
इस समय के महत्वपूर्ण कवि महेश कटारे ’सुगम’ हैं जो इन दिनों केवल और केवल बुंदेली ग़ज़लें लिख रहे हैं । वह कबीर की परम्परा के कठोरता से फटकार लगाने वाले रचनाकार हैं आगे हम देखते हैं तो निराला, बाबा नागार्जुन का फक्कड़पन उनमें देखने को मिलता है । अपनी बात को स्वर देने में वह कहीं चूकते नहीं हैं न कहीं हिचकिचाते हैं । बस केवल सही बात कहने की एक पुरजोर कोशिश और छटपटाहट उनमें हरपल मौजूद रहती है । ‘‘तुम कुछ ऐसा कहो’’-नवगीत संग्रह से ‘‘भूख से लड़ती हुई /प्यास के सोपान पर चढ़ती हुई/ जिंदगी की राह पर गतिमान-सी / हर सांस की हालत बुरी है…’’ ‘‘है दशहरा एक चांटा/ और दीवाली एक गाली…’’वही धनवान अब तो में वे कहते हैं –‘‘ जो चूसे आदमी का खून/ हँस-हँस कर/ वहीं इनसान अब तो …गांव कस्बों से शहर तक/ रात के अंतिम प्रहर तक/भूख की बैसाखियों पर / प्राण हर दम ही घिसटते…’’ समकालीन रचनाकारों में उनका अंदाज़-ए-बयां सबसे अनूठा व अनुकरणीय है ।
हम और कटारे जी एक -दूसरे से बहुत परिचित ही नहीं हैं, हमारी तीन दशकों से पारिवारिकता भी है, बल्कि कवि महेंद्रसिंह सहित हमारी एक मित्र तिकड़ी है जिसमें हम लोग बहुत-कुछ साझा करते रहते हैं । वे कविता को जनसामान्य की भाषा के सापेक्ष लाते हैं जो आम व खास पाठक के मन को न केवल छूती है बल्कि, चिंतन-मनन के स्तर पर उद्वेलित भी करती है । उनमें कोई शाब्दिक गुंजलक व दुरूहता नहीं है यही उन्हें विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती है । महेश अपनी गज़लों में रोज़-ब-रोज़ समाज के इर्द-गिर्द व्याप्त कष्ट व दुशवारियों को निरूपित करते हैं । उनकी भाषा में शब्दों का साहसिक चुनाव है । वे आम जन के करीब हैं, उनका समूचा लेखन आम जन की आवाज़ है । उनकी रचनाएं पाठकों को पुनर्पाठ हेतु विवश करतीं हैं वास्तव में वे जन कवि हैं । वे सचमुच के वाक्यातों को नित-नए कथ्य, शिल्प व बिम्ब के साथ संघर्षों के मचान पर रचना बुनते हैं ।
बेबाकीपन के साथ ग़ज़ल उनके अंदर हरपल उधेड़बुन करती रहती है । इस बात को कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि इन दिनों वे गज़ल ही खाते हैं, गज़ल ही पीते हैं, गज़ल ही ओढ़ते-बिछाते और थक जाने पर गज़ल बिछाकर उसी पर सो जाते हैं । इस अतिश्योक्ति से भले किसी को रश्क होता हो फिर भी सच कह ही देना चाहिए कि पूरे हिंदुस्तान में उनके जैसा दूसरा समकालीन गज़ल-गो अभी खोजना पड़ेगा । बावजूद इतने सशक्त, पैने, नुकीले और धारदार लेखन के उनमें कोई लिप्सा, घमण्ड और किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं है । वे बेधड़क खुली सड़क पर अपनी तरतीब से खुलकर बात कहने वाले और दो यार मिल जाएं तो इतना उन्मुक्त होकर हंसने वाले व्यक्ति हैं कि पड़ोसियों की तंद्रा भंग हुए बिना नहीं रह सकती । निश्चित रूप से यदि सभी रचनाकार इतनी तीक्ष्ण दृष्टि से समय के सच का आंकलन करने लग जाएं तो तख्तेताज़ में कंपन अवश्य पैदा हो जाएगी । ‘‘…सुगम सियासी नक्कालों से सावधान रहना सीखो, इनके जुमलों और जुल्मों से आगे बढ़कर जूझो अब’’
सुगम पक्के रंगरेज़ हैं, इस रंग से लेकर उस रंग तक की गज़ल कहने में समर्थ हैं ‘‘पलकन में हम धना दुका लयें, बुरई नजर सें तुमें बचा लयें । लरम लुचई की घॉंइ लगत हौ, कट्टू तुमें बना कें खा लयें । कैउ दिनन के बाद मिली हौ,लग रऔ तुमें गरे चेंटा लयें ।