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Friday, November 22, 2024

माफिया कारपोरेटवाद के खिलाफ युवाओं का असंतोष फूटा

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65 प्रतिशत से अधिक युवा आबादी वाले इस देश में बेरोजगारी का मुद्दा चुनाव में निर्णायक होना ही चाहिए था लेकिन पिछले एक दशक में राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक अभिमान जैसे मुद्दों का तूफान इतना जोर पकड़ गया था कि जीवन संघर्ष के असल मुद्दों को लेकर लोगों में सेंसेशन जैसे गायब हो गया था। यहां तक कि वर्तमान लोकसभा चुनाव का बिगुल बजते समय भी ये मुद्दे नदारत थे। लोगों की ठंडी प्रतिक्रिया के कारण विपक्ष तक इन मुद्दों को लेकर जोश नहीं दिखा रहा था। सत्तारूढ़ खेमे के नेताओं को अपने करिश्मे का इस कदर गुमान था कि वे बेरोजगारी और महंगाई की चर्चाओं को लेकर क्यों डरने वाले हों। लेकिन अब जबकि चुनाव के चार चरण पूरे हो चुके हैं इन मुद्दों का आतंक सत्ताधारी दल के शीर्ष नेताओं के मानसिक संतुलन के डगमगाने का कारण बन गया है जो उनके बहके हुए चुनावी भाषणों से जाहिर हो रहा है। बीच लड़ाई में यह भी गुंजाइश नहीं बची कि इन मोर्चो पर स्थिति संभालने के लिए वे कुछ कर सकें।
बेरोजगारी के सवाल के प्रचंड होते जाने के बीच सरकार की नीति और नीयत को लेकर वैचारिक चीर फाड़ भी बढ़ रही है जिसमें स्पष्ट रूप से बेनकाब होता जा रहा है कि इसके पीछे अप्रत्याशित परिस्थितियां नहीं हैं। सरकार शुरू से ही गलत रास्ते पर चल रही है जिसके घातक परिणाम सामने आना अवश्ंयाम्भावी था। लोकतंत्र में व्यवहारिक तौर पर हर सरकार निहित स्वार्थी तत्वों के हित संरक्षण के लिए मजबूर रहती है जिससे जनोन्मुखी नीतियां बनाने और उन पर चलने के कर्तव्य से उसका डगमगाना लाजिमी हो जाता है लेकिन व्यवहारिक वास्तविकताओं से सरकार के समझौता करने की एक सीमा होती है। लोकतांत्रिक दल और सरकारें यह प्रदर्शित करने के लिए बाध्य रहती हैं कि निहित स्वार्थी तत्वों पर आम लोगों के साथ बफादारी निभाने के लिए अंकुश लगाने में वे पीछे नहीं रहेंगे। आम जनता के हितों को मजबूती देने की घोषित प्राथमिकता के चलते लोकतांत्रिक सरकारें अपनी नीतियों को लेकर प्रयोग करती रहती हैं। एक समय था जब सारी दुनिया माक्र्सवादी नीतियों के प्रभाव में आ गई थी। कई देशों में कम्युनिष्ट क्रांति हुई जिसमें तथाकथित रूप से सर्वहारा वर्ग ने सत्ता की बागडोर संभाल ली। औद्योगिक राष्ट्रों को इस ताप से बचने के लिए अपनी नीतियों को नये रूप में ढ़ालना पड़ा जिससे पूंजीवाद का मानवीय चेहरा विकसित किया गया। आजादी के बाद के भारत के भाग्य विधाता भी कम्युनिस्ट दर्शन से प्रभावित रहे। उनके द्वारा मिश्रित अर्थव्यवस्था का माडल इसी के तहत अपनाया गया।
लेकिन कम्युनिस्ट व्यवस्था की कई विसंगतियां सामने आयीं तो लोग इससे बिदक उठे। खासतौर से कम्युनिस्ट व्यवस्था वाले देशों में क्रूर तानाशाह उपजे जिन्होंने लोगों के दमन की इंतहा कर दी। सोवियत संघ जैसे देश इस व्यवस्था के कारण इस कदर गतिरोध के शिकार हुए कि अपेक्षित अनाज उत्पादन में पिछड़ जाने से वहां लोग भुखमरी के संकट में घिर गये और 90 का दशक आते-आते सोवियत संघ टूट गया। ऐसे में भारत को भी गतिरोध से उबरकर दुनिया के साथ तालमेल करने के लिए नीतियों के स्तर पर साहसिक बदलाव की जरूरत महसूस हुई और नरसिंहाराव के कार्यकाल में डा मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाकर आर्थिक उदारीकरण के नये दौर का श्रीगणेश किया गया जो पूंजीवाद के मानवीय चेहरे के दर्शन के अनुरूप था। अटल जी के कार्यकाल में भी इसी को आगे बढ़ाया गया। इसके बाद मनमोहन सिंह जब स्वयं प्रधानमंत्री बने तो लाजिमी था कि वे आर्थिक सुधारों में क्रांतिकारी स्तर पर आगे बढ़ें।
