क्या यह काम भारत में नहीं हो सकता

दो वर्ष पहले ही दिवंगत हुए सऊदी अरब के शाह किंग अब्दुल्ला के बेटे और एक समय शाही गद्दी के उत्तराधिकारी के बतौर पहचाने जाने वाले क्राउन प्रिंस के ओहदे पर रह चुके मितेब बिन अब्दुल्ला ने भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप को स्वीकार करते हुए सरकारी खजाने में 65 खरब डालर जमा कराने की शर्त मान ली है। लगभग ढाई सौ बड़े लोग सऊदी अरब में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं। वहां की भ्रष्टाचार निरोधक कमेटी के अध्यक्ष और वर्तमान क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन  सलमान की योजना कमोवेश सारे लोगों से उनकी अकूत गैर कानूनी आमदनी को सरकारी खजाने में जमा कराने की है। क्या भारत की सरकार इस प्रयोग को परखने के मूड में है।

रूढ़िवादी देश की छवि वाला तीन करोड़ की आबादी का यह देश सऊदी अरब इन दिनों बदलाव के बयार को लेकर चर्चाओं में है। वहाबियत कट्टरता के संवाहक इस देश में अगर यह बदलाव अंजाम तक पहुंचता है तो सारी दुनिया को इससे बहुत सुकून होने वाला है। न केवल सऊदी अरब ने हमास जैसे आतंकवादी संगठनों के खिलाफ गुपचुप इजराइल से हाथ मिला लिया है बल्कि नये शहजादे ने महिलाओं को ड्राइविंग का अधिकार देने जैसे कई कदम उठाये हैं जिनसे रूढ़िवादी जकड़न टूटेगी।

किंग अब्दुल्ला की मौत के बाद जब उनके सौतेले भाई सलमान बिन अब्दुल्ला अजीज ने सऊदी अरब की गद्दी संभाल ली और अपने छोटे बेटे सलमान को प्रिंस मितेब की जगह क्राउन प्रिंस घोषित किया तो लोग चौंक गये थे। प्रिंस सलमान की उम्र केवल 32 साल है लेकिन कहा गया था कि मोस्ट जूनियर होने के बावजूद सऊदी सर्वोच्च काउंसिल के लगभग सारे सदस्यों ने उनकी नियुक्ति का समर्थन और स्वागत किया था। कम उम्र की वजह से सलमान को अनुभवहीनता में कई फैसलों के कारण अपने देश को झटका पहुंचाने का कारण माना गया, जिनमें तेल से होने वाली आमदनी दो तिहाई घट जाना सबसे जोरदार झटका माना जा सकता है। लेकिन फिर भी उनकी सोच की वजह से सऊदिया की युवा आबादी में उन्हें लेकर जबर्दस्त उत्साह है।

उनकी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को भी प्रतिद्वंद्वियों का सफाया करने की साजिश माना गया था ताकि गद्दी संभालते-संभालते वे देश की निर्विवाद सर्वोच्च शक्ति बन सकें। एक वर्ग अभी भी इस मामले में यही विश्वास करता है लेकिन 65 वर्षीय पूर्व प्रिंस क्राउन मितेब को भारी जुर्माना जमा कराकर क्षमा करने की उदारता उन्होंने दिखाई है। जो उनकी भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाई को महज दुर्भावना प्रेरित षड्यंत्र के आरोप से बरी करती है।

दरअसल परिवर्तनकामी सत्ता चाहे उसका रुझान दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, शक्ति के केंद्रीकरण के लिए अभिशप्त होती है। यह इसकी नियति है। इस मामले में केंद्रित सत्ता के परिणाम बहुधा सकारात्मक आते हैं। लेकिन जब कोई सत्ता परिवर्तनों के लिए अनिच्छुक हो, विसंगतियों और विरोधाभासों को सुधारने की बजाय य़थास्थिति बनाए रखने के लिए उन्हें मैनेज करना चाहती हो और इसके लिए सत्ता एक व्यक्ति या संस्था में केंद्रित करना चाहे तो उसका स्वरूप जनविरोधी और फासिस्ट हो जाता है। क्या भारत में यह नहीं हो रहा है (इंदिरा गांधी की सर्वसत्तावादी नीति और देश पर आपातकाल थोपने की एकतरफा आलोचना का संदर्भ मौजूदा माहौल में इस लिहाज से चर्चा के लिए बहुत मौजूं है)।

