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Tuesday, October 22, 2024

घोसी में सपा के पीडीए को कैसे मिल गया सवर्णों का साथ

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उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के अन्तर्गत आने वाले घोसी विधानसभा क्षेत्र के हाल के चुनाव के परिणाम की व्याख्या के लिये कई पहलुओं पर मंथन किया जा सकता है। 2022 में यहां से समाजवादी पार्टी के टिकट पर दारा सिंह चौहान विजयी हुये थे। लेकिन समाजवादी पार्टी प्रदेश में सरकार नहीं बना सकी थी। जबकि चुनाव के पहले ऐसी हवा बनी थी जिससे बहुत से लोगों को लगने लगा था कि योगी सरकार के पैर इस चुनाव में उखड़ जायेंगे और समाजवादी पार्टी एक बार फिर प्रदेश की सत्ता पर कब्जा जमा लेगी। लंबे समय से सत्ता के मामले में उत्तर प्रदेश का इतिहास भी कुछ इस तरह का रहा था। 1989 में कांग्रेस के सत्ता से बाहर होने के बाद पहले जनता दल ने सरकार बनायी जो अल्पकालिक सिद्ध हुई। 1991 में नये चुनाव हुये जिसमें भाजपा सत्ता में पहुंच गयी लेकिन अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ध्वंस किये जाने पर इस सरकार को तत्कालीन केंद्र सरकार ने बर्खास्त कर दिया। 1993 में नया चुनाव हुआ तो सपा बसपा गठबंधन सत्तासीन हो गया। यह सरकार भी पूरे समय काम नहीं कर सकी। इसके बाद सरकारें बनती रहीं और उठा पटक होती रही। लंबे अंतराल के बाद 2007 में कोई पार्टी पूरे बहुमत के साथ सत्ता में पहुंची। बसपा की इस सरकार का नेतृत्व मायावती ने किया। कुल जमा उनकी सरकार को लोग ठीक मानते थे इसलिये मायावती मुगालते में थीं कि नये चुनाव में एक बार फिर लोग उन्हीं के हाथों में सत्ता की कमान सौंप देंगे। पर लोगों ने यह गवारा नहीं किया। खासतौर से तत्कालीन परिस्थितियों में जिस तरह से उन्होंने प्रदेश की उखड़ी कानून व्यवस्था को पटरी पर लाकर खड़ा किया था उससे उन्हें विश्वास था कि बहुजन के साथ साथ सवर्ण भी उनके मुरीद हो गये हैं। लेकिन उनका यह भोला भरोसा 2012 के चुनाव में टूट गया। सवर्ण समुदाय ने एक बार फिर उनके मुकाबले उस समाजवादी पार्टी को चुन लिया। जिसकी तथाकथित गुंडाशाही से त्रस्त होकर 2007 में वे मायावती के शरण में गये थे। दरअसल मायावती सवर्ण मनोविज्ञान को समझ नहीं पायीं जो जातीय पूर्वाग्रह के कारण न तो बहुजन समाजवादी पार्टी को बचा सकता था और न समाजवादी पार्टी को लेकिन जब तक कोई और विकल्प न आ जाये तब तक वह राजनीति के तवे पर सत्ता की रोटी को उलटने पुलटने की रणनीति पर अमल कर रहा था ताकि इन दोनों पार्टियों में से कोई सत्ता में स्थायी जगह न बना पाये। उसके मंसूबे 2017 में भाजपा का विकल्प सामने दिखने पर पूरे हो गये तो उसने अपना खिलवाड़ बंद कर दिया। बहरहाल अन्य लोगों की तरह दारा सिंह भी 2022 में चकमा खा गये थे और सत्ता में सदाबहार सुख के लिये भाजपा से कूंदकर सपा की गोद में जा बैठे थे पर जब चुनाव परिणाम आये तो सपा को फिर विपक्ष में बैठना पड़ा जिससे दारा सिंह हालांकि खुद विधान सभा जीत गये थे लेकिन तो भी वे अकुलाने लगे। उन्हें सत्ता सुख की पिपासा सताने लगी जिससे कुछ दिनों बाद ही हृदय परिवर्तन कर उन्होंने भाजपा में घर वापसी कर ली। इसके चलते मजबूरी में उन्हें विधान सभा से भी इस्तीफा देना पड़ा। वे क्या कोई उम्मीद नहीं कर रहा था कि यह उनके लिये घाटे का सौदा सिद्ध होगा। लोगों का अनुमान था कि भले ही घोसी के मतदाताओं को इतनी जल्दी नये चुनाव को झेलने की नौबत का