प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति साम,दाम, दण्ड, भेद के हथकंडे अपनाकर विपक्ष विहीन राजनीतिक व्यवस्था कायम करना है जो एक सर्वसत्तात्मक व्यवस्था हो और जिसमें उनके द्वारा निरंकुश शासन संचालित किया जा सके। इस मकसद से काम करने में सत्ता के भीषण दुरूपयोग में कोई हर्जा नहीं दिखता और इसे आज साफ तौर पर अनुभव किया जा सकता है। लेकिन यह सोच संसदीय लोकतंत्र की नैतिकता के एकदम विरूद्ध है और देश को खतरनाक स्थितियों में धकेलने की आशंका इससे सृजित होती है।
इसी सोच के तहत भाजपा के लोकसभा चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री मोदी ने दूसरी पार्टियों में तोड़फोड़ करके उनके नेताओं को एक के बाद एक अपनी पार्टी में शामिल कराने का वृहत अभियान जोड़ दिया है। इसके लिए भाजपा अपने सैद्धांतिक आकर्षण को बढ़ाने का काम करने की वजाय दूसरी पार्टियों के ढ़ुलमुल नेताओं पर हर तरह के प्रलोभन का मोहपाश फेंकने का काम कर रही है। अनुमान किया जा सकता है कि उन थैली शाहों ने जिनको मोदी सरकार में मुनाफा लूटने का भारी अवसर दिया गया मुक्त हस्त से दूसरी पार्टियों के नेताओं को दल बदल के लिए मुक्त हस्त से नकदी की व्यवस्था कर दी है। भारतीय जनता पार्टी के पास इस मामले में कुबेर पतियों का किस हद तक सहारा उपलब्ध है यह मोदी सरकार के 10 वर्षों में विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को गिराने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त हेतु खर्च की गई अनाप शनाप दौलत से पहले ही जाहिर हो चुका था। हाल में राज्यसभा चुनाव में भी यह नजारा बहुत प्रत्यक्ष रहा। एक समय था जब जनता दल परिवर्तन की दुहाई के साथ राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु बनकर छाया हुआ था उस समय बात होती थी कि सार्वजनिक जीवन में धनबल और बाहुबल के दखल को कैसे न्यून किया जाये। उस समय तक भी युवाओं में माहौल आदर्शवादी हुआ करता था इसलिए जनता दल की ऐसी कोशिशें उनको खूब आलोड़ित करती थी। हालांकि जनता दल सत्ता में आने के बाद फासिस्ट और कबीलाई सोच वाले नेताओं के गिरोह के चंगुल में फंसता गया इसलिए बाहुबल से जनता दल को मुक्त करने के संकल्प धरे रह गये। बाद में जनता दल की यही तनातनी इसमें टूट का कारण बनी। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह आखिर तक बाहुबल और थैली बल से आजाद राजनीतिक माहौल के लिए पैरवी करते रहे और इससे पूरे राजनैतिक माहौल में इसके लिए हिलोर बनी रही।
इस हिलोर से अटल युगीन भाजपा भी आलोड़ित रही इसीलिए अटल युग में भाजपा ने पार्टी विथ ए डिफरेंस का नारा दिया था और यह थोपा हुआ नारा नहीं था। कार्यकर्ता भी इस नारे से प्रभावित था और इससे नैतिक ऊर्जा का अनुभव करता था। मोदी जब सत्ता में आये तो कार्यकर्ताओं का सपना इसी के अनुरूप देश में एक नई व्यवस्था कायम करना था। मोदी ने भी अपने पहले कार्यकाल की शुरूआत में इसके अनुरूप कार्य करने की चेष्टा की। विदेश नीति के मोर्चे पर उन्होंने भी अलग तरह की भावना प्रदर्शित की थी जब अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मिया नवाज शरीफ को दावत भेजी थी। यहां तक कि नवाज शरीफ की पोती की शादी में वे बिना बुलाये उसके लिए उपहार लेकर पाकिस्तान चले गये थे। हालांकि बाद में बताया यह गया था कि उन्होंने यह बेहयायी अपने उद्योगपति मित्र अदाणी के बिजनेस इंटरेस्ट के कारण की थी। पहले कार्यकाल में वे गौ रक्षा के नाम पर हिंसा करने वालों के लिए यह कहने की दलेरी दिखा सके थे कि ऐसे लोग गौ भक्त नहीं गुण्डे हैं। देश की कोमी इकजैहती को बचाने का ख्याल भी उनके मन में था इसलिए पहले कार्यकाल में अयोध्या विवाद और कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने की दिशा में वे कोई प्रगति नहीं कर सके थे। लेकिन दूसरे कार्यकाल तक आते-आते उनके सामने स्पष्ट हो गया कि उन्होंने गुजरात में हिन्दू हृदय सम्राट की छवि जिन कारनामों से बनाई थी उन्हीं के मद्देनजर कट्टरवादियों के आक्रामक समर्थन से उन्हें देश की सत्ता नसीब हुई है और अगर वे अटल जी के पद चिन्हों पर चले तो विश्व शांति का नोबल पुरस्कार तो मिलने का भरोसा नहीं है पर अपनी मौलिकता को तजकर वे कट्टरपंथियों में मोह भंग को जन्म देने के लिए अभिशप्त हो जायेंगे और उनका नेतृत्व लड़खड़ा जायेगा। इसलिए दूसरे कार्यकाल में उनकी दिशा बदल गई। उन्होंने कट्टरवादियों की कसौटी पर अपने को खरा साबित करने की कार्यनीति अपना ली। पूरे देश को बदले की आग में झोंक दिया और कोई समाज जब बदले की भावना से उन्मत हो जाता है तो उसकी नैतिक भावना एकदम समाप्त हो जाती है। आज यही हो रहा है। मोदी बेखटक होकर राजनीति की सारी स्वस्थ्य परंपराओं को तिलांजलि देने व विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी एजेंसियों की सहायता से दमन चक्र चलाने में जुटे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि बदले की भावना में डूबा देश का जनमत वे कुछ भी करें उन पर उंगली नहीं उठायेगा और ऐसे कृत्यों को पराक्रम मानकर उन्हें अवतारी पुरूष के रूप में स्थापित करने में लग जायेगा क्योंकि ईश्वरीय अवतार घोषित करने के लिए किसी व्यक्ति का चयन करने का आधार ऐसे ही पराक्रम रहे हैं।
दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इस समय वैचारिक अंतद्र्वंद से घिरी हुई है। सामाजिक तौर पर कांग्रेस में ऐसी सोच के वर्ग हावी रहे हैं जो सामाजिक यथा स्थिति के लिए समर्पित थे। राहुल गांधी ने बिना किसी होमवर्क के बहुजन की भागीदारी का तराना पार्टी के अंदर छेड़कर पार्टी की वर्ग सत्ता को झकझोर डाला है। उनकी मुश्किल यह है कि उनके अभियान से पिछड़ा वर्ग तो पार्टी से जुड़ नहीं रहा लेकिन पार्टी में प्रभावी वर्ग विचलित हो उठा है। सामाजिक बदलाव की दिशा तो सोनिया गांधी जब राजनीति में आयी थी तब उन्होंने भी अख्तियार की थी लेकिन अपने संदेश को प्रसारित करने के लिए पार्टी को उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने के बतौर ढ़ालते हुए उन्होंने जनता दल के थिंक टैंक अपने साथ जोड़ लिये थे। इसलिए संक्रमण के दौर में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने का श्रेय उन्हें मिल गया था। राहुल गांधी ऐसी टीम नहीं बना सके हैं जो जातिगत जनगणना और सत्ता के केन्द्रों में वंचितों के समुचित प्रतिधित्व के उनके नारे को बल देने का काम कर सके। कांग्रेस के एक बहुत मजबूत प्रवक्ता गौरव बल्लभ ने पार्टी इसीलिए छोड़ी क्योंकि उनकी वर्ग चेतना राहुल गांधी के अभियान को आघात के तौर पर संज्ञान में ले रही थी जिससे वे छटपटा उठे थे। उन्होंने पार्टी छोड़ने और भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस पार्टी पर जो वैचारिक प्रहार किये हैं वे बेहद थोथे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस नेतृत्व ने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल न होने का जो निर्णय लिया वह बहुत गलत था तो क्या कांग्रेस पार्टी उस दिन जाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अभ्यर्थना करती और आत्मघात कर लेती। यह तो बहाना है अगर उन्हें भगवान राम में इतनी ही श्रृद्धा थी तो उन्हें कांग्रेस पार्टी में शामिल ही नहीं होना चाहिए था जब वे जानते थे कि इस पार्टी ने राम के अस्तित्व को नकारने वाला शपथ पत्र अपने सरकार के समय कोर्ट में दिया था। इसी तरह उन्होंने कहा कि पूंजी बनाने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर कांग्रेस देश का भला नहीं कर रही। उनका इशारा कांग्रेस द्वारा अदाणी की गड़बड़ियों पर किये जा रहे प्रहार को लेकर था। क्या अदाणी देश के लिए वैल्थ निर्माण कर रहे हैं। गौतम अदाणी के भाई विनोद अदाणी दूसरे देश की नागरिकता ले चुके हैं। उन्होंने इस देश की परिसंपत्तियां दूसरे देश को सौंपने का कार्य किया। गौतम अदाणी भी आगे चलकर ऐसा करेंगे यह क्यों नहीं माना जाना चाहिए। तो गौरव बल्लभ का तर्क इस मामले में भी लंगड़ा है। कांग्रेस अगर कारपोरेट के खिलाफ होती तो उसकी राज्य सरकारों के होते हुए उनके यहां गौतम अदाणी निवेश क्यों करते। राहुल गांधी गौतम अदाणी के संदर्भ में मोनोपाली का विरोध कर रहे हैं न कि कारपोरेट जगत का। राहुल गांधी को एतराज प्रधानमंत्री द्वारा नाजायज तरीके से अदाणी और अंबानी का पोषण करने पर है और लाभ में चलने वाले सरकारी उद्योगों के अंधाधुंध विनिवेश पर। अगर वे विनिवेशीकरण के इतने बड़े समर्थक हैं तो कांग्रेस में क्यों चले आये। उन्हें तो भाजपा में ही आना चाहिए था जिसने अटल जी के समय ही बाकायदा विनिवेश मंत्रालय बनाकर इसकी शुरूआत की थी। गौरव बल्लभ जिस तरह की भाषा बोलते थे उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि उनकी बौद्धिकता कभी भाजपा में जाने के लिए गंवारा करेगी। उन्हें कांग्रेस पार्टी से समस्या थी तो वे किसी और प्रगतिशील पार्टी का दामन थाम सकते थे लेकिन मूल बात यह है कि उनकी कट्टर सवर्ण मानसिकता राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के आंदोलन के कारण विफर उठी थी। उन्हें बड़ा दर्द है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले करते हैं लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि नरेन्द्र मोदी से ज्यादा विरोधियों पर व्यक्तिगत हमले कोई नहीं करता। फिर भी चुनाव के बीच गौरव बल्लभ जैसे नेताओं का कांग्रेस पार्टी छोड़ना उसकी राजनीतिक फिजा को बुरी तरह बिगाड़ने वाला है। राहुल गांधी को अब सतर्क हो जाना चाहिए। उन्हें अब कांग्रेस पार्टी के कायाकल्प की सूझबूझ दिखानी पड़ेगी और सामाजिक न्याय के अभियान से कुछ हासिल करने के लिए पार्टी में वंचित वर्ग के नेताओं का हरावल दस्ता बनाना पड़ेगा। क्या इसकी कोई रणनीति उनके पास है।