हिंदुत्व भी बदलाव के लिए वैकल्पिक मॉडल हो सकता है, जो कि भोगवाद की अतिशयता का विरोधी हो और सदाचार के पालन के लिए कट्टर। लेकिन मौजूदा सरकार क्या रामराज्य को हिंदुत्व की इस वास्तविक कल्पना में साकार करने में कोई रुचि रखती है। असलियत यह है कि पश्चिम का सांस्कृतिक संक्रमण इस सरकार में और भी ज्यादा  बढ़ा है जिससे हिंदुत्व की पहचान व्यवहारिक स्तर पर पूरी तरह मिट जाने का खतरा पैदा हो गया है। अगर कुछ कर्मकांडों को बढ़ावा देने से आप समझते हैं कि क्या आप हिंदुत्व की रक्षा कर रहे हैं तो इससे बड़ा फरेब दूसरा कोई नहीं हो सकता। तब भारत के सबसे बड़े शत्रु चीन का आभार भी हमें मानना होगा जिसने हमारे त्योहारों में अपने बाजार की पैठ के लिए गुंजाइश ढूंढकर नई उमंग पैदा कर दी है।

भ्रष्टाचार एक समय जबकि सारी धन-दौलत चंद सांपों के पास केंद्रित थी, जो उसे जमीन के अंदर गाड़कर उस पर कुंडली मारकर बैठे हुए थे और देश की आर्थिक प्रगति के इंजन को जाम कर रहे थे। तब भ्रष्टाचार ने इस धन को बाहर निकालकर उसे गांव-गली तक फैलाने और बाजार के  सर्कुलेशन को तेज करने में भूमिका अदा की। लेकिन आज भ्रष्टाचार ने व्यवस्था के वजूद के लिए खतरा पैदा कर दिया है। सरकार इसके जंगलराज की समाप्ति के नाम पर सिर्फ ढकोसला कर रही है। लोगों का कितना भी जायज काम बिना पैसे के नहीं होता और कोई भी नाजायज काम ऐसा नहीं है जो पैसा देकर न कराया जा सके। क्या सरकार के रहते हुए ऐसी मनमानी उसके अस्तित्व पर लानत की तरह नहीं है। दूसरी ओर सरकार हर सेवा को महंगी करती जा रही है जबकि लोगों को वाजिब मेहनताना दिलाने का कोई प्रयास नहीं कर रही। पत्रकारों के वेतन आयोग की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बावजूद सरकार लागू नहीं करा रही क्योंकि मीडिया मुगलों से लेकर एकाधिकारवादी उद्योगपतियों तक के सामने उसने अपनी हैसियत गरीब की जोरू से भी ज्यादा बदतर बना ली है।

भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के अमूर्त हवालों से रोज-रोज लोगों को बोर करने की बजाय प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी सऊदी अरब जैसा तरीका क्या नहीं अपना सकते। यहां तो शीर्ष लेकर जिले तक में नाजायज ढंग से खरबपति बने लोगों की जमात की जमात है। अगर इन पर नकेल डालकर इनसे काली कमाई का बड़ा हिस्सा सरकार अपने खजाने में जमा करा सके तो क्या बिजली, पानी, रसोई गैस, रेल किराया आदि को बढ़ाने की जरूरत उसे पड़ेगी। पर जो असल मगरमच्छ हैं सरकार की यारी तो उन्हीं से है।

मूडीज और अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप की बेटी से खरीदे हुए प्रशंसापत्र लेकर खोखले होते जा रहे देश की सच्चाई बदलना संभव नहीं है। अर्थव्यवस्था तब दौड़ती है जब बाजार के लिए ग्राहकों का रेला हो। पुराने समय की अर्थव्यवस्था के कारण बाजार से ग्राहक गायब हो गये थे। क्योंकि सारा सोना उन कुछ  लोगों के पास डंप हो गया था जो कितना भी करने के बावजूद उसके सार्थक इस्तेमाल की एक सीमा से ज्यादा सोच नहीं पा रहे थे। मोदीराज में यह इतिहास फिर अपने को दोहरा रहा है। अडानी, अंबानी जैसे दैत्यों के यहां पूरी दौलत सिमटती जा रही है। खेती बर्बाद, छोटे व्यापार बर्बाद, जरूरी खर्चों से भी कम आय होने के कारण ग्राहकों के विलुप्तीकरण से नये उद्यमों में ठहराव, यह है देश का सच। जिसमें बाजीगरी करके ही जीड़ीपी को बढ़ते दिखाया जा सकता है वैसे नहीं। उस पर तुर्रा यह है कि अडानी और अंबानी की अपनी जरूरत की एक पैसे की खरीददारी इस देश में नहीं होती। वे मकान बनवाने तक से लेकर चड्ढी-बनियान खरीदने तक में विदेश का मुंह देखते हैं। इस यथास्थिति की सलामती की दुआ करने वाला कोई अपने को देशभक्त कहे तो उससे बड़ा मायावी तो मारीच, मेघनाद भी नहीं हो सकता।

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