लोगों के बीच विश्वसनीयता मीडिया के लिए प्राण वायु की तरह का महत्व रखती है। लेकिन अपने अस्तित्व को लेकर आत्मघात का इरादा बनाये बैठा व्यक्ति भी इतना बेपरवाह नही होता जितना देश की मीडिया नजर आ रही है। बुधवार के अखबारों में केंद्रीय मंत्री लल्लन सिंह का वायरल हो रहे वीडियो की खबर नदारत है जबकि लोकतंत्र के चीरहरण की इससे बड़ी कोई खबर हो नही सकती थी। चुनाव आयोग तक को इस खबर को संज्ञान में लेने का अभिनय करना पड़ा। हालांकि ठोस रूप में चुनाव आयोग सत्ता पक्ष की कितनी भी बड़ी हिमाकत के बावजूद कुछ कर सकता है यह अपेक्षा करना सरासर मूर्खता है।
बिहार विधानसभा के चुनावी संग्राम के बीच मोकामा में बाहुबली अनंत सिंह अपनी जीत के लिए खुद उतना कटिबद्ध नही है जितना कि उनके लिए लल्लन सिंह ने ठान रखा है। लल्लन सिंह अनंत सिंह को जीत का प्रमाण पत्र दिलाने के लिए कितना भी बड़ा पाप करने को तैयार हैं। हाल के लोक सभा चुनाव में लल्लन सिंह की जीत के पीछे अनंत सिंह का कितना हाथ था यह सभी जानते हैं। लल्लन सिंह इस व्यवहार को पूड़ी पर मीठा रखकर वापस करने में कोई कसर नही छोड़ना चाहते। अनंत सिंह तो जनसुराज पार्टी के उम्मीदवार पीयूष प्रियदर्शी के समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या के बाद इच्छित कारावास में जा घुसे हैं। जिससे उनके चुनाव की पूरी कमान लल्लन सिंह को संभालनी पड़ रही है।
लल्लन सिंह ने मोकामा पहुंचकर जब यह बयान दिया था कि यहां जदयू के हर कार्यकर्ता को अनंत सिंह बन जाना चाहिए तभी वे आलोचकों के निशाने पर आ गये थे। अनंत सिंह बन जाने के पीछे सीधे तौर पर उनका आवाहन अपने समर्थकों के लिए यह पढ़ा जा रहा था कि वे चुनाव जीतने के लिए हथियार उठाकर तत्पर हो जायें। यह चुनावी मुकाबले को खून-खराबे से भरे युद्ध के लिए उकसाने के निमंत्रण की तरह था लेकिन मंगलवार को जो उनका वीडियो वायरल हुआ उसमें तो हद ही हो गयी। इस वीडियों में तो लल्लन सिंह खुलेआम कह रहे हैं कि उनके समर्थक प्रियदर्शी को वोट डालने वाले गरीबों को घर से बाहर ही न निकलने दें। फिर भी अगर कोई मतदान केंद्र पर जाने के लिए पैर पकड़ने पर ही आ जाये तो उससे कह दे कि हम साथ चलेगें। आप उसके साथ जाकर अपने सामने उसका वोट अनंत सिंह को डलवायें। इस वीडियो के सामने आने से चुनाव आयोग को शर्म खानी ही पड़ी क्योंकि इसमें बचने का कोई रास्ता नही था। पर चुनाव आयोग को कोई कारगर एक्शन तो करना नही था, सिर्फ लाज बचाने के लिए हाथ-पैर मार देना था। इसके तहत कहलवाया गया कि लल्लन सिंह को नोटिस भेजकर इस वीडियो पर उनसे जबाव मांगा जा रहा है जिसके आने के बाद चुनाव आयोग अगला कदम उठायेगा। गजब है कि आज के अखबारों में यह खबर सिरे से ब्लैक आउट रही।
पर निष्पक्ष लोगों के सामने यह उजागर हो चुका था कि मोकामा में चुनाव के नाम पर सिर्फ एक ढोंग होना है। मतदाता सूचियां तैयार करने में सुनियोजित धांधली से लेकर मतदाताओं के साथ जोर-जबर्दस्ती तक जो स्थितियां सामने आई हैं वे यह आभास कराने के लिए पर्याप्त हैं कि देश में लोकतंत्र का अंतिम संस्कार करने की तैयारी पूरी हो गयी है। आश्चर्य है कि इसके बावजूद लोगों में कोई उबाल नही है। एक वर्ग जो संख्या में मुटठी भर है लेकिन आज भी देश की व्यवस्था उसी के नियंत्रण में है। उसे तो इस अनर्थ से कोई तकलीफ नही है। उसके पेट में कितना दर्द है यह तो अन्ना हजारे के आंदोलन के समय ही सामने आ गया था। पंचायती राज और स्थानीय निकाय के चुनावों में आरक्षण के जरिये ऐसे लोग सत्ता की मलाई के बंदरबांट में हिस्सेदार बनकर खुशहाल हो चुके थे जिनकी किस्मत में समाज के मुटठी भर शासक वर्ग की पीढ़ी दर पीढ़ी बिना पैसे की चाकरी करना बदा था। उनके दिमाग में साफ था कि ये निगोड़ा लोकतंत्र न आया होता तो इन गुलामों का अपने चरणों में गिरे रहना कभी न छूटता। लोकतंत्र के खिलाफ तो आंदोलन हो नही सकता था इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का नाम देकर लोकतंत्र की जड़ों में मटठा डालने का उपक्रम अन्ना आंदोलन का दूसरा नाम साबित हुआ। जाहिर है कि ऐसी सरकार की कोख से तानाशाही की संतान का पैदा होना लाजिमी रहा।
इसलिए वह मुटठी भर शासक वर्ग इस अनुकूल सरकार की छत्रछाया में सारी संस्थाओं को बलहीन करके लोकतंत्र को धंसकाने में लगा है। मीडिया भी इसी वर्ग सत्ता के बिरादरी के लोगों के शिकंजे में है इसलिए उसमें प्रतिरोध को स्थान क्यों मिले। लेकिन आश्चर्य यह है कि उस बहुसंख्यक जनता को जिसके जीवन में इस लोकतंत्र के कारण सुख-समृद्धि की कुछ किरणें हिस्से में आ रहीं हैं, जो सत्ता की हकदारी लायक समर्थ सक्षम हुआ है, जिसके लिए उज्जवल संभावनाओं के अनगिनत द्वार खुलने लगे हैं उसे इसके बचाने की चिंता क्यों नही हो रही है। उसकी मूक सहमति हो या पूरे परिदृश्य को लेकर उदासीनता लेकिन इसका अंजाम आगे चलकर उसे खुद ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा सालेगा इसमें दो-राय नही है। बहरहाल चुनाव अगर इसी तरह होना है तो इस नाटक को बंद करना ही ठीक होगा। चुनाव पर बहुत खर्चा होता है इसे नाहक में क्यों बर्बाद करना। इसकी बजाय होना यह चाहिए कि चुनावों को तिलांजलि देकर उसके खर्चे को वंचितों के हित में लगाने का पुण्य कर दिया जाये तो उनका कुछ तो भला हो।







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