…’’ वे उम्र जेब में पुडि़या बना कर रखते हैं । सारे रस और रंग उनमें हरदम पूरी तरह उपस्थित रहते हैं उनकी उम्र ज़्यादा है भी नहीं और जो है भी उसका प्रभाव तनिक भी अपने पर नहीं छाने देते । उन्हें न तो किसी तुगलक के फरमान का डर है न ही किसी बादशाह के रहमोकरम से कुछ पाने का कोई अरमान उनके मन में है । केवल ग़रीब,सर्वहारा निम्न/मध्यम वर्गीय, वंचित, शोषितों के पक्ष में लिखते जाने का एक ज़ुनून भर है । उन्होंने अद्भुत भाषिक संवेदना के साथ समकालीन यथार्थ को अपनी कहानी, उपन्यास, नवगीत, कविता, गज़लों में परत-दर-परत अन्वेषित कर उकेरा है । अपनी गज़लों में वह रोज़-ब-रोज़ नई-नई अर्थछबियों के साथ तनकर खड़े होते हैं शायद यही वजह है कि सुगम जी के अब तक 2 कहानी संग्रह, 1उपन्यास,1नवगीत संग्रह, 1 बालगीत संग्रह 1 कविता संग्रह, 1 श्रृंगारिक बुंदेली ग़ज़ल संग्रह, 12 हिंदी ग़ज़ल संग्रह, 7 बुंदेली ग़ज़ल संग्रह और समग्र रचना संसार पर एक समीक्षा पुस्तक इस तरह से 27 किताबें प्रकाशित हो चुकीं हैं । बिरले ही रचनाकार ऐसे होंगे जिनकी एक साथ आधा दर्जन किताबें छपकर आती होंगी । उन पर पत्रिकाओं के एकाग्र भी प्रकाशित हो रहे हैं । देश भर से ढेरों पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं इसलिए उन्हें खुद किसी पुरस्कार/सम्मान प्राप्ति की कोई दरकार नहीं है भलमनसाहत का आलम ये है कि जो दे दे सो तेरा भला, न दे तो तेरा ज़्यादा भला । इस आलेख और अपने उल्लेख के लिए उनकी तरफ से कोई आग्रह नहीं है क्योंकि, आने वाला समय खुद लिखेगा उन्हें अपनी इबारतों में ।
वह किसी परिचय के मोहताज कदापि नहीं हैं, प्रतिदिन 4-5 गज़लें लिख कर फेस बुक पर पोस्ट करते हैं उन्हें पढ़ने वाले हजारों दोस्त, परिचित, प्रशंसक हैं । इसी क्रम में रोज़ की भांति आज सुबह फेसबुक पर उनकी एक गज़ल पढ़कर मेरे मन में जो खदबदाहट हुई उसे मैं हर्फों में बयां करने को आतुर हो गया हॅू चूंकि आलोच्य कवि में भी अपनी कविता/ गज़ल कहने-सुनाने के लिए इतनी ही आतुरता समायी रहती है । ‘सुगम’ बुंदेली के सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरे हैं बुंदेली को समृद्ध करने और प्रकाशवान बनाने का हर संभव प्रयास उनके द्वारा किया जा रहा है । बुंदेली बोली का प्रयोग इधर मण्डी बामोरा से लेकर बीना ललितपुर, झांसी,उरई,जालौन तक और इधर सागर से छतरपुर, टीकमकढ़ आदि क्षेत्रों की जुबान पर इसका व्यापक फैलाव है । बुंदेली को राष्ट्रीय नक्शे पर उभारने का काम बड़ी तन्मयता से कटारे जी कर रहे हैं । उनमें बुंदेली का संस्कार व इसकी सीख अपने जन्म स्थान ग्राम पिपरई जिला ललितपुर (उ.प्र.) से मिली जो उनके साथ उनकी कर्मभूमि कुरवाई (म.प्र.) से1998 में प्रथम बुंदेली गज़ल संग्रह ‘गांव के गेंवड़े’ से निनाद करते हुए बीना (म.प्र.) से उसके सतत् प्रवाह की मूसल धाराएं न केवल बुंदेलखण्ड वरन् समूचे देश में कल-कल कर रहीं हैं । इसी संग्रह की एक गज़ल का मतला है ‘‘भइया जब सें थानो खुल गऔ ऐइ गांव के ग्योंड़े, सुनौ कुजानें को को लुट गऔ ऐइ गांव के ग्योंड़े । …’’ पंडत की बाखर में गज़ल का मतला गौर फरमाइए – ‘‘ जब सें बहू ब्या के आई पण्डत की बाखर में, भैया खूबई मची लड़ाई पण्डत की बाखर में । और इसका मक़्ता देखिए – ‘‘सुगम’’ बात जे सब जानत हैं मरी कै मारी गई है, पइसा सें सब बात दवाई पण्डत की बाखर में ।’’
