संघ के शताब्दी वर्ष समारोह के क्रम में नई दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय व्याख्यान सत्र जारी हैं। इसका उददेश्य संघ की विचारधारा और सामाजिक योगदान की जानकारी लोगों तक पहुंचाना है। इसे केवल संघ और भाजपा के नेताओं तक सीमित नही रखा गया है। संघ को व्यापक रूप से सांस्कृतिक संगठन के रूप में प्रदर्शित करने के लिए इस व्याख्यान माला में कांग्रेस और अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं को भी आमंत्रित किया गया है। सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि आमंत्रित किये गये हैं। साथ-साथ श्रीलंका, वियतनाम, लाओस, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया, चीन, रूस, ओमान, इजराइल, नार्वे, डेनमार्क, सर्बिया, जर्मनी, नीदरलैण्ड, फ्रांस, स्विटजरलैण्ड, यूके, आयरलैण्ड, जमैका आदि देशो के दूतावासों और उच्चायोग के प्रतिनिधि भी आमंत्रित किये गये हैं।
26 अगस्त को हुए प्रथम सत्र में सर संघ चालक डा. मोहन भागवत द्वारा दिया गया व्याख्यान अभी तक उपलब्ध हुआ है। आज 27 अगस्त को दूसरा सत्र सम्पन्न होने जा रहा है लेकिन उसका ब्यौरा उपलब्ध नही है। पहले सत्र में मोहन भागवत ने अपने व्याख्यान में कई उल्लेखनीय कथन किये। इनमें सबसे पहले जिसका जिक्र किया जाना चाहिए उस बात का जिसमें उन्होंने बताया कि संघ का कोई छिपा हुआ एजेंडा नही है। मोहन भागवत अपेक्षाकृत प्रगतिशील सर संघ चालक माने जाते हैं। वह तार्किक प्रस्तुतिकरण के क्रम में कई बार संघ की अभी तक की लाइन से परे जाने में कोई संकोच नही करते। परंपरागत मान्यताओं में निहित दुराग्रहों का अंध समर्थन करना उनके स्वभाव में नही है। वे विवेकशीलता का परिचय देने के क्रम में समाज को वांछनीय परिवर्तनों की ओर अग्रसर करते दिखते हैं। ये उनके प्रशंसनीय गुण कहे जाने चाहिए। लेकिन संघ के विचारों और व्यवहारिक कार्यप्रणाली में समय-समय पर जो विरोधाभास उभरता रहा है मोहन भागवत भी उसमें सुधार नही कर पाये हैं। इस मामले में समझौतावादी चरित्र का परिचय देने के कारण वे कथनी और करनी में अंतर के आरोपों से घिरे नजर आते हैं।
पहले दिन के व्याख्यान में उन्होंने जो यह स्पष्टीकरण दिया कि संघ का कोई गुप्त एजेंडा नही है तो उसकी मानस संतान कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान सर्वेसर्वा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देशन में संविधान में सब कुछ बदल सकता है इसके लिए जनमत निर्माण की कोशिश क्यों की गई। भाजपा चाहे जितना इस बात को झुठलाये कि संविधान बदलने का उसका कोई एजेंडा नही है लेकिन पिछली लोकसभा में ही यह बात बार-बार जगदीप धनखड़ और किरन रिजिजू के द्वारा कहलवाई गई इसे कैसे अनदेखा किया जा सकता है। मीडिया में उनके वक्तव्य उपलब्ध हैं और किसी नेता ने उनको कभी नकारा नही। सवाल यह है कि मौजूदा संविधान में ऐसी कौन सी कमी उन्हें नजर आती है जो उनके आदर्श और लक्ष्यों के अनुकूल नही हैं। इसे स्पष्ट करने में क्या शर्म है। व्यक्तिगत बातचीत में सर्वमान्य धारणाओं का आपके लोगों के बीच खुलेआम विरोध होता है और जब सार्वजनिक अवसर आता है तो चोरी पकड़ी न जाये इसके लिए आप सतर्क नजर आने लगते हैं। फिर बात चाहे गांधी की हो या आरक्षण की। यह आचरण तो षणयंत्रकारी प्रवृत्ति का परिचायक है। अगर आपके पास कोई अलग धारणाएं हैं जिनमें आप नैतिक दम देखते हैं तो छुपाना क्या। खुलकर आपको उनकी वकालत के लिए सामने आना चाहिए। आप ईडी, सीबीआई व अन्य एजेंसियों का इस्तेमाल केवल विपक्ष पर किये जाने की प्रवृत्ति से भी अनभिज्ञ न होगें। आप इस बात से भी अनभिज्ञ न होगें कि विपक्ष की सरकार चुनने वाले राज्यों की जनता को प्रताड़ित करने के लिए उनके बिल अपने राज्यपालों के माध्यम से डंप कराने का काम मोदी सरकार कर रही है। इस तरह एक दलीय व्यवस्था में लोकतंत्र को गर्क करने के जो उपक्रम मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे हैं वे जनता की आंखों से ओझल नही हैं तो आपको बताना पड़ेगा कि अगर बहुदलीय लोकतंत्र बना रहेगा तो आपका ऐसा महान एजेंडा है जिसके पूरे न हो पाने का अंदेशा आपको हो। इसलिए आप समझते हो कि उस एजेंडे को लागू करने के पुण्य के लिए वर्तमान सरकार के लोकतंत्र विरोधी ये पाप मान्य हैं।
