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Thursday, November 21, 2024

अपराजेय नहीं मोदी, राहुल ने तोड़ा मिथक

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हाल के लोकसभा चुनाव में मोदी की अपराजेयता का मिथक चकनाचूर हो गया है। 2014 के बाद मोदी का जादू हर चुनाव में कुछ इस कदर चला कि लोग यह मानने को मजबूर हो गये कि उन्हें हराना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है। इस सोच ने मतदाताओं के अच्छे खासे अनुपात को चुनाव में बिना गुण दोष का विचार किये ईवीएम में कमल का बटन दबाने की मजबूरी पैदा कर दी। यहां तक कि नीतीश कुमार ने भी बहुत पहले खुलेआम कह दिया था कि विपक्ष मुगालते में है। मोदी को सत्ता से हटाना अब असंभव हो चुका है जिसके कारण भाजपा आगामी कई दशक तक देश में राज करने वाली है। हालांकि बीच-बीच में चुनाव परिणाम भाजपा के विपरीत भी आये लेकिन उनसे व्यापक नकारात्मक प्रभाव पैदा होता इसके पहले ही मोदी ने कई चुनाव में बाजी सर करके अपनी अपराजेयता की धारणा मजबूत रखी। उदाहरण कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम को माना जा सकता है जिसमें भारतीय जनता पार्टी को मोदी के कैम्पेन के बावजूद जब कांग्रेस ने पछाड़ दिया तो मोदी कुछ समय के लिए मुश्किलों से घिर गये थे। संघ तक ने कह दिया था कि राज्यों के चुनाव भाजपा को अब मोदी के चेहरे के भरोसे नहीं लड़ना चाहिए। इसके बजाय स्थानीय चेहरों को आगे करना चाहिए वर्ना उसके जीत का सिलसिला टूट सकता है। मोदी ने संघ के इस प्रतिपादन को अपने राजनैतिक अस्तित्व के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखते हुए उसकी अवहेलना का दुस्साहस कर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के (हालांकि इनके साथ तेलंगाना विधानसभा के भी चुनाव हुए थे जिसमें कांग्रेस ने बाजी मार ली थी लेकिन भाजपा के मुकाबले में नहीं ) विधानसभा चुनावों में किसी राज्य स्तरीय चेहरे को प्रोजेक्ट करने की बजाय अपने चेहरे पर पार्टी को चुनाव लड़वाया। चुनाव के पहले जो आंकलन किये जा रहे थे उनमें तीनों हिन्दी पट्टी के महत्वपूर्ण राज्यों में भाजपा की लुटिया डूबने के आसार जताये गये थे। लेकिन जब चुनाव परिणाम आये तो एक दम अप्रत्याशित हुआ। मध्य प्रदेश जैसे राज्य में भी भाजपा ने बहुत मजबूती से वापिसी की और छत्तीसगढ़ के साथ-साथ राजस्थान को कांग्रेस के पंजे से छीनकर अपने कब्जे में कर लिया।
लोकसभा चुनाव के पहले इस राजनीतिक स्थिति ने मोदी की धाक को फिर सातवे आसमान पर पहुंचा दिया। उनके आत्मविश्वास का कारण इसके मद्देनजर निराधार नहीं कहा जा सकता। मोदी ने 400 पार सीटें हासिल करने की डींगे हांकी तो उनके विरोधी भी विचलित हुए कि कहीं सचमुच वे भूतों न भविष्यतो वाला बहुमत का आंकड़ा छूने में सफल न हो जायें। अगर कांग्रेस तीसरी बार और कम सीटों पर सिमटती तो इतिहास से उसका नाम मिटने की नौबत आ जाती। ऐसे में राहुल गांधी ने विकट जिजीविषा दिखायी। उन्होंने कहा तो नहीं लेकिन डाक्टर लोहिया की रणनीति पर उनकी निगाह जमी। आजादी के तत्काल बाद कांग्रेस के बारे में भी लोग यही