यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर मीडिया के तमाम सर्वे के निष्कर्षों की हालत मुंडे मुंडे मतिरभिन्ने जैसी है, लेकिन सारे सर्वे एक बात में कॉमन हैं कि हर सर्वे प्रदेश में किसी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत न मिल पाने की भविष्यवाणी कर रहा है। सर्वे के माध्यम से चुनावी हवा के रुख का यह अंदाजा बसपा सुप्रीमो के हौसले डिगाने का कारण बन गया है जो पिछले साल के अंत तक यह मान बैठी थीं कि नये चुनाव में वे आसानी से प्रदेश की सत्ता में फिर से काबिज हो जाएंगी। लेकिन मायावती अब विपरीत परिणाम के अंदेशों से डरी हुई हैं जिसके मद्देनजर वे चुनाव बाद के समीकरण सेट करने में जुट पड़ी हैं। अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव के प्रति उपजी उनकी अचानक हमदर्दी उनका इसी दिशा में आजमाया गया एक पैंतरा है। बहुमत के टोटे को पूरा करने के लिए उन्होंने शिवपाल के उन बागी समर्थकों का समर्थन हथियाने की तैयारी शुरू कर दी है जो निर्दल हैसियत से जीतकर आ सकते हैं।
यूपी में विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद बहुत तेजी से सभी दलों के समीकरण बन-बिगड़ रहे हैं। सपा में अपनों के बीच ही जंग छिड़ी हुई है। मुलायम सिंह यादव कभी भाई के साथ खड़े हो जाते हैं तो कभी बेटे के साथ। अपनी पूरी राजनीतिक जिंदगी में मुलायम सिंह पर कभी इस कदर ऊहापोह हावी नही्ं रही। उनके असमंजस का आलम यह है कि उनके मानसिक संतुलन को लेकर किस्से शुरू हो गए हैं। दूसरी ओर उनके परिवार में चाचा-भतीजे के बीच कभी न पट सकने वाली खाई खुद चुकी है। एक-दूसरे को निपटाने के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।
सपा में गठबंधन की पहल शिवपाल ने की थी। जनता दल परिवार की संयुक्त रैली में जाने के अलावा व्यक्तिगत रूप से उन्होंने अजीत सिंह, शरद यादव से लेकर देवगौड़ा तक से मुलाकातें की थीं। वे सपा में बड़ी लाइन खींचकर हावी होने की बिसात बिछा रहे थे। शिवपाल को कभी यह गुमान था कि नेताजी के बाद यूपी के सीएम का ताज उन्हें मिलेगा लेकिन नेताजी ने अपने जिंदा रहते हुए अचानक बेटे अखिलेश का राजतिलक कर दिया और शिवपाल ठगे से रह गये। अपना हक मारे जाने की यह टीस शिवपाल के दिल से कभी नहीं निकल सकती इसलिए उनकी रणनीति थी कि पार्टी में अपना कद इतना विराट बना लें जिससे भतीजा सीएम बनकर भी उनके सामने बौना पड़ जाये। लेकिन भतीजा चाचा से कई कदम आगे निकल गया। शिवपाल की रणनीति को भांपकर अखिलेश ने ऐसे पांसे फेंके कि मुलायम सिंह ने गठबंधन के सारे प्रस्ताव निरस्त कर दिये और इसके बाद नये सिरे से गठबंधन की पींगें बढ़ाने का काम अखिलेश की ओर से शुरू हुआ। ताकि वह पार्टी के बाहर दोस्तों का दायरा बना सकें।
