न्यायपालिका भी जनमत के रुख से प्रभावित और प्रेरित होती है। आरक्षण को मौलिक अधिकार न मानने की घोषणा करके उच्चतम न्यायालय ने इसकी बानगी दिखाई है। केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान का इस पर जो बयान सामने आया है वह कितना ही नरम क्यों न हो लेकिन दलित नेताओं की बेचैनी दर्शाता है। यह दूसरी बात है कि इस बीच देश की नीतियों में इतना पानी बह चुका है कि मंजर एकदम बदल गया है। दलित नेताओं में अपने समुदाय के अधिकार बचाने के लिए प्रतिकार की कोई नैतिक शक्ति नही बची है। जाहिर है कि इन स्थितियों में उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था से जो बात निकली है उसके दूर तलक जाने के आसार प्रेक्षकों को दिखाई दे रहे हैं।
आरक्षण की पहल भारत की नही
ऐतिहासिक, सामाजिक कारणों से हाशिए पर धकेले गये वर्गों को व्यवस्था में भागीदारी के लिए विशेष अवसर देने के सिद्धांत की पहल भारत से नही हुई है। हालांकि आरक्षण के विरोध में दुर्भावना की पराकाष्ठा के चलते सवर्णों की नई पीढ़ी यही समझती है। सोशल मीडिया पर एक पोस्ट देखी थी कि इतने देशों में ट्रिपिल तलाक नही है यह तो बताया जा रहा है लेकिन यह नही बताया जा रहा कि भारत छोड़कर दुनियां के किसी देश में आरक्षण जैसी व्यवस्था लागू नही है। जबकि यह धारणा पूरी तरह गलत है। अमेरिका और कनाडा जैसे विकसित देशों में भी नस्ल भेद के शिकार लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू है जो बहुआयामी है।
संगठित हिंदुत्व को दरका सकता है घृणा का अभियान
बिडंबना यह है कि एक ओर इतिहास का बदला लेने के लिए हाल के दौर में उग्र हिंदुत्व की चेतना को धार दी गई है और इस बिना पर मोदी सरकार के लिए अस्मिता की राजनीति भूलकर सारी जातियां एक सूत्र में गुंथ चुकीं हैं। दूसरी ओर वर्ण व्यवस्था जनित दुर्भावना भी इस बीच प्रचंड हुई है। जिससे आरक्षण के दायरे में आने वाली जातियों को अपमानित करने के लिए नये-नये नारे और रूपक सोशल मीडिया पर गढ़े जा रहे हैं जो हिंदुत्व को संगठित रखने के परिप्रेक्ष्य में आत्मघाती सिद्ध हो सकते हैं।
सामाजिक सुधारों के लिए आंदोलन के अभाव में स्थितियां हो रहीं अराजक
यह सही है कि आरक्षण की व्यवस्था सीमित अवधि के लिए लागू की गई थी इसलिए इसके अनंतकालीन विस्तार को लेकर बहस का औचित्य है। यह काम सामाजिक सौहाद्र को क्षति पहुंचाये बिना भी किया जा सकता है। दरअसल जातिवाद एक बड़ी कुरीति है और इसके निवारण के लिए राजनीति के समानांतर सामाजिक सुधारों के आंदोलन की भी जरूरत थी। डॉक्टर लोहिया जैसे मनीषी राजनैतिज्ञों ने अपने समय में इसके लिए सार्थक प्रयास किये। उन्होंने नारा दिया था कि पिछड़ों ने बांधी गांठ, सौ में पावे साठ। वे कहते थे कि समाज में पद, शिक्षा, संपत्ति आदि को लेकर जो भेदभाव हुआ उसका प्राश्चित करने के लिए सवर्ण कई पीढ़ियों तक सिर्फ कार्यकर्ता बनकर कार्य करना सीखें जबकि हर क्षेत्र में नेतृत्व वंचितों को सौपें। उन्होंने जाति तोड़ो की मुहिम चलाई थी लेकिन उनका नैतिक प्रभामंडल इतना मजबूत था कि इससे समाज में टकराव का मोर्चा खुलने की बजाय हृदय परिवर्तन की लहर चल पड़ी। मधु लिमये, राज नारायण जैसी हस्तियों के साथ केंद्र से जिलों तक और गांव-गांव तक ब्राहमण व अपने स्तर के अन्य सवर्ण धुरंधर इसमें हाथ बंटाने को उनके साथ जुट पड़े।
हृदय परिवर्तन का माहौल खत्म करने का जिम्मेदार कौन
लेकिन जाति व्यवस्था के कारण हेय दृष्टि का शिकार रहे समुदायों में से लोहिया की प्रेरणा से तैयार हुआ नेतृत्व जब सत्ता में पहुंचा तो जतिवाद मिटाने की बजाय उसने जाति दर्प का नया इतिहास रच डाला। सामाजिक सुधार की प्रक्रिया को इससे बेहद धक्का पहुंचा। आरक्षण का दुरुपयोग करके उन्होंने हृदय परिवर्तन का माहौल खत्म कर दिया।
लोगों के दिलों में बर्बर जातिवाद ने उठाया फन
