व्यवसायिक जरूरतों के लिए अपने पक्ष में तमाम रिकार्ड की गिनती करवाना कारोबारी लाभ बढ़ाने का जाना माना हथकंडा है लेकिन जहां तकाजा गंभीर प्रस्तुतीकरण का है वहां इससे परहेज जताया जाता है क्योंकि यह सस्ता हथकंडा प्रमाणिकता (खरेपन) के लिए धब्बे के तौर पर सामने आता है। विषय है आज के दिन यानी स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 11वी बार राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने के कीर्तिमान का। इसके चलते लाल किले से झंडा फहराने के मामले में नरेन्द्र मोदी द्वारा इन्दिरा गांधी की बराबरी कर ली गई है जबकि जवाहर लाल नेहरू से वे अभी पीछे हैं जिन्होंने 16 बार लगातार लाल किले से झंडा फहराया था। मोदी की साध अब नेहरू के इस रिकार्ड को ब्रेक करने की है ताकि वे नया इतिहास रच सकें। जैसा कि होता है कोई-कोई एक दिन में दर्जनों चाय पीकर दिखाने के रिकार्ड के लिए गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करा लेता है। इसी तर्ज पर अजीबो गरीब हरकत से सैकड़ों लोग गिनीज पुरूष बने हैं। लेकिन इस तरह के बेतुके पुरूषार्थ प्रदर्शन से समाज की भलाई का क्या संबंध है यह बताना मुश्किल है लेकिन अपना-अपना शगल है। मोदी जी भी अपने पक्ष में नये-नये रिकार्ड बनाने के शगल में बौराने की हद तक जुटे रहते हैं। गरज यह है कि उनकी मनोवृत्ति विलास प्राधान्य है जो उन्हें कौतुक प्रिय बनाये रखती है।
जो भी हो लेकिन भारत के प्रधानमंत्री का स्वाधीनता दिवस के दिन लाल किले की प्राचीर से ध्वजारोहण और इसके बाद राष्ट्र के नाम संबोधन का अपना महत्व है। अपेक्षा की जाती है कि इस अवसर पर हर प्रधानमंत्री राजनीतिक संकीर्णता से परे होकर देश के जनमानस को नई रचनात्मक उमंग से अनुप्रेरित करने वाले संबोधन को करें ताकि उनका प्रस्तुतीकरण देश के सर्वमान्य नेतृत्व के रूप में हो सके। पूरे विश्व की निगाह प्रधानमंत्री के इस दिन के संबोधन पर रहती है इसलिए इस संबोधन में वे एक व्यक्ति के रूप में या एक पार्टी के नेता के रूप में अपने को न बांधकर समूचे देश के बतौर संवाद करते हैं। पर क्या नरेन्द्र मोदी ऐसा कर पाये। लाल किले की प्राचीर के पारंपरिक संबोधन में नरेन्द्र मोदी एक बार फिर उक्त बड़प्पन का निर्वाह करना चूक गये और उन्होंने इस अवसर का उपयोग अपनी अन्य सभाआंे की तरह विपक्ष को राष्ट्रद्रोही, निकृष्ट और अवांछनीय साबित करने के लिए ही किया। इसके उत्ताप में कई चीजों को उन्होंने उदाहरण के बतौर पेश करने की कोशिश की जबकि ऐसा करने के लिए वे तथ्यों और निष्कर्षों के बीच मेल नहीं बिठा पा रहे थे। इस सिलसिले में उनके द्वारा उठाये गये परिवारवाद के मुद्दे का उल्लेख किया जा सकता है। परिवारवाद के नाम पर उनके मस्तिष्क में केवल नेहरू गांधी परिवार का नाम आता है लेकिन क्या नेहरू गांधी परिवार के लोगों के लिए ही परिवारवाद वर्जित होना चाहिए अन्य के लिए नहीं। मोदी के नेतृत्व के रहते भाजपा कहां परिवारवाद को पोसने से बच पायी घ् अगर परिवारवाद महापाप होता तो कल्याण सिंह के पुत्र और पौत्र को आपने राजनीति में स्थान न दिया होता, राजनाथ सिंह के पुत्र को न दिया होता, गोपीनाथ मुंडे की पुत्री को न दिया होता, सुषमा स्वराज की पुत्री को न दिया होता। यह सूची एक दो तक सीमित नहीं है बल्कि अनंत है और वंशवाद व परिवारवाद को पार्टी की राजनीतिक सफलता के पुण्य कार्य के लिए इस्तेमाल करने का कार्य सहर्ष खुद मोदी ने किया है और फिर भी लाल किले के संबोधन का समय इसकी चर्चा में बर्बाद करने में मोदी को शर्म नहीं आती यह बेहयायी की पराकाष्ठा है।
