सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चन्द्रचूड़ के घर आयोजित गणेश पूजा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शामिल होने के बाद एक नया विवाद छिड़ गया है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों का एक वर्ग प्रधान न्यायाधीश द्वारा पद पर रहते हुए सरकार के सर्वोच्च पदाधिकारी के साथ घनिष्ठ मेलजोल दिखाने की जस्टिस चन्द्रचूड़ की कार्रवाई को अत्यंत आपत्तिजनक ठहरा रहे हैं और कह रहे हैं कि जस्टिस चन्द्रचूड ने यह करके न्यायपालिका की विश्वसनीयता को चोट पहुंचायी है जो अक्षम्य है। मजे की बात यह है कि मोदी के अंध समर्थक जस्टिस चन्द्रचूड से काफी नाराज रहते थे सरकार को मुश्किल में डालने वाले उनके कदमों को लेकर मोदी समर्थक उन्हें भारत के खिलाफ षणयंत्र करने वाली बाहरी शक्तियों का विपक्ष की तरह टूल बन जाने का आरोप उन पर लगाने तक से नहीं हिचक रहे थे। यह अजीब रवैया है कि लोकतंत्र में सरकारों के फैसलों और कार्रवाइयों पर उंगलियां उठते रहना सहज प्रक्रिया है। लेकिन वर्तमान में जनमानस का माइंड सेट ऐसा बदला गया कि सरकार की आलोचना लोगों को बर्दास्त नहीं होती और ऐसा करने वालों को देशद्रोही तक साबित करने की मुहिम छेड़ दी जाती है। यहां तक कि शंकराचार्यो तक को इस मामले में बख्शा नहीं जाता जबकि शंकराचार्य हिन्दू समाज के सर्वमान्य अधीश्वर समझे जाते रहे हैं और उन पर टिप्पणी करने की जुर्रत धर्म भीरूता के कारण आस्थावान हिन्दुओं में पहले कभी नहीं देखी गई थी। नये घटनाक्रम से वे ठगे जाने जैसी स्थिति में पहुंच गये हैं।
यह दूसरी बात है कि जस्टिस चन्द्रचूड़ की कार्यशैली ऐसी रही कि सरकार के खिलाफ कोई मामला पेश होने पर शुरूआत में तो वे ऐसे तेबर दिखाते रहे कि सरकार में बैठे लोगों को पसीना छूट जाये लेकिन फैसले तक पहुंचने का अवसर आने पर वे सब कुछ टांय-टांय फिस करते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर हिण्डन वर्ग खुलासे के बाद जब अदाणी ग्रुप की कारोबारी हेराफेरी की जांच के लिए याचिका उनके सामने आयी तो उन्होंने सरकार से कड़े सवाल पूंछ डाले लेकिन मामला पर तार्किक परिणति पर पहुंचा तो उन्होंने सेबी की अदाणी ग्रुप को लेकर क्लीन चिट स्वीकार करके मामला बंद कर दिया। जबकि हिण्डन वर्ग रिपोर्ट में अदाणी की जिन कथित कारोबारी अनियमितताओं को उजागर किया गया था सेबी के अधिकार क्षेत्र के दायरे में उनकी जांच संभव ही नहीं थी फिर भी जस्टिस चन्द्रचूड ने सुना नहीं। चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में चुनाव अधिकारी द्वारा की गई मनमानी को तो उन्होंने पकड़ लिया और चुनाव दुबारा करा दिया लेकिन चुनाव अधिकारी के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया। इलेक्टोरल बांड में की गई व्यवस्थाओं को गलत तो ठहरा दिया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की। महाराष्ट्र में सत्ता पलट को लेकर महाराष्ट्र सरकार और राज्यपाल की गलत भूमिका सामने आ जाने के बावजूद इसमंे किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं की। ऐसे दर्जनों मामले बताये जा सकते हैं। अनु0जाति और जनजाति आरक्षण में क्रीमीलेयर को बाहर करने का फैसला सुनाकर उन्होंने भाजपा के हिडन ऐजेण्डे को पूरा किया ऐसी धारणा बनी। इस तरह देखा जाये तो उन्होंने तो मोदी सरकार की निरंकुशता के खिलाफ तैयार हो रहे माहौल को सेफ्टी वाल्ब की भूमिका अदा करके निष्प्रभावी करने में बड़ा योगदान दिया।
हो सकता है कि न्यायपालिका कई बार सरकार को अस्थिर करने का माध्यम बनने से हिचकती हैं। इसी के अनुरूप जस्टिस चन्द्रचूड सरकार पर निर्णायक प्रहार से बचने के लिए मजबूर हो जाते रहे हों। तब तो इस नाते इन्दिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुनाने में बात का बतंगड़ बना देने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस जगमोहन की समझदारी पर प्रश्नचिंह लगाने का भाव पैदा हो जाता है। उस समय देश के नवजात लोकतंत्र को अग्रसर रखना बड़ी चुनौती बना हुआ था। भारत विदेशी शक्तियों के निशाने पर था जिसे लेकर खुफिया एजेंसियों की भी चिंतित करने वाली रपटें आ रही थी। भारत विरोधी शक्तियों के निशाने पर व्यक्तिगत रूप से इन्दिरा गांधी भी बहुत थी उन्हें लगता था कि इन्दिरा गांधी का सामथ्र्यवान नेतृत्व पराजित हो जाये तो उनके मंसूबे कामयाब हो जायेंगे। इसी को समझते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के उक्त फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ही दिनों बाद स्टे कर दिया था।