मूलत: फारसी से चली ग़ज़ल इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक की समाप्ति तक उर्दू सहित प्राय: सभी भारतीय भाषाओं में पूर्णतया रच-बस सी गई है । उर्दू व हिंदी की नज़दीकियां होने से हिंदी भाषा में इसका चलन बहुत पहले से हो चुका है । सुगम उर्दू में भी अच्छी दख़ल रखते हैं और हिंदी में भी उतनी ही संजीदगी से ग़ज़ल कहते हैं जितनी शिद्दत से वे बुंदेली में कहते हैं । ‘‘… तमाम संक्रमण फैला के रख दिए खुद ने, हकीम बन के अब उनका निदान देता है …’’ बुंदेली में वे चलन से बाहर सुप्तावस्था में पड़े हुए शब्दों को खोजकर प्रयोग में लाने का कार्य कर रहे हैं जिससे बोली को समृद्धता प्राप्त हो रही है, शब्द पुन: जागकर लोगों की जुबान पर चढ़ रहे हैं । उनमें एक खोजी, जिज्ञासु एवं बागीपन की झलक देखने को मिलती है चूंकि, वे भिण्ड की धरती पर भी रहे हैं । वे कथ्य व शिल्प दोनों स्तरों पर अनूठे कवि हैं, जो अपने नए मुहावरे गढ़ कर शब्दों को जीवंतता प्रदान करते हैं । वे आमजन के तनाव, उत्पीड़न, उसके अभाव व रोजमर्रा के दुख-दर्दों का मुहावरा भी गढ़ते हैं । वे राजनीति के परदे की दैनंदिन कुचालों को बेलाग-लपेट के तार-तार करते हैं । ‘‘…हाहाकार मची है सबमें दु:ख के अँध्यारे की, कै रऔ सुख को उज्यारौ है जौ किसान कौ मौड़ा । कैत फिरत है हम किसान की जानत हैं तकलीफें, मौ सें बस कैवे वारौ है जौ किसान कौ मौड़ा ।…’’
वे प्रगतिशील हैं, जनवादी हैं, अनाडम्बरवादी हैं और इस सबके पहले वे एक बहुत सहज, सरल आम इंसान हैं । उनमें कोई दुराव-छिपाव, लाग-लपेट नहीं है वैसे ही बिल्कुल निखन्नी, पथरीली, ऊबड़-खाबड़, पगडंडियों की गज़लें वे कहते हैं और कविताएं भी कि-‘‘टी.व्ही चैनल की दुकान /जिसमें होता सत्ता गान/ इसका एंकर बहुत महान/ चार चूतियों को बैठा कर बक-बक करता है/ सत्ता का प्रतिरोध करो तो /आक्रामक हो पड़ता है …’’ भारत की आत्मा गांव में बसती है लगभग 69 प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में रहती है इन गांवों के पिछड़ेपन और अभावों का धरातल अभी कमोवेश वैसा ही ज़र्जर है जैसा कि आजादी के पहले था । गरीब, खेतिहर मज़दूर, छोटे किसानों के विकास की बातें केवल आंकड़ों में दिखाई देती हैं । हकीक़त तो अब भी रोंगटे खड़े करने वाली है । मीलों दूर तक न पीने का पानी है, न ही व्यवस्थित पाठशालाएं, न बिजली न सड़कें । स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर अवस्था किसी से छिपी नहीं है । ‘‘…कुआ सूक गए पानी नईंयॉं, ढोरन तक खों सानी नईंयॉं, काम थथोलत सालें लग गईं, हातन में जंगालें लग गईं…’’ वातानुकूलित मोटर गाडि़यों में बैठकर गांव की रोती-बिलखती आत्मा के दर्शन नहीं होते । इस ग्राम्य जीवन की व्यथा कथा को तीखे शब्दों में कटारे जी देश-दुनिया के समक्ष वही चिर-परिचित छेवले की दोना-पातलों में पूरी सिद्दत से परोसने का काम कर रहे हैं । ‘‘…खौफ तुम्हारा अपने आगे बौना है, बने रहो कुख्यात हमारे ठेंगे पर । कलमकार तो प्रतिपक्षी ही होता है, सत्ता का प्रतिघात हमारे ठेंगे पर ।…’’ कटारे जी सुगमता से हक़ीकत को आत्मसात कर पा रहे हैं इसलिए उनमें आक्रोश और विद्रोह का स्वर मुखर होकर निकलता है शायद यही उनकी गज़लों की ताकत भी है ‘‘कोई समझे या न समझे मेरा किरदार जिंदा है, मुसलसल ज़ुल्म के चलते हुए प्रतिकार जिंदा है ।’’ वे मेहनतकश जनता की आकांक्षा एवं संघर्ष को अपने शब्दों में पिरोने का काम करते हैं । राजनैतिक परिदृश्य का ओछापन, चालबाजियों, वादों की परतें उधेड़ने की पहल व यथार्थ की अभिव्यक्ति है ‘‘सर पर बोझ, पांव में छाले, चले जा रहे क्रूर सफ़र पर’’ दरअसल ‘सुगम’ का लेखन समय की क्रूरता के खिलाफ एक आंदोलन है जिसे ‘एक दिन’ नवगीत में वे फलीभूत होते देखने के हामी हैं ‘‘…सिर्फ क्रांति के/ शंखनाद की देर है/ तब जन गण मन/ गान करूँगा एक दिन…/जब मानव को मानव/ गले लगायेगा/स्वार्थों में सिद्धांत/ नहीं बिक पाएगा /नैतिक पतन /रोकने भर की देर है /तब जन को/भगवान कहॅूगा एक दिन…’’
-अरविंद मिश्र, कवि,व्यंग्यकार भोपाल, मो. 9340795747






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