आपने भाजपा की सरकारों और लोगों को टोका कि अयोध्या, काशी और मथुरा हमारी सांस्कृतिक चेतना के सर्वोपरि केंद्र बिंदु हैं इसलिए यहां अपने पूजा स्थलों की वापसी का संघर्ष छेड़ा गया था पर इसके बाद सब जगह हर मस्जिद के नीचे मंदिर तलाशने का काम बंद करना होगा। पर क्या इस पर अमल हो रहा है। आपके सबसे लाड़ले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो अपनी धरती की पवित्रता की रक्षा के लिए गैर हिन्दू पूजा स्थलों के निशान मिटाने को सर्वोच्च मिशन के रूप में स्थापित कर रखा है। अगर आप इसे अनुचित मानते हैं तो भाजपा की चुनावी दिग्विजय के लिए अभी भी अपने स्वयं सेवकों की डयूटी क्यों लगाते हैं। धर्म के विषय में भी आपको पारदर्शिता दिखानी होगी। स्वामी विवेकानंद की चर्चा संघ प्रमुख ने अपने भाषण में की। स्वामी विवेकानंद अमेरिका की धरती पर सारे धर्मों के लोगों के बीच इसलिए वेदांत की सर्वोच्चता को मान्य करा सके थे क्योंकि उन्होंने सनातन के सार के रूप में ऐसा वेदांत प्रस्तुत किया था जिसमें हर पंथ के अनुयायी को अपने ही धर्म का चेहरा ही नजर आये। उन्होंने आदि गुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद के माध्यम से बताया था कि ब्रहम ही सृष्टि का मूल है जो हर मानव के अंतस में स्थित है। उसे अपने अंतस में प्रवेश की कलाएं सीखनी होगीं तब वह अपने सारे भ्रम मिटाकर सत्य को जान सकेगा। मोहम्मद साहब ने भी हिरात की गुफाओं में यही किया। ईशू ने भी 40 दिन तक जंगल में उपवास करके इसी कला से सत्य का साक्षात्कार कर पाया था। महात्मा बुद्ध के बोध ज्ञान में भी इसी कला की भूमिका थी। लेकिन आप जिन संतों को पोस रहे हैं वे सरेआम वर्ण व्यवस्था को सनातन का मौलिक तत्व करार देकर कहते हैं कि जातियां ईश्वर ने बनाई हैं। अगर ईश्वर बनाता तो अरब देशों में भी जातियां होतीं, यूरोप में भी जाति व्यवस्था होती। हमारा ईश्वर कोई मुंसिफ मजिस्ट्रेट नही है जिसका क्षेत्राधिकार केवल एक देश तक सीमित हो। हमारे ईश्वर के क्षेत्राधिकार में यह संसार तो क्या अखंड ब्रहमाण्ड आता है और उसकी जो व्यवस्थाएं हैं वे अंखण्ड ब्रहमाण्ड पर लागू रहती हैं। अगर आप वर्ण व्यवस्था को अपने धर्म का मूल तत्व गिनायेगें तो आप दूसरे देशों के गुरु कैसे बन पायेगें। आप गुरु बनकर जातियों के बारे में बतायेगें तो दूसरे देशों के लोगों को कुछ समझ में नही आयेगा। वह कैसे मानेगा कि ईश्वर ने जाति व्यवस्था में संसार के व्याधिग्रस्त लोगों का उपचार निहित है। उनके देश में चूंकि जाति नही हैं इसलिए आपके द्वारा बताये जा रहे इन तथाकथित ईश्वरीय उपदेशों से उनको समाधान नही मिल सकता। तो आप दुनियां की और अपने धर्म की भलाई के लिए ऐसे गैरिक वस्त्रधारियों को नजर अंदाज करने का साहस दिखायें। लेकिन क्या आप स्वामी विवेकानंद के ज्ञान तत्व को पोषित करने के लिए यह क्रांति करने को तत्पर हो सकते हैं। फिर भी हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं। इस वैचारिक समुद्र मंथन से स्वामी विवेकानंद की तरह अपनी संस्कृति और अपने दर्शन की महानता के लिए सारे विश्व में श्रद्धा उत्पन्न करने का कार्य अगर हुआ तो संघ के शताब्दी वर्ष की वास्तव में सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।
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