इस प्रवाह के ही क्रम में नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्तारूढ़ हुई लेकिन उन्होंने क्रानिकैप्टिलिज्म की बयार में मानवीय पूंजीवाद के सारे पुण्य फना कर दिये। उनके द्वारा सरकारी उद्यमों को निजी हाथों में बेचने के पीछे इनके बेहतर संचालन और परिणाम को सुनिश्चित करने के सदाशय इरादे नहीं थे जो अब जाहिर हो चुका है। इसका मकसद अपने चहेते कारपोरेट को कृतार्थ करना था जिन्हें बेशकीमती सरकारी उपक्रम औने पौने में हवाले कर दिये गये। विकसित राष्ट्रों में जिस प्रतिस्पर्धी पूंजीवाद को अपनाया गया है उसके दो बड़े फायदे हैं। एक तो श्रमिक वर्ग को इससे शानदार वेतन, अन्य आकर्षक सुविधायें व बेहतरीन सेवा शर्तें सुनिश्चित हुई। दूसरे लोगों को गुणवत्तापूर्ण उत्पाद या सेवाओं की उपलब्धता होने लगी। इसी प्रतिस्पर्धी पूंजीवाद को भारत में आगे बढ़ाने की जरूरत थी लेकिन मोदी सरकार बदनीयती की शिकार होने के कारण पूंजीवाद को माफिया कारपोरेट के रास्ते पर लेकर आगे बढ़ रही है। इसमें आम लोगों के हितों की परवाह का तत्व कहीं शामिल नहीं रह गया है। इसका एकमात्र मकसद येनकेन प्रकारेण चहेते कारपोरेट को ज्यादा से ज्यादा लाभ दिलाना है। इसके लिए कैसे भी जायज नाजायज तरीके मंजूर हैं। हालांकि कांग्रेस के जमाने से ही इसकी शुरूआत हो गई थी पर मोदी ने तो इंतहा कर दी। बीएसएनएल का भट्टा बिठाकर उसी के टावरों से हर्र लगे न फिटकरी की तर्ज पर जियो को मोबाइल सेवायें संचालित करने का अवसर दिया गया और अब जब उसका एकाधिकार हो गया है तो बीएसएनएल की तरह उसका नेटवर्क भी हमेशा गायब रहने के लिए अभिशप्त होता जा रहा है।
अदाणी पर मेहरबानी का तो आलम क्या है। प्रधानमंत्री महंगे में उनकी बिजली बिकवाने के लिए बंग्लादेश से लेकर आस्ट्रेलिया तक वहां की सरकारों पर दबाव बनाने पहुंच जाते हैं। यहां तक कि अदाणी की कारोबारी सुविधा के लिए बंग्लादेश से सीमावर्ती गांवों की अदला बदली का एक समझौता भी गुपचुप कर लिया गया जिसमें भारत को उसके द्वारा दिये गये गांवों से कम गांव मिले। बिना टेंडर और अनुभव के राफेल कंपनी के साथ लड़ाकू विमान बनाने का समझौता बाध्य करके अंबानी के लिए करा दिया गया। देश भर के हवाई जहाज और इसके बाद बारी रेलवे स्टेशनों की है जो बिना टेंडर के अदाणी को सौंपे जायेंगे। यह क्रम सरकारी सेवाओं में ग्रास रूट लेवल तक फैलाया जा रहा है यही कारण है कि सरकारी विभागों में भर्तियां बंद कर दी गई हैं और उनके काम के ठेके दिये जा रहे हैं। ठेका कंपनियों को अधिकतम मुनाफा मिले इस कारण उन पर कोई प्रतिबंध नहीं है कि वे अस्थायी आधार पर भर्ती किये जाने वाले कामगारों को कितना मेहनताना दें। नियमित सरकारी भर्ती होने पर जिस काम के लिए बेरोजगार को 30 से 40 हजार रूपये महीने से वेतन की शुरूआत होनी थी उसकी पगार केवल 9 हजार से 12 हजार के बीच रख छोड़ी गई है। उस पर भी तुर्रा यह है कि कर्मचारी के लिए छुट्टियों के लाभ की कोई व्यवस्था नहीं है। जिस दिन छुट्टी होगी उस दिन का वेतन काट लिये जाने की शर्त रहती है। अन्य कोई लाभ देय नहीं है। न