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Friday, November 22, 2024

भाजपा के भय का भूत विपक्ष पर से उतरा

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लगता है विपक्षी खेमे पर से भारतीय जनता पार्टी को अगली बार किसी भी कीमत पर सत्ता से बाहर दिखाने का भूत उतर चुका है। जिस जोश खरोश से विपक्ष ने एक होकर इण्डिया गठबंधन बनाया था वह अब गायब है। विपक्षी दल कह रहे थे कि 2024 के चुनाव उनके लिये करो या मरो का प्रश्न होंगे क्योंकि अगर तीसरी बार भाजपा की सत्ता में वापसी हो गयी तो न संविधान बचेगा और न लोकतंत्र। विपक्ष के सामने हमेशा के लिये बोरिया बिस्तर बांधने की स्थिति पैदा कर दी जायेगी। इसलिये भारतीय जनता पार्टी को रोकने के लिये विपक्ष को अपने अहम और स्वार्थ भुलाकर काम करना पड़ेगा। इसके बाद आपस की होड़ा होड़ी होती रहेगी। पर विपक्ष शायद अपने इस संकल्प को भूल चुका है। उसे भाजपा से मुकाबला करने से ज्यादा दिलचस्पी इस बात में है कि दूसरा या दूसरे विपक्षी दल उसके मुकाबले आगे न निकल जायें। इस महीने जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें विपक्ष के बीच आपसी महाभारत इसीलिये मच रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में लंबी पारी खेलने के लिये एक ओर अपने बृहद विस्तार का ताना बाना बुना दूसरी ओर विपक्ष के आर्थिक व अन्य श्रोत काटकर उसे पंगु बनाने की बिसात वह बिछा रही थी। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में 1000 रूपये की जो नोटबंदी घोषित की उसके उद्देश्य को लेकर उसने कई बिंदु गिनाये थे। काले धन की अर्थ व्यवस्था पर प्रहार करना, पाकिस्तान की शरारत से खपाये जा रहे जाली नोटों को रोकना और आतंकवाद के वित्त पोषण का उन्मूलन करना जैसे जितने भी कारण उसने नोटबंदी के औचित्य को लेकर बताये उनमें से किसी लक्ष्य को हासिल करने की कटिबद्धता सरकार नही दिखा सकी। 1000 के अधिकांश नोट बैंकों में वापस आ गये जिससे कालेधन को खत्म करने का उसका दावा खोखला साबित हो गया। उसके द्वारा गिनाये गये अन्य उद्देश्यों का भी यही हश्र हुआ। कुल मिलाकर इससे अगर कोई प्रयोजन सिद्ध हुआ तो इतना कि विपक्षी दलों की आर्थिक पाइप लाइन काटने में उसे सफलता मिल गयी। भाजपा के पास तो जो धन था नोटबंदी की जानकारी पहले से होने के कारण उसे उसने समय रहते बदल लिया लेकिन विपक्ष को इसका मौका नहीं मिल पाया। मायावती जैसे नेताओं का काफी धन इसमें डूब गया कि उन्होंने जिन सहयोगियों को नोट बदलवाने के लिये धन दिया था वे मोटी रकम देखकर लालच में आ गये और उन्होंने यह पैसा हड़पकर मायावती को अंगूठा दिखा दिया। विपक्षी पार्टियों ने नोट बदलवाने का जुगाड़ भी लगाया तो उनसे काफी कमीशन वसूल लिया गया। इसके बाद विपक्ष की जड़ें खोदने के हथकंडे उसके द्वारा लगातार इस्तेमाल होते रहे। उसने ईडी, सीबीआई और अन्य केंद्रीय एजेंसियों को इस उद्देश्य के लिये इस्तेमाल करने की परिपाटी बना ली। कुल मिलाकर स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि विपक्षी पार्टियां अपने वजूद के लिये पनाह मांगने लगीं। लेकिन सत्ता पक्ष को इतने पर भी संतोष नहीं हुआ। यह स्पष्ट दिखायी देने लगा कि राज्यों की विपक्षी सरकारों को काम न करने देकर और सरकारों का येन केन प्रकारेण तख्ता पलट करवाकर उसने लोकतंत्र को ठिकाने लगाने की सोच रखी है। संविधान को निरस्त कर नया संविधान लागू कराने की उसकी मंशा भी समय समय पर झलकती रही। उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इसकी भूमिका के बतौर एक समय बयान दिया कि संविधान में कुछ भी अपरिवर्तनीय नहीं है। संसद सम्प्रभु है और संविधान का बहुमत के आधार पर सब कुछ बदल सकती है। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी इस व्यवस्था को खारिज करने का प्रयास था कि संविधान को बदलने की असीमित शक्तियां संसद के पास नहीं हैं। संविधान का जो मूल ढांचा है उसमें परिवर्तन का अधिकार संसद को भी नहीं हैं। तत्कालीन विधि मंत्री किरन रिजजू ने भी जगदीप धनकड़ की लाइन को बल प्रदान किया। कहा जाता है कि संसद का हाल ही में विशेष सत्र संविधान बदलने की कवायद के टेस्ट के लिये आहूत किया गया था लेकिन बाद में सरकार की हिम्मत जबाव दे गयी। रूझान ये बताने लगे थे कि बाबा साहब द्वारा लिखे गये संविधान को दलित बाइबिल और कुरान जैसा दर्जा देते हैं जिसके कारण उसे बदलने के प्रयास से उनमें जबर्दस्त नाखुशी पनप रही है। भारतीय जनता पार्टी को अगर उसने ऐसा कोई कदम उठाया तो चुनाव में उसको इसका गंभीर खामयाजा भुगतना पड़ेगा।
लेकिन संविधान बदलना और लोकतंत्र को सीमित करना भाजपा के लिये अपरिहार्य जरूरत है ताकि हिंदू राष्ट्र बनाने सहित अपने समूचे एजेंडे को वह साकार रूप दे सके जबकि संविधान और लोकतंत्र इसमें आड़े आता है। ऐसे में भाजपा यह चाह सकती है कि भविष्य में चुनाव भी हो तो औपचारिकता मात्र के लिये। भाजपा के इन इरादों की आहट ने विपक्ष को कुछ महीने तक बुरी तरह विचलित कर दिया था। इसीलिये इण्डिया गठबंधन के समय उपस्थित सभी पार्टियों ने बड़ा दिल दिखाने और त्याग भावना का परिचय देने की चेष्टा की थी। जब बदलाव की मंशा रखने वाले मतदाता समूह में उसके इस रूख ने उत्साह पैदा कर दिया था। लेकिन अब साफ हो रहा है कि यह हिलोर पस्त पड़ गयी है।
मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव को लेकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच बात ऐसी बिगड़ी कि दोनों दलों के नेता एक दूसरे के प्रति अत्यंत कटु हो गये। हालांकि बाद में दोनों ने अपने अपने गुस्से को समेट लिया। लेकिन उनमें चुनावी समझौता आखिर तक नहीं हो सका। समाजवादी पार्टी ने लगभग 80 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करके कांग्रेस की शामत ला दी है। अकेले समाजवादी पार्टी ही नहीं जनता दल यू जिसका मध्यप्रदेश में कोई नाम लेवा नहीं है उसने भी अपने उम्मीदवार उतार दिये हैं। आम आदमी पार्टी तो कांग्रेस से संवाद की कोशिश करने के लिये भी राजी नहीं हुयी। उसने मध्यप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी जोर आजमायश की बेताबी दिखा डाली है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान सीटों के बंटवारे को लेकर भी अखिलेश के सुर बहके बहके से हैं। इस तरह इण्डिया गठबंधन के श्री गणेश के समय ही अपशकुन के निशान उभर आये हैं। विपक्षी दल इस पर उतारू हैं कि भाजपा आसानी से सत्ता में वापस आ जाये तो आ जाये लेकिन हम आपस में अपनी नाक नीची नहीं होने देंगे। हालांकि यह रवैया आत्मघाती है लेकिन लगता है कि विपक्ष यह भूल चुका है कि ऐसा करने से उसके लिये अगले लोकसभा चुनाव के बाद क्या नौबत आ सकती है। अगर राज्यों के चुनाव में भाजपा विरोधी मतों के बंटवारे के कारण विपक्ष को मुंह की खानी पड़ी तो लोकसभा चुनाव पर इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक असर होगा। उसके गठबंधन का पिलपिलापन मतदाताओं के सामने उजागर हो जायेगा और केंद्र में अस्थिर सरकार के नाम से बिदकने वाले मतदाता इण्डिया गठबंधन को खारिज करने की मानसिकता बना बैठेंगे। दुर्भाग्य यह है कि विपक्षी खेमे में वर्तमान में जीपी और वीपी सिंह जैसा कोई नेता नहीं है जो समूचे विपक्षी कुनबे में लगभग सर्वमान्य माना जा सके। ऐसे में इण्डिया की आपसी उठा पटक से तय है कि भाजपा की बांछें खिल गयीं होंगी।

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