सामना करना पड़ गया हो पर योगी बाबा की खातिर एक बार फिर वे दारा सिंह के गले में ही विजयमाल डालने को मजबूर दिखेंगे। इसके बावजूद भाजपा ने उनके लिये पूरी ताकत झोकने में भी गफलत नहीं की। इतने मंत्री उतार दिये कि हर बूथ पर एक मंत्री नियुक्त दिखा। दोनों उप मुख्यमंत्री तो घोसी में गली गली घूमे ही, खुद योगी बाबा भी उनके लिये सभा करने पहुंचे। हालांकि इसमें विवाद है कि योगी बाबा ने इसका केवल दिखावा किया था या उन्होंने सचमुच मन से दारा सिंह के लिये कोशिश की थी। जो भी हो पर दारा सिंह की हार से भाजपा के साथ साथ किरकिरी तो योगी बाबा की ही हुयी है। यह संयोग है कि योगी बाबा अगर मन में किसी से अप्रसन्न हो जायें तो पूरी भाजपा उसके साथ खड़ी रहे पर उसका भला नहीं हो पाता।
इसके गवाह केशवप्रसाद मौर्य भी हैं। पूरी भाजपा 2022 में उत्तर प्रदेश में जीती लेकिन केशव मौर्या गच्चा खा गये। केंद्रीय नेतृत्व का वरदहस्त होने से केशव मौर्या को गुमान हो गया था कि वे कौन योगी बाबा से कम हैं। 2017 वाली सरकार में इस घमंड में उन्होंने योगी बाबा को खूब आहत किया पर जब वे चुनाव हार गये तो उन्हें भीगी बिल्ली बनना पड़ा। भले ही केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हे फिर उप मुख्यमंत्री बनवा दिया हो लेकिन अब उनमें पहले जैसा कस-बल नहीं रहा। उन्होंने समझ लिया कि गुजर इसी में है कि वे बाबा के विनम्र अनुयायी बनकर उनके साथ सरकार में काम करें।
दारा सिंह जीतते तो ओमप्रकाश राजभर का भी सीना फूल जाता जो बाबा को चुनौती देने में सारी मर्यादायें लांघ गये थे। बाबा की कतई मर्जी नहीं थी कि इस उद्दण्डता के बाद पार्टी उनके साथ फिर से कोई गठबंधन करे। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व को तो इन गुस्ताखियों के कारण ही ओमप्रकाश राजभर में काम का आदमी सूझता है सो उनसे एक बार फिर हाथ मिला लिया गया। ओमप्रकाश राजभर ने दारा सिंह को जिताने का ठेका ले रखा था। बाबा को यह क्यों सुहाता। कुछ भी हो लेकिन दारा सिंह चैहान केंद्रीय नेतृत्व द्वारा उनके लिये जमीन आसमान के कुलाबे जोड़ने के बावजूद जीत नहीं सके। यह दूसरी बात है कि ओमप्रकाश राजभर का बड़बोलापन अभी भी खत्म नहीं हुआ है। वे केंद्रीय नेतृत्व का हाथ पीठ पर होने के कारण योगी बाबा की छाती पर मूंग दलने के लिये प्रदेश मंत्रिमंडल में जगह पाने का दिवा स्वप्न देख रहे हैं लेकिन जो बाबा की जिद से परिचित है वे जानते हैं कि यह तो होने से रहा। इसी मुगालते में अरविंद शर्मा को काफी दिनों अपनी फजीहत करानी पड़ गयी थी। जब वे अपनी हैसियत में रहकर काम करने के लिये तैयार दिखने लगे तभी उन्हे योगी का कृपा प्रसाद मिल पाया। ओमप्रकाश राजभर चूंकि नादान हैं इसलिये वे तो भी यह बात नहीं जान पा रहे कि उत्तर प्रदेश में भाजपा में निभाना है तो बाबा बाबा कहना पड़ेगा।
अलबत्ता घोसी में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की जीत कई तरह से अप्रत्याशित मानी जा सकती है जिसमें भविष्य की राजनीति के कई संकेत छिपे हुये हैं।