चिकित्सा भत्ता, न आवासीय सुविधा और न कुछ और। यह तो बेगारी से भी अधिक शोषण की व्यवस्था है। इसे रोजगार में गिनना सरासर धोखेबाजी है। पर आज जो रोजगार के आंकड़े जारी किये जाते हैं उसमें इस बेगारी के भी आंकड़े शामिल रहते हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि रोजगार के नाम पर कैसा प्रपंच किया जा रहा है। विकास साधन है साध्य नहीं। अनुमान किया जाता है कि विकास होगा तो हर व्यक्ति को गरिमापूर्ण ढ़ंग से जीवन जीने लायक आमदनी के अवसर पैदा होंगे लेकिन मोदी सरकार का विकास केवल उनके चहेते कारपोरेट माफिया का मुनाफज्ञ बढ़ाने के लिए समर्पित है। जैसे एक्सप्रेसवे बनेंगे तो ज्यादा से ज्यादा माल ले जाने की क्षमता वाले वाहनों को सुविधा होगी जो कम समय में माल को सुदूर गंतव्य तक पहुंचा सकते हैं। इससे फैक्ट्रियों का मुनाफा तो बढ़ जायेगा लेकिन आम आदमी की आमदनी का क्या। नरसिंहाराव के समय अचानक नोएडा की फैक्ट्रियों के कामगारों का वेतन उस समय के बाजार की दर के अनुपात में काफी आकर्षक हो गये थे लेकिन आज जो मेहनताना उन्हें दिया जा रहा है वह शर्मनाक है। क्या औद्योगिक राष्ट्रों के पूंजीवादी उसूलों से इसका कोई मोल है। सस्ते श्रम की उपलब्धता सुनिश्चित करने के पीछे माफिया कारपोरेट की सेवा की भावना है। बिडंवना यह है कि माफिया कारपोरेट के यहां एक्जीक्यूटिव वर्ग का वेतन करोड़ों रूपये में रहता है इसलिए जब प्रति व्यक्ति औसत आमदनी निकाली जायेगी तो आम कामगार के मेहनताने की दयनीय स्थिति पर पर्दा पड़ जायेगा और सम्मानजनक औसत प्रदर्शित करना संभव हो जायेगा। यह जबरदस्त फरेब है।
दूसरी ओर जहां तक ऐसे पूंजीवाद से लोगों को गुणवत्तापूर्ण उत्पाद या सेवा मिलने का सवाल है यह उद्देश्य भी पूरा नहीं हो पा रहा। जब किसी कंपनी को बिना मशक्कत के मुनाफा बढ़ने का अवसर मिल रहा हो तो वह अपने उत्पात के आकर्षण के लिए नई तकनीकी लाने की माथापच्ची क्यों करेंगे। यही वजह है कि मोदी राज में एक प्रतिशत लोगों के पास देश की 40 फीसदी सम्पत्ति तो पहुंच गई पर उनकी कंपनी का कौन सा माल दुनिया में कहा मांगा जा रहा है यह कोई नहीं जानता। इसी तरह रेलवे के निजीकरण होने से होना यह चाहिए कि लोगों को सस्ते किराये में आरामदायक डिब्बों में बैठकर लंबी यात्रा कम से कम समय में करने का अवसर मिले। यात्रियों की सुविधा के लिए स्टेशनों पर साफ सुथरे प्लेटफार्म, शौचालय और स्नानग्रह हों और शुल्क केवल प्रतीकात्मक लगे। अगर स्टेशन पर रूकना पड़े तो ठहरने के लिए बाजार से सस्ते दर पर स्युट मिल सकें लेकिन हो यह रहा है कि प्लेटफार्म टिकट से लेकर वेटिंग रूम में बैठने तक का चार्ज बेहद महंगा हो गया है फिर भी देश की राजधानी तक के स्टेशन पर उच्च श्रेणी के प्रतीक्षालयों में भी पर्याप्त शौचालय और स्नानग्रह न होने से लोगों को शौच आदि के लिए लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। स्टेशन पर आवासीय सुविधा इतनी महंगी है कि आम यात्री उसमें ठहरने का सपना तक नहीं देख सकता। यह तो एक क्षेत्र का उदाहरण है। माफिया कारपोरेटवाद को बढ़ावा देने से जनता के सभी वर्गों का अनर्थ ही अनर्थ होना है। इसलिए वर्तमान चुनाव में युवा पीढ़ी को तन्द्रा के टूटने से बेरोजगारी जैसे मुद्दे याद आ रहे हैं तो इसमें कुछ भी अजीब नहीं है। सत्तापक्ष को इस मामले में जबावदेही स्वीकार करनी ही पड़ेगी।          

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