कांग्रेस से गठबंधन की उनकी कोशिश आसानी से परवान चढ़ने वाली नहीं थी लेकिन यह अखिलेश की चतुराई का कमाल है कि पार्टी में वही होता गया जो उन्होंने चाहा। कांग्रेस से गठबंधन के नफा-नुकसान को लेकर उनका अपने पिता मुलायम सिंह से मतभेद है। मुलायम सिंह कह चुके हैं कि कांग्रेस की हैसियत केवल 4 सीटों की थी। उससे गठबंधन करके अखिलेश ने अपन कमजोरी साबित की है। लेकिन हकीकत यह है कि इस गठबंधन के बाद मुसलमानों में मायावती की मजबूत पैठ चकनाचूर हो गई है और बहुतायत में मुसलमान गठबंधन की ओर सिमट आये हैं। मायावती इसी की वजह से बुरी तरह बौखलाई हुई हैं। कांग्रेस-सपा गठबंधन को वे भाजपा के इशारे पर खेला गया गेम बताकर मुसलमानों को रोकने के लिए जोर तो बहुत लगा रही हैं लेकिन इसका बहुत ज्यादा असर नहीं हो रहा। नतीजतन जो मायावती पिछले वर्ष तक यह मान बैठी थीं कि नये चुनाव में प्रदेश की सत्ता फिर पके आम की तरह उनकी झोली में आ गिरेगी, उन मायावती को यह अंदेशा सताने लगा है कि वे बहुमत से पीछे रह जाएंगी। ऐसी हालत में बहुमत का टोटा पूरा करने के लिए नये समीकरणों की ओर उनका ताकना लाजिमी है।
परिस्थितियों के इसी खेल ने मायावती को उन शिवपाल का सबसे बड़ा हमदर्द बना दिया है जो हमेशा गुंडी जैसे अपशब्दों से उन्हें नवाजते रहे थे। मायावती का मकसद साफ है कि शिवपाल उनसे प्रोत्साहन पाकर भड़के रहेंगे तो अखिलेश परेशानी में चुनावी रणनीति को लेकर गड़बड़ा उठेंगे। उनका दूसरा मकसद शिवपाल को उकसाकर इस बात के लिए तैयार करना है कि वे अपने उन समर्थकों को निर्दलीय तौर पर लड़ायें जिनके टिकट अखिलेश ने काट दिये हैं। ऐसे समर्थकों की संख्या लगभग 2 दर्जन है। इनमें से कई बागी हैसियत में भी जीतकर आ सकते हैं। मायावती को उम्मीद है कि जरूरत पड़ने पर नये रिश्ते के तहत ऐसे शिवपाल समर्थकों का समर्थन उन्हें आसानी से मिल जायेगा। शिवपाल का भी रिस्पॉन्स मायावती के मामले में पॉजीटिव है। अम्बिका चौधरी, नारद राय, ओमप्रकाश सिंह आदि दिग्गजों का बसपा में खिसक जाना उनके इशारे के बिना सम्भव नहीं हो सकता। हालांकि अखिलेश तो चाहते ही थे कि इन घाघ नेताओं से उन्हें छुटकारा मिले इसलिए इन नेताओं के बसपा में जाने से उन्हें परेशानी की बजाय राहत महसूस हो रही होगी।
उधर लखनऊ में रविदास मेहरोत्रा और अमेठी में गायत्री प्रसाद प्रजापति के टिकट कांग्रेस से गठबंधन के चलते लटक गये हैं। अखिलेश इस मामले में पार्टी का रुख साफ नहीं होने दे रहे। दूसरी ओर रविदास मेहरोत्रा यह तय किये बैठे हैं कि वे चुनाव जरूर लड़ेंगे पार्टी का सिम्बल न मिलने पर भी। ऐसे ही कुछ और लोग भी हैं।
यह दूसरी बात है कि इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के हर सर्वे में एक और बात कॉमन रूप से सामने आ रही है कि बसपा का स्थान चुनाव परिणामों में तीसरा होगा। मुख्य मुकाबला सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा गठबंधन के बीच रहेगा। कई चैनल तो सर्वे में मायावती को इतने पीछे दिखा रहे हैं कि कोई भी उन्हें समर्थन दे दे पर मुख्यमंत्री पद के लिए इस बार उनकी दाल गलने वाली नहीं है। इसलिए शिवपाल के प्रति उनका हमदर्दाना रुख कितना सार्थक साबित होगा इस पर प्रश्नचिन्ह लगना लाजिमी है।







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