लोकसभा चुनाव के अभियान के बीच कांग्रेस पर आघात दर आघात
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति साम,दाम, दण्ड, भेद के हथकंडे अपनाकर विपक्ष विहीन राजनीतिक व्यवस्था कायम करना है जो एक सर्वसत्तात्मक व्यवस्था हो और जिसमें उनके द्वारा निरंकुश शासन संचालित किया जा सके। इस मकसद से काम करने में सत्ता के भीषण दुरूपयोग में कोई हर्जा नहीं दिखता और इसे आज साफ तौर पर अनुभव किया जा सकता है। लेकिन यह सोच संसदीय लोकतंत्र की नैतिकता के एकदम विरूद्ध है और देश को खतरनाक स्थितियों में धकेलने की आशंका इससे सृजित होती है।
इसी सोच के तहत भाजपा के लोकसभा चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री मोदी ने दूसरी पार्टियों में तोड़फोड़ करके उनके नेताओं को एक के बाद एक अपनी पार्टी में शामिल कराने का वृहत अभियान जोड़ दिया है। इसके लिए भाजपा अपने सैद्धांतिक आकर्षण को बढ़ाने का काम करने की वजाय दूसरी पार्टियों के ढ़ुलमुल नेताओं पर हर तरह के प्रलोभन का मोहपाश फेंकने का काम कर रही है। अनुमान किया जा सकता है कि उन थैली शाहों ने जिनको मोदी सरकार में मुनाफा लूटने का भारी अवसर दिया गया मुक्त हस्त से दूसरी पार्टियों के नेताओं को दल बदल के लिए मुक्त हस्त से नकदी की व्यवस्था कर दी है। भारतीय जनता पार्टी के पास इस मामले में कुबेर पतियों का किस हद तक सहारा उपलब्ध है यह मोदी सरकार के 10 वर्षों में विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को गिराने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त हेतु खर्च की गई अनाप शनाप दौलत से पहले ही जाहिर हो चुका था। हाल में राज्यसभा चुनाव में भी यह नजारा बहुत प्रत्यक्ष रहा। एक समय था जब जनता दल परिवर्तन की दुहाई के साथ राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु बनकर छाया हुआ था उस समय बात होती थी कि सार्वजनिक जीवन में धनबल और बाहुबल के दखल को कैसे न्यून किया जाये। उस समय तक भी युवाओं में माहौल आदर्शवादी हुआ करता था इसलिए जनता दल की ऐसी कोशिशें उनको खूब आलोड़ित करती थी। हालांकि जनता दल सत्ता में आने के बाद फासिस्ट और कबीलाई सोच वाले नेताओं के गिरोह के चंगुल में फंसता गया इसलिए बाहुबल से जनता दल को मुक्त करने के संकल्प धरे रह गये। बाद में जनता दल की यही तनातनी इसमें टूट का कारण बनी। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह आखिर तक बाहुबल और थैली बल से आजाद राजनीतिक माहौल के लिए पैरवी करते रहे और इससे पूरे राजनैतिक माहौल में इसके लिए हिलोर बनी रही।
इस हिलोर से अटल युगीन भाजपा भी आलोड़ित रही इसीलिए अटल युग में भाजपा ने पार्टी विथ ए डिफरेंस का नारा दिया था और यह थोपा हुआ नारा नहीं था। कार्यकर्ता भी इस नारे से प्रभावित था और इससे नैतिक ऊर्जा का अनुभव करता था। मोदी जब सत्ता में आये तो कार्यकर्ताओं का सपना इसी के अनुरूप देश में एक नई व्यवस्था कायम करना था। मोदी ने भी अपने पहले कार्यकाल की शुरूआत में इसके अनुरूप कार्य करने की चेष्टा की। विदेश नीति के मोर्चे पर उन्होंने भी अलग तरह की भावना प्रदर्शित की थी जब अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मिया नवाज शरीफ को दावत भेजी थी। यहां तक कि नवाज शरीफ की पोती की शादी में वे बिना बुलाये उसके लिए उपहार लेकर पाकिस्तान चले गये थे। हालांकि बाद में बताया यह गया था कि उन्होंने यह बेहयायी अपने उद्योगपति मित्र अदाणी के बिजनेस इंटरेस्ट के कारण की थी। पहले कार्यकाल में वे गौ रक्षा के नाम पर हिंसा करने वालों के लिए यह कहने की दलेरी दिखा सके थे कि ऐसे लोग गौ भक्त नहीं गुण्डे हैं। देश की कोमी इकजैहती को बचाने का ख्याल भी उनके मन में था इसलिए पहले कार्यकाल में अयोध्या विवाद और कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने की दिशा में वे कोई प्रगति नहीं कर सके थे। लेकिन दूसरे कार्यकाल तक आते-आते उनके सामने स्पष्ट हो गया कि उन्होंने गुजरात में हिन्दू हृदय सम्राट की छवि जिन कारनामों से बनाई थी उन्हीं के मद्देनजर कट्टरवादियों के आक्रामक समर्थन से उन्हें देश की सत्ता नसीब हुई है और अगर वे अटल जी के पद चिन्हों पर चले तो विश्व शांति का नोबल पुरस्कार तो मिलने का भरोसा नहीं है पर अपनी मौलिकता को तजकर वे कट्टरपंथियों में मोह भंग को जन्म देने के लिए अभिशप्त हो जायेंगे और उनका नेतृत्व लड़खड़ा जायेगा। इसलिए दूसरे कार्यकाल में उनकी दिशा बदल गई। उन्होंने कट्टरवादियों की कसौटी पर अपने को खरा साबित करने की कार्यनीति अपना ली। पूरे देश को बदले की आग में झोंक दिया और कोई समाज जब बदले की भावना से उन्मत हो जाता है तो उसकी नैतिक भावना एकदम समाप्त हो जाती है। आज यही हो रहा है। मोदी बेखटक होकर राजनीति की सारी स्वस्थ्य परंपराओं को तिलांजलि देने व विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी एजेंसियों की सहायता से दमन चक्र चलाने में जुटे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि बदले की भावना में डूबा देश का जनमत वे कुछ भी करें उन पर उंगली नहीं उठायेगा और ऐसे कृत्यों को पराक्रम मानकर उन्हें अवतारी पुरूष के रूप में स्थापित करने में लग जायेगा क्योंकि ईश्वरीय अवतार घोषित करने के लिए किसी व्यक्ति का चयन करने का आधार ऐसे ही पराक्रम रहे हैं।
दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इस समय वैचारिक अंतद्र्वंद से घिरी हुई है। सामाजिक तौर पर कांग्रेस में ऐसी सोच के वर्ग हावी रहे हैं जो सामाजिक यथा स्थिति के लिए समर्पित थे। राहुल गांधी ने बिना किसी होमवर्क के बहुजन की भागीदारी का तराना पार्टी के अंदर छेड़कर पार्टी की वर्ग सत्ता को झकझोर डाला है। उनकी मुश्किल यह है कि उनके अभियान से पिछड़ा वर्ग तो पार्टी से जुड़ नहीं रहा लेकिन पार्टी में प्रभावी वर्ग विचलित हो उठा है। सामाजिक बदलाव की दिशा तो सोनिया गांधी जब राजनीति में आयी थी तब उन्होंने भी अख्तियार की थी लेकिन अपने संदेश को प्रसारित करने के लिए पार्टी को उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने के बतौर ढ़ालते हुए उन्होंने जनता दल के थिंक टैंक अपने साथ जोड़ लिये थे। इसलिए संक्रमण के दौर में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने का श्रेय उन्हें मिल गया था। राहुल गांधी ऐसी टीम नहीं बना सके हैं जो जातिगत जनगणना और सत्ता के केन्द्रों में वंचितों के समुचित प्रतिधित्व के उनके नारे को बल देने का काम कर सके। कांग्रेस के एक बहुत मजबूत प्रवक्ता गौरव बल्लभ ने पार्टी इसीलिए छोड़ी क्योंकि उनकी वर्ग चेतना राहुल गांधी के अभियान को आघात के तौर पर संज्ञान में ले रही थी जिससे वे छटपटा उठे थे। उन्होंने पार्टी छोड़ने और भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस पार्टी पर जो वैचारिक प्रहार किये हैं वे बेहद थोथे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस नेतृत्व ने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल न होने का जो निर्णय लिया वह बहुत गलत था तो क्या कांग्रेस पार्टी उस दिन जाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अभ्यर्थना करती और आत्मघात कर लेती। यह तो बहाना है अगर उन्हें भगवान राम में इतनी ही श्रृद्धा थी तो उन्हें कांग्रेस पार्टी में शामिल ही नहीं होना चाहिए था जब वे जानते थे कि इस पार्टी ने राम के अस्तित्व को नकारने वाला शपथ पत्र अपने सरकार के समय कोर्ट में दिया था। इसी तरह उन्होंने कहा कि पूंजी बनाने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर कांग्रेस देश का भला नहीं कर रही। उनका इशारा कांग्रेस द्वारा अदाणी की गड़बड़ियों पर किये जा रहे प्रहार को लेकर था। क्या अदाणी देश के लिए वैल्थ निर्माण कर रहे हैं। गौतम अदाणी के भाई विनोद अदाणी दूसरे देश की नागरिकता ले चुके हैं। उन्होंने इस देश की परिसंपत्तियां दूसरे देश को सौंपने का कार्य किया। गौतम अदाणी भी आगे चलकर ऐसा करेंगे यह क्यों नहीं माना जाना चाहिए। तो गौरव बल्लभ का तर्क इस मामले में भी लंगड़ा है। कांग्रेस अगर कारपोरेट के खिलाफ होती तो उसकी राज्य सरकारों के होते हुए उनके यहां गौतम अदाणी निवेश क्यों करते। राहुल गांधी गौतम अदाणी के संदर्भ में मोनोपाली का विरोध कर रहे हैं न कि कारपोरेट जगत का। राहुल गांधी को एतराज प्रधानमंत्री द्वारा नाजायज तरीके से अदाणी और अंबानी का पोषण करने पर है और लाभ में चलने वाले सरकारी उद्योगों के अंधाधुंध विनिवेश पर। अगर वे विनिवेशीकरण के इतने बड़े समर्थक हैं तो कांग्रेस में क्यों चले आये। उन्हें तो भाजपा में ही आना चाहिए था जिसने अटल जी के समय ही बाकायदा विनिवेश मंत्रालय बनाकर इसकी शुरूआत की थी। गौरव बल्लभ जिस तरह की भाषा बोलते थे उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि उनकी बौद्धिकता कभी भाजपा में जाने के लिए गंवारा करेगी। उन्हें कांग्रेस पार्टी से समस्या थी तो वे किसी और प्रगतिशील पार्टी का दामन थाम सकते थे लेकिन मूल बात यह है कि उनकी कट्टर सवर्ण मानसिकता राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के आंदोलन के कारण विफर उठी थी। उन्हें बड़ा दर्द है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले करते हैं लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि नरेन्द्र मोदी से ज्यादा विरोधियों पर व्यक्तिगत हमले कोई नहीं करता। फिर भी चुनाव के बीच गौरव बल्लभ जैसे नेताओं का कांग्रेस पार्टी छोड़ना उसकी राजनीतिक फिजा को बुरी तरह बिगाड़ने वाला है। राहुल गांधी को अब सतर्क हो जाना चाहिए। उन्हें अब कांग्रेस पार्टी के कायाकल्प की सूझबूझ दिखानी पड़ेगी और सामाजिक न्याय के अभियान से कुछ हासिल करने के लिए पार्टी में वंचित वर्ग के नेताओं का हरावल दस्ता बनाना पड़ेगा। क्या इसकी कोई रणनीति उनके पास है।