सोचते थे कि भले ही हर व्यक्ति को वोट डालने का अधिकार मिल गया हो लेकिन चाहे जितने लोग खिलाफत में हो जायें कांग्रेस को बैलेट की शक्ति से सत्ता से बाहर करना असंभव कार्य है। इसलिए लोग कांग्रेस से संतुष्ट न होते हुए भी चुनाव में उसे ही वोट डालने में खैरियत समझते थे ताकि उनका वोट बर्बाद न हा सके। कांग्रेस की संजीवनी थी दलित, मुस्लिम और ब्राह्यण का सामाजिक समीकरण। डा लोहिया ने दिमाग लगाया कि इससे वृहत्तर सामाजिक गोलबंदी की जा सके तो कांग्रेस को पीछे धकेलने का विश्वास जनता में पैदा किया जा सकता है। लोहिया इसके लिए पिछड़ों ने बांधी गांठ सौ में पावें साठ का नारा लेकर सामने आये। उन्होंने कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया जिसमें यह था कि सोशलिस्ट पार्टी धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता के बावजूद कांग्रेस को पहले सत्ता से बाहर करके लोकतंत्र का सुचारू बनाने के लिए तात्कालिक तौर पर जन संघ से हाथ मिलाने में परहेज न रखे। लोहिया ने कटिबद्ध होकर इस रणनीति पर काम किया। उनके जीवन काल में कांग्रेस केन्द्र में तो सत्ता से बाहर नहीं हो सकी लेकिन 1967 में कई राज्यों में गैर कांग्रेसी संविद सरकारें बन गई जिससे लोग यकीन करने लगे कि वे अपने वोट की ताकत से सरकार बदल सकते हैं। लोगों में इसी मानसिकता का बीजारोपण 1977 में केन्द्र से भी कांग्रेस के अपदस्थ होने का कारण बना।
राहुल गांधी ने इसी पैटर्न पर जातिगत जनगणना और जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ने का बीड़ा उठा लिया। कांग्रेस को ब्राह्यण महासभा कहा जाता था और आज भी उसके शीर्ष नेतृत्व की पंक्ति में सवर्ण नेता हावी हैं लेकिन राहुल गांधी ने जब यह अभियान चलाया तो वे अपने को वंचित जातियों में पूरी तरह निष्कपटता से बात करते प्रदर्शित करने में सफल रहे जिससे उन्हें वंचितों के एक बड़े वर्ग में पैठ बनाने में काफी हद तक कामयाबी मिल गई। गैर कांग्रेसवाद की तरह उन्होंने गैर भाजपा वाद के नारे को फलीभूत करने क लिए समर्पण की भावना दिखायी जिसके कारण कम सीटें मिलते हुए भी अखिलेश यादव और तेजस्वी आदि के साथ चुनावी गठबंधन संभव हुआ। चुनाव नतीजे के आने के पहले तक नामी गिरामी सर्वे एजेंसियां भाजपा के दावे की तस्दीक कर रही थी और भाजपाई भी मुगालते में थे कि वे 400 पार करने जा रहे हैं। पर चुनाव परिणामों ने उनकी उम्मीदों के फूले हुए गुब्बारे को पंचर कर दिया। भाजपा औधे मुंह गिरी नजर आयी। 400 पार तो क्या अपनी दम पर सरकार बनाने की भी हालत उसकी नहीं रह गई। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी वनारस में शुरूआती गिनती में पिछड़ते रहे और अंततोगत्वा जीते भी तो उनके हिसाब से इतने कम मार्जिन से कि शर्म के मारे जीत का जश्न मनाने की भी कुब्बत उनमें नहीं रह गई।
