प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर जाति के आधार पर सहानुभूति कार्ड खेलने की कोशिश की है। उनका कहना है कि कांग्रेस द्वारा मुझ पर इसलिये हमले किये जा रहे हैं कि वे पिछड़ी जाति के हैं। केंद्र की राजनीति के शुरूआती दौर में मोदी ने इस बात को बहुत जोर शोर से उठाया था कि कांग्रेस उनके निचली जाति के होने के कारण उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। अपने भाषणों में इसी तारतम्य में वे बाबा साहब अम्बेडकर के प्रति असीम श्रद्धा जताने का कोई मौका नहीं चूकते थे। इस लाइन से उन्होंने बहुजन वोट को अपने पक्ष में लामबन्द करने में व्यापक सफलता हासिल की और दलितों व पिछड़ों के जनाधार से उन्हें चुनाव दर चुनाव कामयाबी मिलती रही। बहुजन चेतना को उभारने के साथ उनका लाभार्थी चेतना का तड़का भी सिद्ध फार्मूला बना।
पर अब जबकि वे क्रीज पर अच्छी तरह जम चुके थे उन्होंने अपने भाषण की लाइन बदल दी थी। कुछ वर्षों से वे अपने पिछड़़े होने की दुहाई देने की कोई जरूरत नहीं समझ रहे थे। बाबा साहब का नाम भी अब हर भाषण का श्रृंगार बनाने की बजाय वे उनकी स्मृति से जुड़े मौके पर ही याद करने की जरूरत समझते थे।
इस बीच सरकारों में जितने भी फैसले हुये उनमें पिछड़ों और दलितों के अधिकार का ख्याल रखने की कोई आवश्यकता नहीं समझी गयी। नौकरियों में आरक्षण व्यवस्था को लेकर झांसेबाजी की गयी जिससे पिछड़ों और दलितों के अधिकारों पर चोट पहुंची। प्रशासनिक पद स्थापनाओं में भी इस धारणा का अनुशीलन करते हुये कार्य किया गया कि इन वर्गों में क्षमता, सूझबूझ और आत्मविश्वास का अभाव होता है इसलिये जहां से फैसले लेने की प्रक्रिया चलती हो वहां इनको दूर रखने में ही भलाई है। दूसरी ओर इसके कारण इन वर्गों में विद्रोह की भावना न भड़कने पाये सो धार्मिक धूम धड़ाकों को बढ़ावा देकर इन्हें भक्ति भावना की नींद में गाफिल कर दिया गया ताकि इनकी अधिकार चेतना कुंद हो सके।
भाजपा के लिये चीजें अभी तक सही पटरी पर चल रही थी। लेकिन जातिगत जनगणना के सुर उसके सामने चुनौती बनकर आ गये। बिहार में जातिगत सर्वे की रिपोर्ट जारी होने के बाद पिछड़ों में अपनी शक्ति को पहचानने का विवेक पैदा हुआ जिसे देशव्यापी विस्तार देने के लिये कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी ने कमान संभाल ली।
हालांकि पिछड़ों को अवसर देने के मामले में कांग्रेस पार्टी का रिकाॅर्ड अतीत के अनुभवों में बेहतर नहीं रहा था। आजादी के कुछ दशकों तक राजनीतिक चेतना की कमी के कारण कांग्रेस को सामाजिक मामलों में यथा स्थितिवाद को मजबूत करते दिखने से कोई दिक्कत नहीं हुयी थी। पर संविद सरकारों का दौर आते आते खासतौर से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में नयी स्थितियां पैदा होने लगीं। डा. लोहिया का पिछड़ों ने बांधी गांठ सौ में पावे साठ का नारा जब रंग लाने लगा तो सत्ता में कांग्रेस की जमीन खिसकना शुरू हुयी जिसे पहले पार्टी ने गंभीरता से संज्ञान में नहीं लिया। 1977 में केंद्र में कांग्रेस का जो तख्ता पलट हुआ उसमें इमरजेंसी और परिवार नियोजन जैसे मुद्दों के साथ कांग्रेस के प्रति पिछड़ों की वितृष्णा भी बड़ा कारक बना। समाजवादी विचारधारा के दलों और साथ साथ में जनसंघ घटक के पास भी पिछड़ा जन आधार की बड़ी पूजी इकट्ठी होती गयी थी जिससे कांग्रेस की केंद्र में पहली बार चुनावी हार का रास्ता तैयार हुआ। सत्ता खोने के बाद कांग्रेस में इस सामाजिक उथल पुथल को लेकर चर्चा शुरू हुयी और यह विचार सामने आया कि अगर पार्टी को राजनीति में सर्वाइव करना है तो पिछड़ों के साथ उसे पावर शेयरिंग करनी पड़ेगी। 