आज अगर मोदी पर तानाशाही का आरोप लग रहा है तो इन्दिरा गांधी की तानाशाही तो और ज्यादा थी। उन्होंने तो इमरजेंसी थोप दी थी जिसे लेकर आज उनकी पार्टी से जबाव मांगा जाता है और कांग्रेस इस मुद्दे पर कमजोर सी पड़ जाती है। पर क्रांतिकारी तानाशाही और व्यक्तिगत तानाशाही में अंतर होता है जो दिखना चाहिए। इन्दिरा गांधी ने राजाओं का प्रिवीपर्स खत्म करने और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का फैसला जिस अंदाज में किया था उसमें तानाशाही की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी। लेकिन यह फैसले जनता के मौलिक अधिकारों को मजबूती देने के उद्देश्य पर आधारित थे जिनसे लोकतंत्र के अनुकूल व्यवस्था का नया ढ़ांचा निर्धारित हो सका था। इमरजेंसी में भी गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम लागू करने और सरकारी दफ्तरों में समयबद्धता व अनुशासन के लिए दृढ़ता दिखाने का जो काम किया गया उससे जनहित की पूर्ति में काफी सहयोग मिला। शहरों को सुव्यवस्थित करने के लिए इस दौरान कठोरतापूर्वक अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाया गया। वृक्षारोपण व परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रम चलाये गये जो समय की मांग थे। हालांकि अधिकारियों ने परिवार नियोजन कार्यक्रम का दुरूपयोग किया जिसकी बड़ी कीमत इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जनता को चुकानी पड़ी। लेकिन मोदी की तानाशाही जनता की बजाय मुट्ठी भर निहित स्वार्थी तबकों के हितों का पोषण कर रही है। अगर उनकी तानाशाही का संबंध जनहित से होता तो वे देश के एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों पर वैल्थ टैक्स की मांग उसे मान लेनी चाहिए। उसकी बजाय अपने चहेते कारपोरेट के लिए वह मोनोपाली को बढ़ावा देने में लगी है। सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल भ्रष्टाचार खत्म करने व कालाधन को जब्त करने की प्रक्रिया को युद्धस्तरीय बनाने की अपेक्षा उनसे की जा रही थी पर उन्होंने अपने राजनैतिक विरोधियों के दमन के लिए इन एजेंसियों को टूल बनाने की जो परंपरा शुरू की है उससे दूरगामी तौर पर देश को बहुत नुकसान पहुंच रहा है।
जस्टिस चन्द्रचूड द्वारा अपने घर आयोजित गणेश पूजा में प्रधानमंत्री को बुलाना सामान्य शिष्टाचार तक सीमित रहता तब भी गनीमत थी। एक तो महाराष्ट्र में विधानसभा के नये चुनाव प्रस्तावित हैं जिसके लिए मोदी ने इस प्रसंग का भरपूर इस्तेमाल किया। वे चन्द्रचूड के घर महाराष्ट्रियन अंदाज में काली टोपी पहनकर पहुंचे। इसके अलावा उन्होंने जस्टिस चन्द्रचूड के घर में अपने फोटो सेशन की व्यवस्था भी कर रखी थी जिसे पता नहीं किस संकोच के कारण चन्द्रचूड ने नहीं रोका। चन्द्रचूड़ और उनकी पत्नी द्वारा घर से बाहर आकर प्रधानमंत्री की अगवानी करना और फिर उनके पूजा कक्ष में उनके साथ गणेश स्तुति पढ़ना सबकुछ मोदी ने शूट कराया जिसके लिए एक से अधिक कैमरा मैन पहले से चन्द्रचूड़ के घर पहुंच गये होंगे पर चन्द्रचूड़ उन्हें रोक नहीं सके जबकि वैसे भी सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के घर की फोटोग्राफी और वीडियाग्राफी नहीं होनी चाहिए। इसके बाद मोदी ने उद्देश्पूर्ण ढ़ंग से अपने एक्स एकाउंट पर इसे अपलोड कर दिया ताकि सारे लोग जान जायें कि न्यायपालिका चन्द्रचूड़ दौर में भी उनकी मुट्ठी में है।
चन्द्रचूड़ ने यह अपयश अपने खाते में दर्ज कराने की नौबत क्यों पाली। क्या वे भी रंजन गोगोई की तरह रिटायरमेंट के बाद किसी सरकारी पद पर अपने पुनर्वास की हसरतें संजोये हुए हैं। मीडिया में तो यह खबरे सूत्रों के हवाले से चल भी पड़ी हैं कि जस्टिस चन्द्रचूड को सेवानिवृत्ति के बाद किसी राज्य का राज्यपाल बनाने का फैसला हो चुका है इसी कारण वे मोदी के अनुग्रहीत होकर उनकी कठपुतली बनने में शर्म महसूस नहीं कर रहे। बहरहाल जो भी हो लेकिन देश की सुरक्षा का प्रतीक बने हुए ढ़ांचे में जो संस्थायंे शामिल हैं उन्हें दूरगामी प्रभाव के मद्देनजर किसी भी तरह की नादानी का शिकार होने से अपने को बचाये रखने के लिए कृत संकल्प होना चाहिए।