डा. रामशंकर द्विवेदी नही रहे। जिले के विद्व समाज की गौरव पताका का अवसान हो गया। उन्हें अनुवाद के लिए साहित्य अकादमी सम्मान मिल चुका था। जीवन के अंतिम समय तक वे लेखन में जुटे रहे। महाश्वेता देवी के चर्चित उपन्यास, हजार चौरासी की मां सहित बांगला की अनेक रचनाओं के हिंदी में अनुवाद से उन्होंने साहित्य जगत में जो यश कमाया वह अनुपम है। उनकी दर्जनों पुस्तकें देश के जाने-माने प्रकाशनों से छपीं जिनका साहित्य जगत में जबर्दस्त स्वागत हुआ। डा. द्विवेदी साहित्य के अलावा पत्रकारिता से भी जुड़े रहे।
डीवी कालेज में हिंदी के विभागध्यक्ष रह चुके डा. रामशंकर द्विवेदी को अध्यवसाय और लेखन से बहुत प्रेम था। इस मामले में उनका मिजाज साहसिक रहा। इसी मिजाज ने उनको पत्रकारिता से भी जोड़ा। अपने जमाने के कुख्यात डकैत सरगना घनश्याम उर्फ घंसा बाबा के साथ बीहड़ों में उनकी मुलाकात अपने समय की जोखिम पूर्ण साहसिक पत्रकारिता का एक जबर्दस्त नमूना कही जा सकती है। यह भेंट अपने समय की अत्यंत प्रतिष्ठित रविवार साप्ताहिक हिंदी पत्रिका में प्रकाशित हुई तो तहलका मच गया था। इससे प्रभावित होकर दैनिक आज के प्रबंधन ने उनसे संपर्क किया। बाद में दैनिक आज के जिला संवाददाता के बतौर उन्होंने कई ऐसी एक्सक्लूसिव खबरें लिखी जो प्रतिमान के तौर पर पत्रकारिता के अकादमिक क्षेत्र में मान्य की गयी।
दैनिक आज की उनकी पत्रकारिता के दौरान ही मैं (केपी सिंह) उनके संपर्क में आया। पहले दिन से ही उन्होंने मुझे पितृवत संरक्षण प्रदान किया। मैने उनसे बहुत कुछ सीखा। दैनिक अग्निचरण के बाद जब मैने दैनिक लोक सारथी का कार्यभार संभाला तो उनसे आग्रह किया कि वे इस अखबार के लिए रोजाना एक स्तंभ लिखें। उन जैसे स्थापित लेखक और विद्वान के लिए स्थानीय समाचार पत्र में लिखना हेठी की बात हो सकती थी पर स्नेह और आत्मीयता के कारण उन्होंने मेरा आग्रह नही टाला। दस्तक के नाम से जब उनके आलेखों का संग्रह सामने आया तो मुझे विशेष प्रतिष्ठा मिली। इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने मेरी सराहना में बहुत कुछ लिखा जो मेरे लिए सनद बन गया। उन्होंने मुझे विवेकानंद के प्रवचनों की पुस्तक माला भेंट की थी जिसे मैं आजकल पढ़ रहा हूं।
डा. रामशंकर द्विवेदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े रहे। उनके विचारों पर इसका प्रभाव था। कई लोग कहते थे कि डा. रामशंकर द्विवेदी से तुम्हारी कैसे निभ जाती है। निश्चित रूप से यह एक प्रश्न था जिसे किया जाना चाहिए था। मैने लोगों को बताया कि गुरूजी ने कभी इतर विचारों के कारण मुझे नकारने की कोशिश नही की। उनसे संवाद करके मुझे जो बौद्धिक ऊर्जा मिली वह मेरे लिए बहुत बड़ी थाती है। उनकी बहुत इच्छा थी कि मैं अपने आलेखों को सहेजू तांकि मेरी भी पुस्तकें आ सकें। इसके लिए उन्होंने प्रकाशकों से भी बात कर रखी थी। लेकिन अपने लापरवाह स्वभाव के कारण मैने उनके इस विचार को मूर्त रूप में नही आने दिया। निश्चित रूप से मैं इसके लिए उनका दोषी रहूंगा।
मुझे आशंका नही थी कि जल्द ही उनसे विछोह होने वाला है। वे फेसबुक पर मेरी पोस्ट को लेकर सम्मति देते रहते थे जिससे मुझे बहुत प्रेरणा और संबल मिलता था। लेकिन इस बीच में मैं न तो मिलने के लिए उनके पास जा पाया और न उनसे मोबाइल पर लंबे समय से बात हुई थी। आज जब उनके निधन का समाचार मिला तो मैं स्तब्ध हूं। उनके कारण जिले की गौरवमयी पहचान सारे देश के साहित्य जगत में थी। जिले के बौद्धिक जगत के लिए उनका निधन भीषण आघात है। मैं उनके अचानक चले जाने से स्तब्ध हूं। उनके श्रीचरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं।







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