वस्तुनिष्ठ तरीके से देखा जाये तो अनुपातिक तरीके से कई कारक जो एक दूसरे के विरोधाभाषी प्रतीत होते है लोकतंत्र की सकारात्मक अग्रसरता में योगदान कर रहे हैं। मसलन वंशवाद के कारण माधवराव सिंधिया को राजनीति में जगह पाने में कामयाबी मिली तो किसी अन्य रेलमंत्री की तुलना मंे गरीबों की इस सवारी को अमीरों की जरूरत में शामिल कराने के लिए अपने समय की क्रांतिकारी पहल के तौर पर उन्होंने शताब्दी ट्रेनें चलवाई। इसी तरह उनके पुत्र ज्योतिरादित्य ने नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री रहते हुए देश के हवाई यात्रा के साधनों को उच्च वर्ग की अपेक्षाओं के अनुरूप उन्नत किया। आखिर देश की व्यवस्था में लोगों के विभिन्न स्तरों की सोच और जीवन शैली के बीच तालमेल बिठाते हुए विकास की दिशा तय करनी पड़ती है। इसमें परिवारवाद और वंशवाद की अपनी उपयोगिता है पर इससे यह गलत फहमी नहीं पालना चाहिए कि परिवारवाद और वंशवाद के कारण आम परिवारों की प्रतिभाओं के लिए राजनीति में उंचाई पर जाने के लिए रास्ते बंद हैं। इस तरह की तोड़मरोड़कर मनमानी व्याख्या करते हुए लाल किले के अपने संबोधन में नरेन्द्र मोदी ने एक हजार ऐसे नौजवानों को राजनीति में आगे लाने की योजना का खाका पेश किया है जिनके परिवार में कभी कोई राजनीति में नहीं रहा। लेकिन उनकी यह क्रांतिकारिता कितनी खोखली और मूर्खतापूर्ण है यह स्वयंसिद्ध है। मुलायम सिंह और मायावती देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री हुए लेकिन उनके आगे बढ़ने में क्या किसी मोदी योजना का प्रताप है। यह काम मोदी के राजनीति में उदय के बहुत पहले कांग्रेस के समय की लोकतंत्र को मजबूत करने वाले विचारों और परंपराओं को आगे बढ़ाने वाली स्थितियों के चलते हुआ। यही नहीं देश में जो नया नेतृत्व तैयार हुआ वह भी आम आदमी के लिए राजनीति में एक हद तक वंशवाद और परिवारवाद को जारी रखने को जरूरी समझ रहा है तभी तो मुलायम सिंह के समर्थकों ने और अब मायावती के समर्थक भी परिवारवाद और वंशवाद पर मुहर लगा रहे हैं।
दरअसल भारतीय जनता पार्टी एक वर्ण व्यवस्था वाली पार्टी है। इस व्यवस्था में सत्ता को जिन जातियों का जन्मसिद्ध अधिकार मानने की मानसिकता काम करती रही है उनके लाभार्थियों के लिए सत्ता का व्यापक सामाजिक वर्गों में वितरण बड़ी आपदा की तरह है इसलिए उनकी मनास्थिति डांवाडोल हो रही है। वे उन दलीलो को गढ़ने में ऊर्जा खपा रहे जिनसे पुरानी व्यवस्था जीवित हो सके। मोदी के मुंह से परिवारवाद और वंशवाद के विरोध के नाम पर प्रत्यक्ष तौर पर तो नेहरू गांधी परिवार के लिए भड़ास निकल रही है लेकिन अवचेतन में असली भड़ास उस परिवर्तन के लिए है जिसमें सत्ता के अधिकारी मुलायम सिंह, मायावती, करूणानिधि, देवगौडा आदि के वंशज और परिवारीजन बन गये हैं जबकि मोदी खुद भी इसी सामाजिक उथल पुथल के नतीजे में देश के सर्वोच्च सत्ता सिंहासन पर पहुंचने का अवसर प्राप्त कर सके हैं पर इसमें उनकी स्वतंत्र चेतना की भूमिका नहीं रही है, वे तो एक मोहरे की तरह आगे बढ़ाये जाते हुए शिखर पर लाये गये हैं जिनकी नियति अंततोगत्वा प्रतिद्वंदी के मोहरे को पीटने की है।