सरकारी जमीन पर कब्जे के लिए घाघ लोगों के एक कानूनी दाव से जानकार खूब परिचित हैं। इसमें एक ही गिरोह दो पार्टियां बनाकर अदालत में पहुंच जाता है। एक पार्टी अदालत के सामने कहती है कि अमुक ने उसकी जमीन पर अवैध रूप से कब्जा कर रखा है। दूसरी पार्टी भी बने बनाये दस्तावेजों के सहारे यह दावा करने में लग जाती है कि जिस जमीन पर वह काबिज है उस पर उसकी वैधानिक हकदारी है। पहले काफी समय मुकदमा चलाया जाता है। इसके बाद दोनों पार्टियों में अदालत के सामने समझौते का दिखावा होता है और इस तरह किसी एक पार्टी के नाम उस सरकारी जमीन पर उसकी हकदारी की मुहर लग जाती है।
कुछ ऐसा ही माजरा वंचितों को उनके संख्या बल के अनुरूप व्यवस्था में भागीदारी के सवाल पर सामने आ रहा है। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के पहले इस सवाल को उठाने की शुरूआत की जिसे पीडीए का नारा देकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने और बल प्रदान किया। इस बीच जब राजद और जदयू एक थे और भाजपा के खिलाफ गोलबंदी के अभियान की नीतीश अगुवाई कर रहे थे। तो इस मुद्दे की आग को और प्रज्ज्वलित करते हुए नीतीश ने बिहार में जातिगत सर्वे करा दिया जिससे भाजपा के सामने धर्म संकट गहरा गया। हालांकि लोकसभा चुनाव की नौबत आने तक नीतीश पाला बदलकर भाजपा के साथ चले गये थे फिर भी इस मुद्दे की तपिश मंद नहीं हुई। लोकसभा चुनाव में इसकी परिणति भाजपा के द्वारा अपनी दम पर पूर्ण बहुमत खो देने के बतौर सामने आयी।
जाहिर है कि भाजपा के सामने इसके बाद उक्त मुद्दे को निष्प्रभावी करना सबसे प्रमुख चुनौती बना हुआ है। इसके लिए हिन्दुत्व के उन्माद को सारी लोकलाज छोड़कर चरम सीमा पर ले जाने की रणनीति पर भाजपा अमल कर रही है और इसका असर भी देखने को मिल रहा है। हरियाणा में वंचितों को उनकी संख्या के मुताबिक भागीदारी देने के सवाल की धार इसी उन्माद के कारण भौथरी पड़ गई जिससे पासा पलट गया। समझा यह जा रहा था कि भाजपा को इस बार हरियाणा में रूसबा होकर सत्ता के सिंहासन से नीचे उतरना पड़ेगा लेकिन सारे अनुमानों को धता बताकर इस राज्य में भाजपा तीसरी बार फिर अपना राजतिलक कराने में सफल हुई। इस झटके ने विपक्ष में जबरदस्त हताशा का संचार किया है और जनमानस में भी उसकी साख को धक्का पहुंचा है।
इसी कड़ी में भाजपा और विपक्ष के बीच नया मोर्चा झारखंड व महाराष्ट्र में खुला है जहां के नतीजे क्या होंगे लोगों की निगाह इस पर जुड़ी हुई है। लेकिन इस आलेख का मकसद पक्ष विपक्ष के चुनावी कुरूक्षेत्र की स्थितियों का आंकलन करना नहीं है अपितु मुख्य विषय यह है कि सामाजिक न्याय के तकाजे को स्वीकार करने के नाम पर पक्ष विपक्ष चकमेबाजी का परिचय क्यों दे रहे हैं। देश और भारतीय समाज को आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक यथा स्थिति को तोड़कर नई शुरूआत करने की समय की मांग से देश के सारे राजनैतिक पक्ष मुंह क्यों चुराना चाहते हैं।