अब यह स्थापित हो चुका है कि मोदी को भी हराया जा सकता है और मोदी भी मनोवैज्ञानिक रूप से दहशत में हैं। इसके कारण जिन मोदी को कभी बैकफुट पर जाते नहीं देखा गया था उन्हें अब इसके लिए मजबूर होना पड़ रहा है। पहले उन्हें वक्फबोर्ड विधेयक को पारित कराने की बजाय प्रवर समिति को सौंपना पड़ा। इसके बाद बिना आरक्षण के लेटरल इंट्री से भारत सरकार में उच्चस्तरीय नियुक्तियों का विज्ञापन वापस लेना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को आरक्षित तबकों में उप वर्गीकरण करने और एससी एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर की शर्तों को लागू करने का जो अधिकार देना चाहा था उसे लेकर भी वे यह आश्वासन देने को मजबूर हुए कि सुप्रीम कोर्ट की इस मंशा को आगे नहीं बढ़ाया जायेगा। नरेन्द्र मोदी अपना संबंध पिछड़ी जाति से जोड़ते रहे हैं लेकिन राजनीति में इस पहचान को कैश कराने के लिए वे ऐसा करते हैं या सचमुच वे पिछड़ी जाति से ही आते हैं। इस बारे में सच्चाई क्या है यह कहना तो मुश्किल है लेकिन अगर वे पिछड़े हैं भी तो उन शक्तियों के मोहरे हैं जिन्हें देश का भला वर्ण व्यवस्था में नजर आता है उनके राष्ट्रवाद का आधार वर्ण व्यवस्था है। जिसमें यह मान्यता निहित है कि जब तक ईश्वरीय कोप के शिकार वंचित अभागी नियति को स्वीकार करते रहेंगे तभी तक भारतीय समाज और देश का कल्याण संभव है। दलितों और पिछड़ों को लोकतंत्र के कारण मिल रहे अधिकार को वे कलयुग की महिमा कहकर कोसते हैं। कलयुग के इस अनिष्ट को बचाने के लिए वर्ण व्यवस्था को किस प्रकार बहाल किया जाये यह कसक उनको भाजपा के रूप में इसके निमित्त खड़ी की गई राजनीतिक शक्ति के जरिये कारगर प्रयास करने के लिए प्रेरित करती रही है। परंपरावादी इस बात से परिचित हैं कि अगर आरक्षण व अन्य सामाजिक सुधारवादी प्रयासों को सवर्ण नेता पलटेगा तो बहुमत आड़े आ जायेगा लेकिन अगर उन्हीं के वर्ग में से किसी को मोहरा बनाकर यह दायित्व पूरा कराया जाये तो गफलत में वंचित समय पर उसका प्रतिरोध करने में चूक जायेंगे। नरेन्द्र मोदी अभी तक इस मामले में स्वामी भक्ति का परिचय दे रहे थे तो परंपरावादी उनसे बहुत खुश थे। पर अब जब उन्हें लगा कि अगर उन्हाने अंध स्वामी भक्ति की तो उनकी राजनीतिक बलि चढ़ जायेगी। ऐसे में दलितों और पिछड़ों का मुकापेक्षी होकर कोई कदम उठाना उनकी मजबूरी बन गया है। इस कारण बैकफुट पर जाने के अलावा उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। अपनी घेराबंदी कड़ी होती देख घबराये मोदी कहीं होने वाली जनगणना में जातिगत और आर्थिक सर्वे की मांग को भी न मान लें इसके आसार बन रहे हैं। राहुल गांधी और इंडिया गठबंधन ने भांप लिया है कि लोहा पूरी तरह गर्म है इसलिए इस पर हथौड़ा मारने में वे कोई रियायत नहीं छोड़ना चाहते हैं। मान्यता यह है कि अंततोगत्वा जीत न्याय की होती है इसलिए इस बार सामाजिक न्याय अपनी नैतिक शक्ति के कारण तार्किक परिणति पर पहुंच कर रहेगा। भारतीय समाज के आगे बढ़ने में सदियों से जो गतिरोध बना है उसका निराकरण इसकी जड़ता पर अपेक्षित आघातों से ही हो सकता है। इसलिए अगर जातिगत और आर्थिक सर्वे के आधार पर भारतीय समाज के पुर्नसंयोजन की रूपरेखा तैयार होती है तो न तो यह सवर्ण समाज के लिए अहितकर होगा और वंचित समाज के लिए तो यह अहिल्या उद्धार जैसी परिघटना बनेगी।      

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