1980 में इसी कारण कांग्रेस जब सत्ता में वापस लौटी तो उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जाति के नेताओं में से किसी एक को मुख्यमंत्री पद सौंपने का प्रस्ताव मजबूती के साथ उसके सामने आया। फिर भी वह इस ओर कदम उठाने का साहस नहीं कर सकी। उत्तर प्रदेश में पहले वीपी सिंह मुख्यमंत्री बनाये गये। उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले ही इस्तीफा दे दिया तो कांग्रेस हाइकमान को फिर याद दिलाया गया कि पार्टी के लिये प्रदेश में पिछड़े वर्ग के नेता को आगे लाना कितना जरूरी है जिसका फायदा देशभर में कांग्रेस पार्टी उठा सकती है। पर वह अपने द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा में खुद को इस तरह बांधे हुये थी कि वह फिर पिछड़े वर्ग के हाथ में उत्तर प्रदेश की सत्ता सौंपने का फैसला नहीं कर सकी। इसलिये वीपी सिंह के हटने पर उनके स्थान पर श्रीपति मिश्र को मुख्यमंत्री बना दिया गया। 1980 से 1989 तक उत्तर प्रदेश में कई बार नेतृत्व परिवर्तन करना पड़ा पर कांग्रेस हर बार नये मुख्यमंत्री की तलाश में क्षत्रिय और ब्राह्मण नेताओं के बीच ही पार्टी झूलती रही। अगर कांग्रेस ने वक्त की आवाज समय रहते सुन ली होती और उत्तर प्रदेश में पिछड़े चेहरे को मुख्यमंत्री बना दिया होता तो शायद 1989 में उसे सत्ता से बेदखली का सामना न करना पड़ता। 1989 में वीपी सिंह के चेहरे ने केवल त्वरण का काम किया लेकिन बदलाव के पीछे मुख्य बात पिछड़े जनाधार द्वारा कांग्रेस को खारिज करने की भावना रही। सत्ता का चस्का लगने के बाद पिछड़ी जातियों की अपने वर्चस्व को सबसे ऊपर करने की महत्वाकांक्षा उन्माद के स्तर पर सतह पर उभर आयी। समाज में द्वंद्वात्मकता का एक नया अखाड़ा इसके चलते तैयार हो गया। राजनीति में अस्थिर सत्ता के एक नये दौर का सूत्रपात हुआ जिससे केंद्र से लेकर प्रदेशों तक उठा पटक मची रही। इस तूफान को अन्ततोेगत्वा शांत होने के लिये एक मुकाम पर पहुंचना लाजिमी था सो 2014 में आश्चर्यजनक ढंग से भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत दिलाते हुये नरेंद्र मोदी ने उठा पटक की राजनीति का एक चक्र पूर्णता पर पहुंचा दिया। इस उपलब्धि को स्थायी बनाने के लिये उन्हें वोटरों का कारगर समीकरण बनाने की जरूरत थी। इसलिये उन्होंने बहुजनों को हर तरीके से साधा। पिछड़ों में यह स्थापित किया कि वे उन्हीं के बीच के आदमी हैं। पिछड़ों ने इसके चलते उनके प्रधानमंत्री पद पर होने को अपनी गौरव भावना से जोड़ लिया और इसका चुनावी लाभ चुनाव दर चुनाव मोदी
को मिलना शुरू हो गया।
लेकिन राहुल गांधी पिछड़ों में मोदी के प्रति अपना होने के व्याप्त विश्वास की नींव हिलाने में सफल हुये हैं। हालांकि इसकी कोशिशें पहले भी हुयीं थी। अखिलेश यादव और अन्य पिछड़े नेताओं ने मतदाताओं को यह समझाने की कोशिश की थी कि मोदी बनावटी पिछड़े नेता हैं क्योंकि उनकी कौम शुरू से पिछड़ा घोषित नहीं रही। इसे उन्होंने बाद में पिछड़ों की सूची में दर्ज कराया। इसलिये उनके मन में खांटी पिछड़े नेता की तरह इस वर्ग के हित की प्रतिबद्धता नहीं है। वे मूल रूप से सवर्ण हैं और कपट पूर्वक पिछड़ों के हितैषी बनकर सवर्णों के हितों की रक्षा का काम असली तौर पर कर रहे हैं। राहुल गांधी जितना भी हो उतना प्रतिशत पिछड़ों में यह भावना जगाने में सफल हो रहे हैं कि मोदी का भरोसा करके उन्होंने अपने साथ दगा को न्यौत दिया है। राहुल गांधी के अभियान से जहां कांग्रेस मुख्य धारा में है वहां पिछड़ों का एक बड़ा प्रतिशत कांग्रेस की ओर और अन्य राज्यों में सामाजिक न्याय की दूसरी पार्टियों की ओर झुकाव दिखाने लगा है। निश्चित रूप से मोदी इससे फिक्रमंद हैं और इसीलिये उन्हें फिर अपनी जाति बताने की युक्ति सूझ पड़ी है। अब देखना यह है कि क्या काठ की हांडी बार बार चढ़ाने का करिश्मा दिखाने में मोदी क्या कामयाब हो सकते हैं। जबकि आमतौर पर अगर एक बार किसी के प्रति जिसे वह अपना सबसे बड़ा रहनुमा मानता हो विश्वास दरक जाये तो फिर वह जुड़ नहीं पाता। अगर यह ट्रेंड चलता है तो मोदी के लिये विधानसभा चुनाव ही नहीं लोकसभा चुनाव की राह भी कांटों भरी हो जायेगी।