम्मेदारी सौंपी जाये लेकिन इन सुझावों को लेकर मुख्यमंत्री कोई उत्साह नही दिखा रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जब उन्होंने सुलखान सिंह को डीजीपी बनाया था तब अधिकारियों की तैनाती में ईमानदारी को उन्होंने सबसे ऊपर रखा था लेकिन अब गिरोहबाजी को ही वह सब कुछ मानकर चल रहे हैं। भरोसेमंद अफसरों के नाम पर उन्होंने एक गिरोह बना रखा है और सारे फैसले इसी गिरोह की राय से किये जाते हैं भले ही गिरोह में शामिल अधिकारियों के करम कितने ही स्याह क्यों न हों। दूसरी ओर ईमानदार अधिकारी जलावतन जैसी सजा भुगत रहे हैं जिन्होंने उनके गिरोह में स्थान नही बना पाया है। योगी आदित्यनाथ का कद राष्ट्रीय स्तर तक राजनीति में बहुत मजबूती से स्थापित हो चुका है ऐसे में उनमें कोई असुरक्षा भाव नही होना चाहिए। उन्हें चाहिए कि गृह विभाग की महत्ता और और व्यस्तता के मददेनजर किसी स्मार्ट जूनियर नेता को गृह राज्यमंत्री के बतौर अपने मंत्रिमंडल में शामिल करे तांकि पुलिस की सही तरीके से निगरानी हो सके। पर शायद इस सुझाव को हजम करना उनके लिए संभव नही है।

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