इसी सोच के तहत भाजपा के लोकसभा चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री मोदी ने दूसरी पार्टियों में तोड़फोड़ करके उनके नेताओं को एक के बाद एक अपनी पार्टी में शामिल कराने का वृहत अभियान जोड़ दिया है। इसके लिए भाजपा अपने सैद्धांतिक आकर्षण को बढ़ाने का काम करने की वजाय दूसरी पार्टियों के ढ़ुलमुल नेताओं पर हर तरह के प्रलोभन का मोहपाश फेंकने का काम कर रही है। अनुमान किया जा सकता है कि उन थैली शाहों ने जिनको मोदी सरकार में मुनाफा लूटने का भारी अवसर दिया गया मुक्त हस्त से दूसरी पार्टियों के नेताओं को दल बदल के लिए मुक्त हस्त से नकदी की व्यवस्था कर दी है। भारतीय जनता पार्टी के पास इस मामले में कुबेर पतियों का किस हद तक सहारा उपलब्ध है यह मोदी सरकार के 10 वर्षों में विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को गिराने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त हेतु खर्च की गई अनाप शनाप दौलत से पहले ही जाहिर हो चुका था। हाल में राज्यसभा चुनाव में भी यह नजारा बहुत प्रत्यक्ष रहा। एक समय था जब जनता दल परिवर्तन की दुहाई के साथ राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु बनकर छाया हुआ था उस समय बात होती थी कि सार्वजनिक जीवन में धनबल और बाहुबल के दखल को कैसे न्यून किया जाये। उस समय तक भी युवाओं में माहौल आदर्शवादी हुआ करता था इसलिए जनता दल की ऐसी कोशिशें उनको खूब आलोड़ित करती थी। हालांकि जनता दल सत्ता में आने के बाद फासिस्ट और कबीलाई सोच वाले नेताओं के गिरोह के चंगुल में फंसता गया इसलिए बाहुबल से जनता दल को मुक्त करने के संकल्प धरे रह गये। बाद में जनता दल की यही तनातनी इसमें टूट का कारण बनी। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह आखिर तक बाहुबल और थैली बल से आजाद राजनीतिक माहौल के लिए पैरवी करते रहे और इससे पूरे राजनैतिक माहौल में इसके लिए हिलोर बनी रही।
इस हिलोर से अटल युगीन भाजपा भी आलोड़ित रही इसीलिए अटल युग में भाजपा ने पार्टी विथ ए डिफरेंस का नारा दिया था और यह थोपा हुआ नारा नहीं था। कार्यकर्ता भी इस नारे से प्रभावित था और इससे नैतिक ऊर्जा का अनुभव करता था। मोदी जब सत्ता में आये तो कार्यकर्ताओं का सपना इसी के अनुरूप देश में एक नई व्यवस्था कायम करना था। मोदी ने भी अपने पहले कार्यकाल की शुरूआत में इसके अनुरूप कार्य करने की चेष्टा की। विदेश नीति के मोर्चे पर उन्होंने भी अलग तरह की भावना प्रदर्शित की थी जब अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मिया नवाज शरीफ को दावत भेजी थी। यहां तक कि नवाज शरीफ की पोती की शादी में वे बिना बुलाये उसके लिए उपहार लेकर पाकिस्तान चले गये थे। हालांकि बाद में बताया यह गया था कि उन्होंने यह बेहयायी अपने उद्योगपति मित्र अदाणी के बिजनेस इंटरेस्ट के कारण की थी। पहले कार्यकाल में वे गौ रक्षा के नाम पर हिंसा करने वालों के लिए यह कहने की दलेरी दिखा सके थे कि ऐसे लोग गौ भक्त नहीं गुण्डे हैं। देश की कोमी इकजैहती को बचाने का ख्याल भी उनके मन में था इसलिए पहले कार्यकाल में अयोध्या विवाद और कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने की दिशा में वे कोई प्रगति नहीं कर सके थे। लेकिन दूसरे कार्यकाल तक आते-आते उनके सामने स्पष्ट हो गया कि उन्होंने गुजरात में हिन्दू हृदय सम्राट की छवि जिन कारनामों से बनाई थी उन्हीं के मद्देनजर कट्टरवादियों के आक्रामक समर्थन से उन्हें देश की सत्ता नसीब हुई है और अगर वे अटल जी के पद चिन्हों पर चले तो विश्व शांति का नोबल पुरस्कार तो मिलने का भरोसा नहीं है पर अपनी मौलिकता को तजकर वे कट्टरपंथियों में मोह भंग को जन्म देने के लिए अभिशप्त हो जायेंगे और उनका नेतृत्व लड़खड़ा जायेगा। इसलिए दूसरे कार्यकाल में उनकी दिशा बदल गई। उन्होंने कट्टरवादियों की कसौटी पर अपने को खरा साबित करने की कार्यनीति अपना ली। पूरे देश को बदले की आग में झोंक दिया और कोई समाज जब बदले की भावना से उन्मत हो जाता है तो उसकी नैतिक भावना एकदम समाप्त हो जाती है। आज यही हो रहा है। मोदी बेखटक होकर राजनीति की सारी स्वस्थ्य परंपराओं को तिलांजलि देने व विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी एजेंसियों की सहायता से दमन चक्र चलाने में जुटे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि बदले की भावना में डूबा देश का जनमत वे कुछ भी करें उन पर उंगली नहीं उठायेगा और ऐसे कृत्यों को पराक्रम मानकर उन्हें अवतारी पुरूष के रूप में स्थापित करने में लग जायेगा क्योंकि ईश्वरीय अवतार घोषित करने के लिए किसी व्यक्ति का चयन करने का आधार ऐसे ही पराक्रम रहे हैं।
दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इस समय वैचारिक अंतद्र्वंद से घिरी हुई है। सामाजिक तौर पर कांग्रेस में ऐसी सोच के वर्ग हावी रहे हैं जो सामाजिक यथा स्थिति के लिए समर्पित थे। राहुल गांधी ने बिना किसी होमवर्क के बहुजन की भागीदारी का तराना पार्टी के अंदर छेड़कर पार्टी की वर्ग सत्ता को झकझोर डाला है। उनकी मुश्किल यह है कि उनके अभियान से पिछड़ा वर्ग तो पार्टी से जुड़ नहीं रहा लेकिन पार्टी में प्रभावी वर्ग विचलित हो उठा है। सामाजिक बदलाव की दिशा तो सोनिया गांधी जब राजनीति में आयी थी तब उन्होंने भी अख्तियार की थी लेकिन अपने संदेश को प्रसारित करने के लिए पार्टी को उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने के बतौर ढ़ालते हुए उन्होंने जनता दल के थिंक टैंक अपने साथ जोड़ लिये थे। इसलिए संक्रमण के दौर में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने का श्रेय उन्हें मिल गया था। राहुल गांधी ऐसी टीम नहीं बना सके हैं जो जातिगत जनगणना और सत्ता के केन्द्रों में वंचितों के समुचित प्रतिधित्व के उनके नारे को बल देने का काम कर सके। कांग्रेस के एक बहुत मजबूत प्रवक्ता गौरव बल्लभ ने पार्टी इसीलिए छोड़ी क्योंकि उनकी वर्ग चेतना राहुल गांधी के अभियान को आघात के तौर पर संज्ञान में ले रही थी जिससे वे छटपटा उठे थे। उन्होंने पार्टी छोड़ने और भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस पार्टी पर जो वैचारिक प्रहार किये हैं वे बेहद थोथे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस नेतृत्व ने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल न होने का जो निर्णय लिया वह बहुत गलत था तो क्या कांग्रेस पार्टी उस दिन जाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अभ्यर्थना करती और आत्मघात कर लेती। यह तो बहाना है अगर उन्हें भगवान राम में इतनी ही श्रृद्धा थी तो उन्हें कांग्रेस पार्टी में शामिल ही नहीं होना चाहिए था जब वे जानते थे कि इस पार्टी ने राम के अस्तित्व को नकारने वाला शपथ पत्र अपने सरकार के समय कोर्ट में दिया था। इसी तरह उन्होंने कहा कि पूंजी बनाने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर कांग्रेस देश का भला नहीं कर रही। उनका इशारा कांग्रेस द्वारा अदाणी की गड़बड़ियों पर किये जा रहे प्रहार को लेकर था। क्या अदाणी देश के लिए वैल्थ निर्माण कर रहे हैं। गौतम अदाणी के भाई विनोद अदाणी दूसरे देश की नागरिकता ले चुके हैं। उन्होंने इस देश की परिसंपत्तियां दूसरे देश को सौंपने का कार्य किया। गौतम अदाणी भी आगे चलकर ऐसा करेंगे यह क्यों नहीं माना जाना चाहिए। तो गौरव बल्लभ का तर्क इस मामले में भी लंगड़ा है। कांग्रेस अगर कारपोरेट के खिलाफ होती तो उसकी राज्य सरकारों के होते हुए उनके यहां गौतम अदाणी निवेश क्यों करते। राहुल गांधी गौतम अदाणी के संदर्भ में मोनोपाली का विरोध कर रहे हैं न कि कारपोरेट जगत का। राहुल गांधी को एतराज प्रधानमंत्री द्वारा नाजायज तरीके से अदाणी और अंबानी का पोषण करने पर है और लाभ में चलने वाले सरकारी उद्योगों के अंधाधुंध विनिवेश पर। अगर वे विनिवेशीकरण के इतने बड़े समर्थक हैं तो कांग्रेस में क्यों चले आये। उन्हें तो भाजपा में ही आना चाहिए था जिसने अटल जी के समय ही बाकायदा विनिवेश मंत्रालय बनाकर इसकी शुरूआत की थी। गौरव बल्लभ जिस तरह की भाषा बोलते थे उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि उनकी बौद्धिकता कभी भाजपा में जाने के लिए गंवारा करेगी। उन्हें कांग्रेस पार्टी से समस्या थी तो वे किसी और प्रगतिशील पार्टी का दामन थाम सकते थे लेकिन मूल बात यह है कि उनकी कट्टर सवर्ण मानसिकता राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के आंदोलन के कारण विफर उठी थी। उन्हें बड़ा दर्द है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले करते हैं लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि नरेन्द्र मोदी से ज्यादा विरोधियों पर व्यक्तिगत हमले कोई नहीं करता। फिर भी चुनाव के बीच गौरव बल्लभ जैसे नेताओं का कांग्रेस पार्टी छोड़ना उसकी राजनीतिक फिजा को बुरी तरह बिगाड़ने वाला है। राहुल गांधी को अब सतर्क हो जाना चाहिए। उन्हें अब कांग्रेस पार्टी के कायाकल्प की सूझबूझ दिखानी पड़ेगी और सामाजिक न्याय के अभियान से कुछ हासिल करने के लिए पार्टी में वंचित वर्ग के नेताओं का हरावल दस्ता बनाना पड़ेगा। क्या इसकी कोई रणनीति उनके पास है।
लोकसभा चुनाव के अभियान के बीच कांग्रेस पर आघात दर आघात