भाजपा के साथ साथ राजनीतिक प्रेक्षकों को भी यह अंदाजा था कि स्वामी प्रसाद मौर्या जिस तरह से बार बार हिंदू धर्म को लेकर बगावती सुर बोल देते हैं और शिवपाल सहित सपा का ही एक बड़ा वर्ग इस पर नाक भौं सिकोड़ता है तो भी उन्हें रोकना टोकना तो दूर अखिलेश यादव उनको प्रमोट कर रहे हैं यह बात भारी न पड़ जाये। इसके अलावा अखिलेश यादव ने पीडीए का एक नया राग सीख लिया है जिसको तूल देकर भाजपा उन पर निशाना साध रही है कि उन्हें तो केवल पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वोट चाहिए, सवर्ण नहीं। अखिलेश की इन नासमझियों से सवर्ण वोट सपा से छिटक गया होगा जबकि पिछड़ों और दलितों का भी ध्रुवीकरण उनकी तरफ होने से रहा क्योंकि वे सवर्णों की तरह जागरूक नहीं हैं। भाजपा ने उन पर धर्मांन्धता का पर्याप्त रंग चढ़ा दिया है इसलिये उनका भी एक बड़ा वर्ग भाजपा के साथ रहेगा ही। कुल मिलाकर सपा के नेता भी घोसी के चुनाव परिणाम को लेकर शंका से घिरे हुये थे और राजनैतिक प्रेक्षक भी मान रहे थे कि भाजपा इस सीट पर अपना कब्जा बहाल रखने में सफल होगी लेकिन सुधाकर सिंह जीते तो उसकी एक वजह यह रही कि सपा के परंपरागत मतों के अलावा सवर्णों खासतौर से क्षत्रिय मतदाताओं तक उनकी झोली में चले गये। कहने का मतलब यह है कि इस बार दलित और पिछड़ों पर तो धर्म का नशा बरकरार रहा नहीं। उल्टे सवर्णों में धर्म का नशा उतर गया। यह एक चेतावनी है कि अयोध्या में अगले वर्ष के शुरू में भव्य राम मंदिर का जो उद्घाटन होने वाला है उससे एक बार फिर भाजपा  अपनी गोटी लाल कर ले जायेगी उसका यह विश्वास कहीं दगा न दे जाये। कारण यह नहीं है कि लोगों में अचानक धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धता का प्रादुर्भाव हो गया हो। दरअसल यह पहले भी देखा जाता रहा है कि पार्टी भले ही धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे लेकिन उस पार्टी  में तमाम लोग व्यवहार में रूढिवादी रूख दिखाने में पीछे नहीं रहते । इतिहास बताता है कि धर्म और राजनीति के मामले में अलग अलग व्यवहार करने की मानसिकता के उदाहरणों से कांग्रेस तो भरी पड़ी है। गांधी की हत्या में ही देखें परीक्षण न्यायालय ने ऐसे साक्ष्य आने पर जिससे इसमें सावरकर की संलिप्तता का संदेह होता था उनके ट्राॅयल की जरूरत नहीं समझी थी। भाजपा जैसा प्रचारित करती है अगर कांग्रेस में धर्मनिरपेक्षता को लेकर वैसी कोई कटिबद्धता होती और हिंदूवादी नेताओं के प्रति दुराग्रह होता तो सावरकर को लेकर तत्कालीन सरकार अपील में ऊंची अदालत में पहंुच जाती पर ऐसा कहां हुआ। राजीव गांधी ने जब अयोध्या में विवादित होते हुये भी राम मंदिर का ताला खुलवाया तो क्या धर्मनिरपेक्षता के नाते इसे ईमानदार कदम कहा जा सकता है। नरसिंहा राव के बारे में तो उनकी नीति को देखते हुए मणिशंकर अय्यर ने हाल ही में अपनी किताब में लिख ही दिया है कि वे पहले भाजपाई प्रधानमंत्री थे। इसी तरह भाजपा को और खासतौर से इसके वर्तमान नेतृत्व को लेकर देखें तो क्या मुलायम सिंह को मरणोपरांत पदम विभूषण देकर उसने किसी हिंदुत्व की रक्षा की है जिन्होंने कहा था कि उन्होंने संविधान की रक्षा के लिये कार सेवकों पर गोली चलवायी थी जिसमें 13 रामभक्त मारे गये थे फिर भी उन्हें इसका मलाल नहीं है। अगर 30 कार सेवक मारे गये होते तो भी बाबरी मस्जिद बचाने के लिये वे गोली चलवाने से पीछे नहीं हटते। लेकिन इससे हिंदुत्ववादी भाजपा पर भड़क तो नहीं गए |धर्म को लेकर राजनीति में भारतीय समाज का दोहरापन उसका चरित्र है जिसकी अपवाद कोई पार्टी नहीं है और इससे किसी का वोटों के मामले कोई ख़ास नुकसान नहीं हुआ |साफ़ जाहिर है कि लोग राजनीतिक फैसलों में पार्टी का धार्मिक चरित्र कुछ ख़ास याद नहीं कर पाते क्योंकि उन्हें मालूम है कि इस देश में कोई पार्टी न तो खांटी धर्म निरपेक्ष हैऔर न ही कोई किसी धर्म का बड़ा पुजारी है|

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