सन्निकट विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी एक बार फिर दलितों और पिछड़ों को उनकी संख्या के अनुपात में भागीदारी दिलाने की हुंकार भर रहे हैं दूसरी ओर इस मामले में सत्ता पक्ष अपनी जबावदेही स्वीकार करने की बजाय राहुल गांधी का कच्चा चिट्ठा खोलकर मुद्दे को हांशिये पर ठेलने में लगा है। सत्ता पक्ष और राहुल गांधी जैसे सरकारी जमीन हथियाने वाले गिरोह की दो बनावटी पार्टी बन गये हैं। राहुल गांधी सत्ता पक्ष को घेरने के लिए भागीदारी के प्रश्न पर चाहे जितनी क्रांतिकारिता दिखाते हों लेकिन अपनी पार्टी में प्रभुत्ववादी जातियों के नेताओं की जकड़ को खत्म करने के लिए कुछ ठोस कर पाने में उनकी असहायता उनके पूरे उपक्रम को ढ़कोसला साबित करके रख देती है। कांग्रेस का अतीत बताता है कि जब यह पार्टी सरकारों में रही तब उसने भी यथा स्थिति के ढ़ांचे को तोड़ने का बहुत ज्यादा साहस नहीं दिखाया और उसका यह रिकार्ड राहुल गांधी के गले की हड्डी साबित हो रहा है।
दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी है जिसका मस्तिष्क संघ परिवार माना जाता है और धारणा यह है कि संघ परिवार संस्कृति के नाम पर नये लेबिल में वर्ण व्यवस्था की बहाली के लिए कृत संकल्प रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी असल पिछड़े हैं या बने बनाये पिछड़े यह चर्चा का विषय हो सकता है पर संघ ने रणनीति के तहत उनकी पहचान को पिछड़े वर्ग से संबंधित करके प्रोजेक्ट किया। भारत की उपनिवेशवादी सामाजिक व्यवस्था में कई टर्म ऐसे हैं जो इसके रचनाकारों की जबरदस्त रणनीतिक सूझबूझ पर प्रकाश डालते हैं। आपाद धर्म ऐसा ही एक टर्म है जो सामाजिक उपनिवेश के कर्णधारों को सलाह देता है कि अगर कोई संकट अभैद्य बन जाये तो कुछ समय के लिए एक कदम पीछे हटने से हिचकना नहीं चाहिए।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जो तूफान उठा उसमें सामाजिक यथा स्थिति के तिनके-तिनके उड़ जाने के आसार बन गये तो परंपरावादियों के शिविर में घबराहट मच गई थी। इस उथल पुथल में चन्द्रशेखर जैसे राजनीतिक मारीच को सत्ता के केन्द्र में स्थापित करके परंपरावादियों ने तात्कालिक तौर पर एक संबल हासिल किया। बाद में नरसिंहाराव ने प्रति क्रांति का चक्र पूर्ण करने में बड़ा योगदान दिया। लेकिन बावजूद इसके बदलाव का सिलसिला थम नहीं पाया। वंचितों में से निकले मुलायम सिंह, लालू यादव, मायावती इत्यादि क्षत्रप राजनैतिक परिदृश्य पर हावी होते चले गये। इस दौरान संघ परिवार ने बहुत ही धैर्य से काम लिया और सधे ढ़ंग से कदम दर कदम आगे बढ़ने का ताना बाना बुना। इसमें वंचितों के बीच के किसी व्यक्ति को सिरमौर के रूप में स्वीकार करना वक्त का तकाजा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में इसी नौटंकी के तहत नरेन्द्र मोदी ने अपने को उछल-उछलकर चाय वाला और नीची जाति से आया हुआ बताने का अभियान छेड़ दिया। इस तरह इस छद्म से उन्होंने देश के बहुसंख्यक बहुजनों से तादत्म्य स्थापित कर लिया जो उनकी अभूतपूर्व सफलता का कारण बना। लेकिन जब सदियों से पड़े वंचितों को बराबरी पर लाने के प्रयास के मामले में उन्हें कसौटी पर कसने की बारी आयी तो उनकी कलई खुलने की नौबत आ गई। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के पहले से भारत सरकार चलाने वाले 90 सचिवों में पिछड़ी जाति के मात्र तीन सचिव होने का तथ्य सामने रखना शुरू किया तो होना तो यह चाहिए था कि मोदी जबाव देते कि यह गलती उनके पहले से होती आ रही है जिसमें वे अब सुधार करेंगे। इस मामले में जबाव उन्हें वंचितों को देना था पर उन्होंने प्रस्तुत ऐसे किया जैसे यह राहुल गांधी और उनकी आपस की खेती की लड़ाई हो जिसके तहत बजाय मुख्य प्रश्न का जबाव देने के उन्होंने राहुल गांधी की बखिया उधेड़ना शुरू करके स्थिति को दूसरा मोड़ दे दिया। आज भी यही हालत है। वंचितों को जबाव देने की जबावदेही निभाने की बजाय वे राहुल गांधी को जबाव दे रहे हैं। राहुल गांधी ने रायबरेली में दिशा की बैठक की अध्यक्षता के समय के अपने अनुभव को पत्रकारों को बताया कि उन्होंने वहां अधिकारियों से उनके नाम और सरनेम पूंछे तो पता चला कि लगभग सारे अधिकारी सवर्ण समाज के हैं। अगर राहुल गांधी का यह कहना गलत था तो राज्य सरकार को तत्काल इसका खंडन करना चाहिए था लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि अधिकांश जिलों में प्रमुख पदों पर सवर्ण जाति के अधिकारी ही विराजमान हैं। कोई जिला ऐसा नहीं है जहां पिछड़े और दलित समुदाय के अधिकारियों का बाहुल्य हो। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ संघ के बहुत चहेते हैं। क्या इसलिए कि उन्होंने मुसलमानों को काबू में रखने की सामथ्र्य दिखायी है या इसलिए कि वे पिछड़े और दलितों को वर्ण व्यवस्था की भावना के अनुरूप सेवक की भूमिका में समेट देने के ऐजेंडे को बड़ी कामयाबी से पूरा कर रहे हैं।
कांग्रेस ने क्या किया यह बताने की आज कोई प्रासंगिकता नहीं है अगर वर्तमान सत्ता इस दिशा में बेहतर नहीं कर रही। कांग्रेस यथास्थितिवाद की पोषक होने के बावजूद सामाजिक सुधार की कायल रही है जिसके गवाह अनेक तथ्य हैं। उत्तर प्रदेश की ही बात ले लें तो यहां कांग्रेस के समय हर जिले के लिए यह व्यवस्था की गई थी कि डीएम या एसपी में से कोई एक अनुसूचित जाति या जनजाति से होगा। वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में तो उत्तर प्रदेश शासन के प्रमुख पदों पर अनुसूचित जाति के तमाम अधिकारियों को पदासीन कर दिया गया था। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह ने दलितों को सभी क्षेत्रों में आरक्षण दिलाने का प्रावधान किया था। अर्जुन सिंह ने ही मानव संसाधन विकास मंत्री रहते हुए आईआईटी और आईआईएम में अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कराई थी। राजीव गांधी ने पंचायती राज संस्थाओं और नगर निकायों में दलितों, पिछड़ों को आरक्षण दिलाकर ग्रास रूट लेबिल पर समाज में उनके प्रति हीन भावना निर्मूल करने की सार्थक कोशिश की थी। भारतीय जनता पार्टी की सत्ता ने समाज की जड़ता पर प्रहार करने वाले ऐसे किसी भी कदम से दुराव किया है।
कहा जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी का इस्तेमाल पूरा हो गया है। उन्होंने वर्ण व्यवस्था के लिए भाव भूमि तैयार करके अपनी स्वामी भक्ति निभा दी है। इसलिए संघ परिवार भाजपा में नेतृत्व अब जन्मजात हकदारों को सुपुर्द करने का निश्चय बना चुका है। इसके तहत चर्चा है कि संजय जोशी को भाजपा का अध्यक्ष बनाने और प्रधानमंत्री पद पर नितिन गडकरी या योगी आदित्यनाथ में से किसी को सुशोभित करने का इरादा तय हो चुका है। वैसे सयानों का यह भी बताना है कि योगी को अभी कनिष्ठ समझा जा रहा है इसलिए फिलहाल नरेन्द्र मोदी के उत्तराधिकारी के तौर पर नितिन गडकरी के चयन के आसार ज्यादा हैं। बहरहाल जो भी हो लेकिन इससे यह साबित हो जायेंगा कि इस युग में भी संघ परिवार ने जन्मना राजसी तेज की व्यवस्था में अपना विश्वास बनाये रखा है।