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीति साम,दाम, दण्ड, भेद के हथकंडे अपनाकर विपक्ष विहीन राजनीतिक व्यवस्था कायम करना है जो एक सर्वसत्तात्मक व्यवस्था हो और जिसमें उनके द्वारा निरंकुश शासन संचालित किया जा सके। इस मकसद से काम करने में सत्ता के भीषण दुरूपयोग में कोई हर्जा नहीं दिखता और इसे आज साफ तौर पर अनुभव किया जा सकता है। लेकिन यह सोच संसदीय लोकतंत्र की नैतिकता के एकदम विरूद्ध है और देश को खतरनाक स्थितियों में धकेलने की आशंका इससे सृजित होती है।
इसी सोच के तहत भाजपा के लोकसभा चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री मोदी ने दूसरी पार्टियों में तोड़फोड़ करके उनके नेताओं को एक के बाद एक अपनी पार्टी में शामिल कराने का वृहत अभियान जोड़ दिया है। इसके लिए भाजपा अपने सैद्धांतिक आकर्षण को बढ़ाने का काम करने की वजाय दूसरी पार्टियों के ढ़ुलमुल नेताओं पर हर तरह के प्रलोभन का मोहपाश फेंकने का काम कर रही है। अनुमान किया जा सकता है कि उन थैली शाहों ने जिनको मोदी सरकार में मुनाफा लूटने का भारी अवसर दिया गया मुक्त हस्त से दूसरी पार्टियों के नेताओं को दल बदल के लिए मुक्त हस्त से नकदी की व्यवस्था कर दी है। भारतीय जनता पार्टी के पास इस मामले में कुबेर पतियों का किस हद तक सहारा उपलब्ध है यह मोदी सरकार के 10 वर्षों में विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को गिराने के लिए विधायकों की खरीद फरोख्त हेतु खर्च की गई अनाप शनाप दौलत से पहले ही जाहिर हो चुका था। हाल में राज्यसभा चुनाव में भी यह नजारा बहुत प्रत्यक्ष रहा। एक समय था जब जनता दल परिवर्तन की दुहाई के साथ राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु बनकर छाया हुआ था उस समय बात होती थी कि सार्वजनिक जीवन में धनबल और बाहुबल के दखल को कैसे न्यून किया जाये। उस समय तक भी युवाओं में माहौल आदर्शवादी हुआ करता था इसलिए जनता दल की ऐसी कोशिशें उनको खूब आलोड़ित करती थी। हालांकि जनता दल सत्ता में आने के बाद फासिस्ट और कबीलाई सोच वाले नेताओं के गिरोह के चंगुल में फंसता गया इसलिए बाहुबल से जनता दल को मुक्त करने के संकल्प धरे रह गये। बाद में जनता दल की यही तनातनी इसमें टूट का कारण बनी। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह आखिर तक बाहुबल और थैली बल से आजाद राजनीतिक माहौल के लिए पैरवी करते रहे और इससे पूरे राजनैतिक माहौल में इसके लिए हिलोर बनी रही।
इस हिलोर से अटल युगीन भाजपा भी आलोड़ित रही इसीलिए अटल युग में भाजपा ने पार्टी विथ ए डिफरेंस का नारा दिया था और यह थोपा हुआ नारा नहीं था। कार्यकर्ता भी इस नारे से प्रभावित था और इससे नैतिक ऊर्जा का अनुभव करता था। मोदी जब सत्ता में आये तो कार्यकर्ताओं का सपना इसी के अनुरूप देश में एक नई व्यवस्था कायम करना था। मोदी ने भी अपने पहले कार्यकाल की शुरूआत में इसके अनुरूप कार्य करने की चेष्टा की। विदेश नीति के मोर्चे पर उन्होंने भी अलग तरह की भावना प्रदर्शित की थी जब अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री मिया नवाज शरीफ को दावत भेजी थी। यहां तक कि नवाज शरीफ की पोती की शादी में वे बिना बुलाये उसके लिए उपहार लेकर पाकिस्तान चले गये थे। हालांकि बाद में बताया यह गया था कि उन्होंने यह बेहयायी अपने उद्योगपति मित्र अदाणी के बिजनेस इंटरेस्ट के कारण की थी। पहले कार्यकाल में वे गौ रक्षा के नाम पर हिंसा करने वालों के लिए यह कहने की दलेरी दिखा सके थे कि ऐसे लोग गौ भक्त नहीं गुण्डे हैं। देश की कोमी इकजैहती को बचाने का ख्याल भी उनके मन में था इसलिए पहले कार्यकाल में अयोध्या विवाद और कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने की दिशा में वे कोई प्रगति नहीं कर सके थे। लेकिन दूसरे कार्यकाल तक आते-आते उनके सामने स्पष्ट हो गया कि उन्होंने गुजरात में हिन्दू हृदय सम्राट की छवि जिन कारनामों से बनाई थी उन्हीं के मद्देनजर कट्टरवादियों के आक्रामक समर्थन से उन्हें देश की सत्ता नसीब हुई है और अगर वे अटल जी के पद चिन्हों पर चले तो विश्व शांति का नोबल पुरस्कार तो मिलने का भरोसा नहीं है पर अपनी मौलिकता को तजकर वे कट्टरपंथियों में मोह भंग को जन्म देने के लिए अभिशप्त हो जायेंगे और उनका नेतृत्व लड़खड़ा जायेगा। इसलिए दूसरे कार्यकाल में उनकी दिशा बदल गई। उन्होंने कट्टरवादियों की कसौटी पर अपने को खरा साबित करने की कार्यनीति अपना ली। पूरे देश को बदले की आग में झोंक दिया और कोई समाज जब बदले की भावना से उन्मत हो जाता है तो उसकी नैतिक भावना एकदम समाप्त हो जाती है। आज यही हो रहा है। मोदी बेखटक होकर राजनीति की सारी स्वस्थ्य परंपराओं को तिलांजलि देने व विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी एजेंसियों की सहायता से दमन चक्र चलाने में जुटे हुए हैं क्योंकि उन्हें पता है कि बदले की भावना में डूबा देश का जनमत वे कुछ भी करें उन पर उंगली नहीं उठायेगा और ऐसे कृत्यों को पराक्रम मानकर उन्हें अवतारी पुरूष के रूप में स्थापित करने में लग जायेगा क्योंकि ईश्वरीय अवतार घोषित करने के लिए किसी व्यक्ति का चयन करने का आधार ऐसे ही पराक्रम रहे हैं।
दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस इस समय वैचारिक अंतद्र्वंद से घिरी हुई है। सामाजिक तौर पर कांग्रेस में ऐसी सोच के वर्ग हावी रहे हैं जो सामाजिक यथा स्थिति के लिए समर्पित थे। राहुल गांधी ने बिना किसी होमवर्क के बहुजन की भागीदारी का तराना पार्टी के अंदर छेड़कर पार्टी की वर्ग सत्ता को झकझोर डाला है। उनकी मुश्किल यह है कि उनके अभियान से पिछड़ा वर्ग तो पार्टी से जुड़ नहीं रहा लेकिन पार्टी में प्रभावी वर्ग विचलित हो उठा है। सामाजिक बदलाव की दिशा तो सोनिया गांधी जब राजनीति में आयी थी तब उन्होंने भी अख्तियार की थी लेकिन अपने संदेश को प्रसारित करने के लिए पार्टी को उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने के बतौर ढ़ालते हुए उन्होंने जनता दल के थिंक टैंक अपने साथ जोड़ लिये थे। इसलिए संक्रमण के दौर में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने का श्रेय उन्हें मिल गया था। राहुल गांधी ऐसी टीम नहीं बना सके हैं जो जातिगत जनगणना और सत्ता के केन्द्रों में वंचितों के समुचित प्रतिधित्व के उनके नारे को बल देने का काम कर सके। कांग्रेस के एक बहुत मजबूत प्रवक्ता गौरव बल्लभ ने पार्टी इसीलिए छोड़ी क्योंकि उनकी वर्ग चेतना राहुल गांधी के अभियान को आघात के तौर पर संज्ञान में ले रही थी जिससे वे छटपटा उठे थे। उन्होंने पार्टी छोड़ने और भाजपा में शामिल होने के बाद कांग्रेस पार्टी पर जो वैचारिक प्रहार किये हैं वे बेहद थोथे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस नेतृत्व ने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में शामिल न होने का जो निर्णय लिया वह बहुत गलत था तो क्या कांग्रेस पार्टी उस दिन जाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अभ्यर्थना करती और आत्मघात कर लेती। यह तो बहाना है अगर उन्हें भगवान राम में इतनी ही श्रृद्धा थी तो उन्हें कांग्रेस पार्टी में शामिल ही नहीं होना चाहिए था जब वे जानते थे कि इस पार्टी ने राम के अस्तित्व को नकारने वाला शपथ पत्र अपने सरकार के समय कोर्ट में दिया था। इसी तरह उन्होंने कहा कि पूंजी बनाने वालों के खिलाफ अभियान चलाकर कांग्रेस देश का भला नहीं कर रही। उनका इशारा कांग्रेस द्वारा अदाणी की गड़बड़ियों पर किये जा रहे प्रहार को लेकर था। क्या अदाणी देश के लिए वैल्थ निर्माण कर रहे हैं। गौतम अदाणी के भाई विनोद अदाणी दूसरे देश की नागरिकता ले चुके हैं। उन्होंने इस देश की परिसंपत्तियां दूसरे देश को सौंपने का कार्य किया। गौतम अदाणी भी आगे चलकर ऐसा करेंगे यह क्यों नहीं माना जाना चाहिए। तो गौरव बल्लभ का तर्क इस मामले में भी लंगड़ा है। कांग्रेस अगर कारपोरेट के खिलाफ होती तो उसकी राज्य सरकारों के होते हुए उनके यहां गौतम अदाणी निवेश क्यों करते। राहुल गांधी गौतम अदाणी के संदर्भ में मोनोपाली का विरोध कर रहे हैं न कि कारपोरेट जगत का। राहुल गांधी को एतराज प्रधानमंत्री द्वारा नाजायज तरीके से अदाणी और अंबानी का पोषण करने पर है और लाभ में चलने वाले सरकारी उद्योगों के अंधाधुंध विनिवेश पर। अगर वे विनिवेशीकरण के इतने बड़े समर्थक हैं तो कांग्रेस में क्यों चले आये। उन्हें तो भाजपा में ही आना चाहिए था जिसने अटल जी के समय ही बाकायदा विनिवेश मंत्रालय बनाकर इसकी शुरूआत की थी। गौरव बल्लभ जिस तरह की भाषा बोलते थे उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि उनकी बौद्धिकता कभी भाजपा में जाने के लिए गंवारा करेगी। उन्हें कांग्रेस पार्टी से समस्या थी तो वे किसी और प्रगतिशील पार्टी का दामन थाम सकते थे लेकिन मूल बात यह है कि उनकी कट्टर सवर्ण मानसिकता राहुल गांधी के सामाजिक न्याय के आंदोलन के कारण विफर उठी थी। उन्हें बड़ा दर्द है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले करते हैं लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि नरेन्द्र मोदी से ज्यादा विरोधियों पर व्यक्तिगत हमले कोई नहीं करता। फिर भी चुनाव के बीच गौरव बल्लभ जैसे नेताओं का कांग्रेस पार्टी छोड़ना उसकी राजनीतिक फिजा को बुरी तरह बिगाड़ने वाला है। राहुल गांधी को अब सतर्क हो जाना चाहिए। उन्हें अब कांग्रेस पार्टी के कायाकल्प की सूझबूझ दिखानी पड़ेगी और सामाजिक न्याय के अभियान से कुछ हासिल करने के लिए पार्टी में वंचित वर्ग के नेताओं का हरावल दस्ता बनाना पड़ेगा। क्या इसकी कोई रणनीति उनके पास है।
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