कोंच-उरई । कोंच में त्रिशाला ‘बड़ी पूजा’ का रोमांच भरा विस्मयकारी अनुष्ठान शनिवार को संपन्न हो गया। माँ हुल्कादेवी की विदाई के इस तांत्रिक अनुष्ठान में आस्था का ऐसा सैलाब उमड़ा कि हर तरफ मैया और लाला हरदौल के जयकारे गूंज रहे थे। आलम यह था कि सड़कों पर तिल रखने को जगह नहीं थी। हर 3 साल में आयोजित होने वाली माँ हुल्कादेवी की विदाई पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ की गई। मालवीय नगर स्थित लाला हरदौल मंदिर से मैया की विदाई की शोभायात्रा प्रारंभ हुई और दिनभर चल कर देर शाम उरई रोड स्थित माँ हुल्कादेवी मंदिर पर पहुंच कर समाप्त हुई। पूर्वजों की मान्यता है कि यह पूजा नगर व क्षेत्र को महामारी, अकाल और दुर्भिक्ष जैसी आपदाओं से बचाने वाली है। इस पूजा की शुरुआत बर्ष 1913 से तब हुई थी जब कोंच में महामारी फैली थी और लोगों की अकाल मौत हो रही थी। मैया की इस शोभायात्रा में माँ हुल्कादेवी के डोले (विमान) के आगे सैकड़ो घुल्लों पर देवी देवताओं की सवारी का दृश्य बेहद रोमांचकारी दिखाई दे रहा था।
शनिवार की सुबह लगभग 8 बजे से बड़ी पूजा की शुरुआती औपचारिकताएं प्रारंभ हो गई थी और घुल्लों को बुलाने के लिए आयोजन कमिटी से जुड़े लोग निर्धारित स्थानों पर पहुंचने लगे थे। ढोल नगाड़ों के साथ लोग नई बस्ती में गंगाराम पटेल और धोबिन बऊ के यहां पहुंचे और उन्हें लेकर मालवीय नगर स्थित लाला हरदौल मंदिर पहुंच गए। महंत के यहां से विदाई की टिपरिया आई जिसे मैया के डोले में रखा गया। इसके बाद 3 सेर बेसन से निर्मित मां हुल्कादेवी की प्रतिमा को डोले में पधरवा कर तकरीबन 11 बजे शोभायात्रा प्रारंभ की गई। इस वक्त तक वहां हजारों की संख्या में पुरुष और महिलाओं की भीड़ जुट चुकी थी जो मैया और लाला हरदौल के जयकारे लगाते हुए डोले के आगे पीछे चल पड़ी। यद्यपि यह तांत्रिक पूजा है जिसमें घुल्लों, गुनियाओं और ओझाओं की प्रधानता थी लेकिन इसमें समूचे नगर की समान आस्था के साथ सहभागिता बताती है कि पूजा पद्धति पर आस्था भारी पड़ी। चूंकि मैया की विदाई का यह आयोजन है सो इसमें विदाई की सभी रस्में निभाईं जाती हैं। धोबिन बऊ के यहां से सुहाग आता है और गंगाराम पटेल के यहां से डोला, जबकि टिपरिया महंत ब्रजभूषण दास के यहां से लाए जाने की परंपरा है। परंपरा यह भी है कि मैया के डोले को पहला कंधा महंतजी के परिवार का ही कोई सदस्य लगाता है तभी मैया की विदाई यात्रा प्रारंभ होती है। ‘बड़ी पूजा’ की स्थापित वर्जनाओं के अनुरूप महिलाएं बिना श्रृंगार किए खुले केशों के साथ अनुशासित ढंग से शोभायात्रा में शामिल रहीं। तकरीबन 4 किमी की इस विदाई यात्रा में सबसे आगे शरबत, दूध और मदिरा की तीन धाराएं अनवरत चल रहीं थीं। गंगाजल शर्बत की धार रामशंकर कुशवाहा नईबस्ती, मदिरा की धार अमित कुमार तथा दुग्ध की धार हमीरसिंह लेकर चल रहे थे। इन धाराओं के पीछे मान्यता है कि रास्ते में जो अदृश्य शक्तियां मिलती हैं वे अपने अपने भोज्य के अनुसार इन्हें ग्रहण करती हैं। मातारानी के विमान में जोते जाने वाले काले सुर्ख बकरों को रामकिशुन, अशर्फी, रामखिलावन लेकर चल रहे थे। सागर चौकी तिराहे पर लाला हरदौल के स्थान पर हुल्का मैया ने विश्राम किया, वीर बुंदेला लाला हरदौल देवस्थान समिति द्वारा आवश्यक अनुष्ठान किए गए और मैया का डोला पुन: यात्रा पर आगे बढ गया। देर शाम मैया का डोला हुल्कादेवी मंदिर पहुंचा जहां उनके रथ में जुते बकरों को खेतों में छोड़ दिया गया, वहां पर वाराहों की बलि दी गई और नौ देवियों के 9 खप्पर फूल, गंगाजल, रक्त, नीबू, दूध, मदिरा, दही, शरबत एवं अंडों को भरकर मंदिर के पिछवाड़े खेतों में रख दिए गए। शोभायात्रा के दौरान लोगों में मैया के डोले में कंधा देने के लिए एक अजीब ही उतावलापन देखा गया। ग्रामीण अंचलों से सैकड़ों ट्रैक्टरों में भर कर लोग आए थे जो मैया की एक झलक पाने के लिए घंटों अपने अपने स्थानों पर जमे रहे। शोभायात्रा आयोजन समिति/लाला हरदौल मंदिर कमिटी के अध्यक्ष श्यामदास याज्ञिक, मंत्री नरेश वर्मा, मंदिर के पुजारी कन्हैयालाल सहित सैंकड़ों सदस्य व्यवस्थाओं में संलग्न रहे।इस दौरान सांसद नारायण दास अहिरवार, पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री भानुप्रताप वर्मा, पूर्व राज्यमंत्री व माधौगढ़ के पूर्व विधायक हरिओम उपाध्याय,प्रतिपाल गुर्जर, हर्षेंद्र निरंजन, शंभू महाराज, नवेंद्र उपाध्याय, विधायक मूलचंद्र निरजंन, पालिकाध्यक्ष प्रदीप गुप्ता, डॉ. सरिता वर्मा, दीपराज गुर्जर, धीरेंद्र यादव, विज्ञान विशारद सीरौठिया, सुनील लोहिया, राघवेंद्र तिवारी, अमित यादव, महेंद्र कुशवाहा आदि ने मैया के डोले में कंधा लगाया।