कुछ ऐसा ही माजरा वंचितों को उनके संख्या बल के अनुरूप व्यवस्था में भागीदारी के सवाल पर सामने आ रहा है। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के पहले इस सवाल को उठाने की शुरूआत की जिसे पीडीए का नारा देकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने और बल प्रदान किया। इस बीच जब राजद और जदयू एक थे और भाजपा के खिलाफ गोलबंदी के अभियान की नीतीश अगुवाई कर रहे थे। तो इस मुद्दे की आग को और प्रज्ज्वलित करते हुए नीतीश ने बिहार में जातिगत सर्वे करा दिया जिससे भाजपा के सामने धर्म संकट गहरा गया। हालांकि लोकसभा चुनाव की नौबत आने तक नीतीश पाला बदलकर भाजपा के साथ चले गये थे फिर भी इस मुद्दे की तपिश मंद नहीं हुई। लोकसभा चुनाव में इसकी परिणति भाजपा के द्वारा अपनी दम पर पूर्ण बहुमत खो देने के बतौर सामने आयी।
जाहिर है कि भाजपा के सामने इसके बाद उक्त मुद्दे को निष्प्रभावी करना सबसे प्रमुख चुनौती बना हुआ है। इसके लिए हिन्दुत्व के उन्माद को सारी लोकलाज छोड़कर चरम सीमा पर ले जाने की रणनीति पर भाजपा अमल कर रही है और इसका असर भी देखने को मिल रहा है। हरियाणा में वंचितों को उनकी संख्या के मुताबिक भागीदारी देने के सवाल की धार इसी उन्माद के कारण भौथरी पड़ गई जिससे पासा पलट गया। समझा यह जा रहा था कि भाजपा को इस बार हरियाणा में रूसबा होकर सत्ता के सिंहासन से नीचे उतरना पड़ेगा लेकिन सारे अनुमानों को धता बताकर इस राज्य में भाजपा तीसरी बार फिर अपना राजतिलक कराने में सफल हुई। इस झटके ने विपक्ष में जबरदस्त हताशा का संचार किया है और जनमानस में भी उसकी साख को धक्का पहुंचा है।
इसी कड़ी में भाजपा और विपक्ष के बीच नया मोर्चा झारखंड व महाराष्ट्र में खुला है जहां के नतीजे क्या होंगे लोगों की निगाह इस पर जुड़ी हुई है। लेकिन इस आलेख का मकसद पक्ष विपक्ष के चुनावी कुरूक्षेत्र की स्थितियों का आंकलन करना नहीं है अपितु मुख्य विषय यह है कि सामाजिक न्याय के तकाजे को स्वीकार करने के नाम पर पक्ष विपक्ष चकमेबाजी का परिचय क्यों दे रहे हैं। देश और भारतीय समाज को आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक यथा स्थिति को तोड़कर नई शुरूआत करने की समय की मांग से देश के सारे राजनैतिक पक्ष मुंह क्यों चुराना चाहते हैं।
सन्निकट विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी एक बार फिर दलितों और पिछड़ों को उनकी संख्या के अनुपात में भागीदारी दिलाने की हुंकार भर रहे हैं दूसरी ओर इस मामले में सत्ता पक्ष अपनी जबावदेही स्वीकार करने की बजाय राहुल गांधी का कच्चा चिट्ठा खोलकर मुद्दे को हांशिये पर ठेलने में लगा है। सत्ता पक्ष और राहुल गांधी जैसे सरकारी जमीन हथियाने वाले गिरोह की दो बनावटी पार्टी बन गये हैं। राहुल गांधी सत्ता पक्ष को घेरने के लिए भागीदारी के प्रश्न पर चाहे जितनी क्रांतिकारिता दिखाते हों लेकिन अपनी पार्टी में प्रभुत्ववादी जातियों के नेताओं की जकड़ को खत्म करने के लिए कुछ ठोस कर पाने में उनकी असहायता उनके पूरे उपक्रम को ढ़कोसला साबित करके रख देती है। कांग्रेस का अतीत बताता है कि जब यह पार्टी सरकारों में रही तब उसने भी यथा स्थिति के ढ़ांचे को तोड़ने का बहुत ज्यादा साहस नहीं दिखाया और उसका यह रिकार्ड राहुल गांधी के गले की हड्डी साबित हो रहा है।
दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी है जिसका मस्तिष्क संघ परिवार माना जाता है और धारणा यह है कि संघ परिवार संस्कृति के नाम पर नये लेबिल में वर्ण व्यवस्था की बहाली के लिए कृत संकल्प रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी असल पिछड़े हैं या बने बनाये पिछड़े यह चर्चा का विषय हो सकता है पर संघ ने रणनीति के तहत उनकी पहचान को पिछड़े वर्ग से संबंधित करके प्रोजेक्ट किया। भारत की उपनिवेशवादी सामाजिक व्यवस्था में कई टर्म ऐसे हैं जो इसके रचनाकारों की जबरदस्त रणनीतिक सूझबूझ पर प्रकाश डालते हैं। आपाद धर्म ऐसा ही एक टर्म है जो सामाजिक उपनिवेश के कर्णधारों को सलाह देता है कि अगर कोई संकट अभैद्य बन जाये तो कुछ समय के लिए एक कदम पीछे हटने से हिचकना नहीं चाहिए।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जो तूफान उठा उसमें सामाजिक यथा स्थिति के तिनके-तिनके उड़ जाने के आसार बन गये तो परंपरावादियों के शिविर में घबराहट मच गई थी। इस उथल पुथल में चन्द्रशेखर जैसे राजनीतिक मारीच को सत्ता के केन्द्र में स्थापित करके परंपरावादियों ने तात्कालिक तौर पर एक संबल हासिल किया। बाद में नरसिंहाराव ने प्रति क्रांति का चक्र पूर्ण करने में बड़ा योगदान दिया। लेकिन बावजूद इसके बदलाव का सिलसिला थम नहीं पाया। वंचितों में से निकले मुलायम सिंह, लालू यादव, मायावती इत्यादि क्षत्रप राजनैतिक परिदृश्य पर हावी होते चले गये। इस दौरान संघ परिवार ने बहुत ही धैर्य से काम लिया और सधे ढ़ंग से कदम दर कदम आगे बढ़ने का ताना बाना बुना। इसमें वंचितों के बीच के किसी व्यक्ति को सिरमौर के रूप में स्वीकार करना वक्त का तकाजा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में इसी नौटंकी के तहत नरेन्द्र मोदी ने अपने को उछल-उछलकर चाय वाला और नीची जाति से आया हुआ बताने का अभियान छेड़ दिया। इस तरह इस छद्म से उन्होंने देश के बहुसंख्यक बहुजनों से तादत्म्य स्थापित कर लिया जो उनकी अभूतपूर्व सफलता का कारण बना। लेकिन जब सदियों से पड़े वंचितों को बराबरी पर लाने के प्रयास के मामले में उन्हें कसौटी पर कसने की बारी आयी तो उनकी कलई खुलने की नौबत आ गई। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के पहले से भारत सरकार चलाने वाले 90 सचिवों में पिछड़ी जाति के मात्र तीन सचिव होने का तथ्य सामने रखना शुरू किया तो होना तो यह चाहिए था कि मोदी जबाव देते कि यह गलती उनके पहले से होती आ रही है जिसमें वे अब सुधार करेंगे। इस मामले में जबाव उन्हें वंचितों को देना था पर उन्होंने प्रस्तुत ऐसे किया जैसे यह राहुल गांधी और उनकी आपस की खेती की लड़ाई हो जिसके तहत बजाय मुख्य प्रश्न का जबाव देने के उन्होंने राहुल गांधी की बखिया उधेड़ना शुरू करके स्थिति को