बुलडोजर के मामले में कई बार अदालती रोके के बावजूद अपनी मुहिम जारी करके योगी आदित्यनाथ ने लौहपुरुष के रूप में अपनी छवि बनाने की जो कोशिश की थी उस पर ग्रहण नजर आ रहा है। हाईकोर्ट में जातिगत दंभ को सार्वजनिक करने के उत्साह पर लगाम लगाने की एक याचिका 2013 से दायर है। जिस पर 2013 में ही 11 जुलाई को हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के लिए पूरे प्रदेश में जातियों के आधार पर की जा रही राजनैतिक दलों की रैलियों को तत्काल रोकने का आदेश जारी किया था। चार प्रमुख दलों कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को इस बाबत सीधे भी नोटिस भेजा गया था। लेकिन इस आदेश का कोई अनुपालन नही हो सका।
किस सुरंग में भटक रहा है 21 सितम्बर का जीओ
हाल में एक अधिवक्ता मोती लाल यादव ने हाईकोर्ट के सामने जनहित याचिका के माध्यम से यह मुददा उठा दिया। न्यायमूर्ति राजन राय और न्यायमूर्ति राजीव भारती की खंडपीठ ने इसे सुना और केंद्र व राज्य सरकार के लिए जातिवादी भावनाओं के अहंकारपूर्ण प्रदर्शन को प्रतिबंधित करने के दिशा निर्देश जारी किये। 9 अक्टूबर को लखनऊ पीठ की इस खंडपीठ ने फिर मामले में सुनवाई की तो खुलासा हुआ कि राज्य सरकार ने 21 सितम्बर को इसके अनुपालन में एक शासनादेश जारी किये जाने की जो जानकारी दी थी वह भ्रमित करने वाली थी। हाईकोर्ट ने कहा कि अगर यह आदेश जारी किया गया था तो संबंधित अफसर ने अदालत के पहले के आदेश के तहत इसका हलफनामा पेश क्यों नही किया।
रणछोड़ दास बनने को मजबूर दिखे योगी
जाहिर है कि स्वयं को अपने फैसलों में अडिग मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने वाले योगी आदित्यनाथ इस मामले में रणछोड़ दास बन गये हैं। जारी किये गये शासनादेश के बारे में बताया गया था कि इसमें सभी तरह की जातीय रैली को रोक दिया गया है। किसी इलाके या क्षेत्र को किसी जाति की जागीर के बतौर दर्शाने वाले बोर्ड लगाने पर पाबंदी लगा दी गयी थी। पुलिस अभिलेखों में अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न निवारण अधिनियम के अपवाद को छोड़कर अन्य मामलों में आरोपियों की जाति के उल्लेख को रोक दिया गया था। सतही तौर पर यह बहुत साफ-सुथरी पहल लग रही थी लेकिन इस ओर कदम उठाना कितना टेढ़ा हो सकता है इसका एहसास योगी को शासनादेश के पब्लिक डोमेन में शासनादेश आते ही मचे बबाल से योगी को हुआ।
मंत्रियों ने ही कर दिया बगावत का आगाज
उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी ही सबसे पहले खिलाफत के लिए मैदान में आ गये। कैबिनेट मंत्री संजय निषाद ने कहा कि जातिगत पहचान खत्म होने से सामाजिक न्याय की प्रक्रिया दिग्भ्रमित हो जायेगी। पिछड़े वर्ग के अन्य मंत्रियों ने भी निजी तौर पर इसी तरह की आपत्ति प्रदर्शित की। उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने तो सजातियों की एक बैठक में भाग लेकर खुलेआम योगी की अवमानना का दुस्साहस कर डाला। शासनादेश के कुछ ही दिन बाद दशहरा का त्यौहार था। वैसे तो यह त्यौहार सभी हिन्दुओं का है लेकिन क्षत्रिय समाज ने कई दशक पहले से इसका पेटेंट करा रखा है। मजे की बात यह है कि पुराने समय में राजा महाराजा किसी भी जाति के रहे हों सभी प्रजा के स्वामी के रूप में मान्य थे। देखने वाली बात यह है कि ऐतिहासिक काल की शुरूआत में शिशुनाग से लेकर नंद और मौर्य वंश तक का जिक्र आता है जो कि शूद्र माने जाते हैं। उनके बाद में शुंग और कण्व आदि ब्राह्मण सम्राट रहे। इसके बाद गुप्त रहे और वे भी क्षत्रिय नही थे। बाद में राजपूत राजा आये लेकिन वे बटे हुए थे। पृथ्वीराज चौहान तक का राज्य बहुत सीमित था वरना उन्हें महोबा के चंदेलों, कन्नौज के गहरवारों पर चढ़ाई करने की क्या जरूरत थी। उस समय ग्वालियर में तोमर राज्य कर रहे थे तो अगर दशहरा राजशाही का पर्व है तो उसे राजण्य रहीं सारी कौमों के साथ पूरे हिन्दू समाज को शामिल करते हुए मनाया जाना चाहिए। यह तो हुई सैद्धांतिक बात लेकिन कहना यह है कि क्षत्रिय (राजपूत) समाज का दशहरा मिलन का परंपरागत आयोजन भी शासनादेश की जद में आ गया। कई जगह क्षत्रिय समाज ने सदबुद्धि का परिचय देते हुए इस बार दशहरा मिलन सर्व हिन्दू समाज के बैनर तले मनाया। लेकिन इस शासनादेश से तकलीफ महसूस करने वालों में वे भी रहे। योगी जी की प्रिय करणी सेना पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे।
हाईकोर्ट से भी झेलने पड़ गये ताने
जब शासनादेश पर सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते हुए विरोध, शिकवा-शिकायतों से योगी का सामना हुआ तो उन्हें महसूस हुआ कि शासनादेश जारी करने में जल्दबाजी करके उन्होंने कितना बड़ा संकट मोल ले लिया है। इस कारण वे बैकफुट पर आ गये। 9 अक्टूबर की हाईकोर्ट की सुनवाई में लोगों को इसका पता चला जब सुनवाई कर रही खंडपीठ ने सरकारी वकील से कहा कि अगर 21 सितम्बर को राज्य सरकार ने जातिवाद के प्रदर्शन पर रोक का शासनादेश जारी कर दिया था तो संबंधित अफसर ने हलफनामा पेश करके हमें इसकी जानकारी क्यों नही दी। मुख्यमंत्री योगी जी बेचारे दोनों ओर से मारे गये। तत्काल शासनादेश जारी करके उन्होंने न्यायालय को खुश करना चाहा था तो न्यायालय का ताना भी उनके अधिकारियों को झेलना पड़ रहा है। अब खंडपीठ ने तीन दिन का और समय हलफनामा पेश करने के लिए दिया है जिसमें राज्य सरकार को बताना होगा कि उसने क्या शासनादेश जारी किया है और उसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाये हैं। शासनादेश तो ठंडे बस्ते में डाला जा चुका था इसलिए उसको लागू कराने के लिए कार्रवाइयां क्या खाक हुई होगीं। हाईकोर्ट ने कह दिया है कि अगर तीन दिन तक शासन की रिपोर्ट उसके सामने पेश न हुई तो प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को व्यक्तिगत रूप से अदालत के सामने उपस्थित होकर स्पष्टीकरण देना होगा। सुनवाई की अगली तारीख 30 अक्टूबर तय की गयी है। तब तक अधिकारियों को सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे किस्म का अपना वह हुनर दिखाना होगा जिससे वे भगवान तक को हैरानी में डालते रहें हैं।
—







Leave a comment