इसके विषबीज आज इतने फल-फूल चुके है कि लोगों में मानवीय और राष्ट्रीय भावनाओं के लिए कोई स्थान नही बचा है क्योंकि बर्बर जातिवाद उनके अंदर फन उठा चुका है। दूसरों को जन्मजात दोयम साबित करने के लिए अपने जाति गौरव के बेहूदा प्रदर्शन की होड़ लग गई है। अन्य पार्टियों में सत्ता पर सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था नही है लेकिन सौभाग्य से भाजपा में संघ इसके लिए बतौर अभिभावक प्रस्तुत है। पर हस्तक्षेप का तकाजा सामने आने पर संघ वीतराग की मुद्रा धारण कर लेता है। वह व्यक्ति और समाज के निर्माण को अपना कर्तव्य बताता है। लेकिन क्या कुरीतियों को लेकर कठोर हुए बिना इसका कोई अर्थ हो सकता है। भारतीय संस्कृति में तब महापुरुष अवतारी के रूप में मान्य हुए जब उन्होंने उच्छृंखलता में संलग्न लोगों का दमन किया। क्या संघ को उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत महसूस नही होती।
आरक्षण के दायरे की जातियों की फूट ने बढ़ायी जटिलता
बहरहाल मुददा यह है कि आरक्षण के प्रावधान को कब तक जारी रखा जायेगा। अनुसूचित जाति, जनजाति के आरक्षण के विरुद्ध उनकी मैरिट की कोई न्यूनतम सीमा तय न होने का आधार बताया जाता है, दूसरी ओर पिछड़ों का आरक्षण है जिसमें बहुत ज्यादा जातियां शामिल हैं पर इसका लाभ कुछ ही जातियों ने हस्तगत कर रखा है। इसलिए बहुतायत में पिछड़ी जातियों में इसे बचाये रखने को लेकर कोई दिलचस्पी नही है। भाजपा ने पहले पिछड़ों के आरक्षण में अलग-अलग श्रेणिया बनाने की बात कही थी तांकि सारी जातियों को व्यवस्था में भागीदारी देने का उददेश्य पूरा हो सके। पर बाद में कपटपूर्ण मंशा के चलते उसने यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिया। आरक्षण से लाभान्वित होने वाली जातियों में आपस में जो दुराव है उसके विरोधियों को इसका पूरा लाभ मिल रहा है।
मोदी के सामने साष्टांग अपने नेताओं के कारण दलित हो रहे असमंजस का शिकार
दलितों के नेता व्यक्तिगत कारणों से जिस तरह से मोदी सरकार के सामने सरेंडर का रुख अख्तियार किये हुए हैं उसकी वजह से दलित समाज असमंजस की गिरफ्त में जकड़ चुका है। अपने नेताओं का रुख देखकर आम दलित किंकर्तव्यविमूढ़ हालत में हैं इसलिए अपने अधिकारों को बचाने के लिए उसमें संघर्ष करने का माददा चुक गया है। उसके सामने अस्तित्व रक्षा का प्रश्न इन स्थितियों में गहराता जा रहा है। ऐसे में दलितों को नैतिक सामर्थ्य जुटाने की कोशिश करनी होगी तांकि आरक्षण पर निर्भरता भूलकर भी वह अपने सबलीकरण की राह बना सकें। बाबा साहब अंबेडकर जब तक देश में पढ़े वे यहां के सामाजिक माहौल के कारण औसत से भी कमजोर दर्जे के स्टूडेंट रहे थे। पर जब उन्हें अमेरिका और इंग्लेंड में उन्मुक्त माहौल मिला तो उनका जैसे कुंडलिनी जागरण हो गया और कोलंबिया विश्वविद्यालय के जो कि दुनियां की सबसे बड़ी यूनीवर्सिटी है वे अभी तक के सर्वाधिक मेधावी छात्र के रूप में इतिहास में दर्ज हुए। उनसे प्रेरणा लेकर सवर्णों की प्रतिस्पर्धा की चुनौती दलितों को स्वीकार करना चाहिए। वे ठान लें तो जनरल मैरिट में भी टाप पर स्थान बना सकते हैं और अपने घनघोर अपमान के इस माहौल में दुराग्रहियों को जबाव देने के लिए उनको ऐसा संकल्प लेना ही चाहिए।
दलितों को सार्वभौम बनकर बढ़ाना चाहिए अपना कद
दूसरी ओर राजनीति में उन्हें सार्वभौम बनना पड़ेगा। एकांगी राजनीति से उनमें आत्मविश्वास की कमी झलकती है जिसके चलते वे व्यापक समाज के नेतृत्व के प्रयास में सफल नही हो पा रहे हैं। जातिवाद को लेकर भी उनको सतर्कता अपनाने की जरूरत है। अगर वे अपने प्रतिक्रियावादी रुख को जारी रखेगें तो उनका नुकसान बढ़ता जायेगा। ऐसा करके वे उन शक्तियों के हाथों में जाने-अनजाने में खेल जाते हैं जो उनके दमन और शोषण के लिए जिम्मेदार हैं। लब्बोलुआब यह है कि दलित समाज को वर्तमान की चुनौतीपूर्ण स्थितियों में अपनी भूमिका नये सिरे से निर्धारित करनी होगी।






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