दूसरा मोड़ दे दिया। आज भी यही हालत है। वंचितों को जबाव देने की जबावदेही निभाने की बजाय वे राहुल गांधी को जबाव दे रहे हैं। राहुल गांधी ने रायबरेली में दिशा की बैठक की अध्यक्षता के समय के अपने अनुभव को पत्रकारों को बताया कि उन्होंने वहां अधिकारियों से उनके नाम और सरनेम पूंछे तो पता चला कि लगभग सारे अधिकारी सवर्ण समाज के हैं। अगर राहुल गांधी का यह कहना गलत था तो राज्य सरकार को तत्काल इसका खंडन करना चाहिए था लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि अधिकांश जिलों में प्रमुख पदों पर सवर्ण जाति के अधिकारी ही विराजमान हैं। कोई जिला ऐसा नहीं है जहां पिछड़े और दलित समुदाय के अधिकारियों का बाहुल्य हो। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ संघ के बहुत चहेते हैं। क्या इसलिए कि उन्होंने मुसलमानों को काबू में रखने की सामथ्र्य दिखायी है या इसलिए कि वे पिछड़े और दलितों को वर्ण व्यवस्था की भावना के अनुरूप सेवक की भूमिका में समेट देने के ऐजेंडे को बड़ी कामयाबी से पूरा कर रहे हैं।
कांग्रेस ने क्या किया यह बताने की आज कोई प्रासंगिकता नहीं है अगर वर्तमान सत्ता इस दिशा में बेहतर नहीं कर रही। कांग्रेस यथास्थितिवाद की पोषक होने के बावजूद सामाजिक सुधार की कायल रही है जिसके गवाह अनेक तथ्य हैं। उत्तर प्रदेश की ही बात ले लें तो यहां कांग्रेस के समय हर जिले के लिए यह व्यवस्था की गई थी कि डीएम या एसपी में से कोई एक अनुसूचित जाति या जनजाति से होगा। वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में तो उत्तर प्रदेश शासन के प्रमुख पदों पर अनुसूचित जाति के तमाम अधिकारियों को पदासीन कर दिया गया था। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह ने दलितों को सभी क्षेत्रों में आरक्षण दिलाने का प्रावधान किया था। अर्जुन सिंह ने ही मानव संसाधन विकास मंत्री रहते हुए आईआईटी और आईआईएम में अनुसूचित जाति जनजाति और पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कराई थी। राजीव गांधी ने पंचायती राज संस्थाओं और नगर निकायों में दलितों, पिछड़ों को आरक्षण दिलाकर ग्रास रूट लेबिल पर समाज में उनके प्रति हीन भावना निर्मूल करने की सार्थक कोशिश की थी। भारतीय जनता पार्टी की सत्ता ने समाज की जड़ता पर प्रहार करने वाले ऐसे किसी भी कदम से दुराव किया है।
कहा जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी का इस्तेमाल पूरा हो गया है। उन्होंने वर्ण व्यवस्था के लिए भाव भूमि तैयार करके अपनी स्वामी भक्ति निभा दी है। इसलिए संघ परिवार भाजपा में नेतृत्व अब जन्मजात हकदारों को सुपुर्द करने का निश्चय बना चुका है। इसके तहत चर्चा है कि संजय जोशी को भाजपा का अध्यक्ष बनाने और प्रधानमंत्री पद पर नितिन गडकरी या योगी आदित्यनाथ में से किसी को सुशोभित करने का इरादा तय हो चुका है। वैसे सयानों का यह भी बताना है कि योगी को अभी कनिष्ठ समझा जा रहा है इसलिए फिलहाल नरेन्द्र मोदी के उत्तराधिकारी के तौर पर नितिन गडकरी के चयन के आसार ज्यादा हैं। बहरहाल जो भी हो लेकिन इससे यह साबित हो जायेंगा कि इस युग में भी संघ परिवार ने जन्मना राजसी तेज की व्यवस्था में अपना विश्वास बनाये रखा है।