-राधा रमण
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों देश में माफिया या आपराधिक मामलों के महज आरोपी होने के कारण बुलडोजर से उनका घर गिराए जाने की कारवाई पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाते हुए पूरी कार्यपालिका को कठघरे में खड़ा कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि रोटी, कपड़ा के साथ आवास (घर) भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों में शामिल है। आदमी जीवनभर की कमाई खर्च करके घर बनाता है। इसलिए बगैर किसी ठोस कारणों के किसी का घर गिराना मनमानी है। यदि सरकार उचित प्रक्रिया का पालन किये बगैर किसी का घर गिराती है तो उसे सत्ता की शक्ति का दुरुपयोग माना जाएगा।
सनद रहे कि पिछले कुछ वर्षों से उत्तरप्रदेश, असम, गुजरात, मध्यप्रदेश और उत्तराखंड की सरकारें कई अपराधियों के घरों को बुलडोजर से ध्वस्त करती रही हैं। इसमें दो राय नहीं है कि बुलडोजर से न्याय देने की परिपाटी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शुरू की थी। बाद में यह अभियान इतना तेज हो गया कि पुलिस-प्रशासन बेख़ौफ़ होकर किसी आरोपी के घर को बुलडोजर से ध्वस्त करने लगा था। विपक्ष बार- बार बोलता रहा कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है और खासकर एक जाति विशेष के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। लेकिन सरकार इसे ‘रामराज्य’ का न्याय बताकर अपनी पीठ थपथपाती रही। बाद में भाजपा शासित कई अन्य राज्यों ने बुलडोजर एक्शन को अपना रोल मॉडल बना लिया। हालत यह हो गई कि मध्यप्रदेश के शहडोल में सांप्रदायिक दंगे में एक ऐसे व्यक्ति का घर ध्वस्त कर दिया गया जो घटना के पहले से किसी अन्य मामले में जेल में बंद था। यही नहीं अयोध्या में रेप के आरोपी समाजवादी पार्टी के एक अल्पसंख्यक नेता का घर बुलडोजर से ध्वस्त कर दिया गया। बाद में डीएनए जाँच में वह बेदाग़ पाया गया। उत्तरप्रदेश में विपक्ष यह भी आरोप लगाता रहा कि जिला परिषद् के चुनाव में सरकार ने बुलडोजर का भय दिखाकर परिणाम अपने पक्ष में कर लिया था लेकिन तब मीडिया, अदालत या किसी अन्य ने इसका नोटिस लेना जरूरी नहीं समझा था।
शीर्ष अदालत का यह फैसला तब आया जब 22 अगस्त 2022 को जमीयत- उलेमा-ए-हिंद ने याचिका दाखिल की। जमीयत ने अपनी याचिका में कहा था कि भाजपा शासित राज्यों में मुसलमानों को निशाना बनाकर बुलडोजर एक्शन लिया जा रहा है। याचिका में ह्यूमन राइट्स पर केंद्रित एनजीओ एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया जिसमें अप्रैल से जून 2022 तक भाजपा शासित पाँच राज्यों उत्तरप्रदेश, असम, गुजरात, उत्तराखंड और मध्यप्रदेश में बुलडोजर एक्शन की 128 घटनाओं का जिक्र किया गया है। हालाँकि इससे पहले भी बुलडोजर एक्शन के बहुतायत मामले हो चुके थे और कोर्ट में याचिका दाखिल करने के बाद भी बुलडोजर से घर गिराने का काम जारी रहा। इसी साल 24 जून को बरेली में एक प्लाट पर कब्जे को लेकर दो पक्षों में पथराव और फायरिंग की घटनाएँ हुईं। प्रशासन ने आरोपी बिल्डर के घर, फार्महाउस और रिसॉर्ट को बुलडोजर लगाकर ध्वस्त कर दिया। इसी तरह मुरादाबाद में अपहरण के एक आरोपी का घर 28 जून को ढहा दिया गया।
सरकार की दलील रही कि घर सरकारी जमीन पर बनाए गए थे और अतिक्रमण हटाने के उद्देश्य से घरों को गिराया गया। अदालत में सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कोर्ट अपने फैसले से हमारे हाथ नहीं बांधे। किसी की भी प्रोपर्टी इसलिए नहीं गिराई गई है कि उसने अपराध किया है बल्कि आरोपी के अवैध अतिक्रमण पर कानूनन एक्शन लिया गया है। सवाल उठता है कि अगर अतिक्रमण पर एक्शन लिया गया है तो सरकार का एक्शन 40 -50 साल बाद क्यों लिया गया? फिर अतिक्रमण कराने अथवा इतने दिनों तक इसकी अनदेखी करनेवाले अधिकारियों पर सरकार ने क्या एक्शन लिया? किसी का घर रातोंरात तो नहीं बन जाता है। उसे बनाने में वर्षों लग जाते हैं और व्यक्ति की जीवनभर की कमाई खर्च हो जाती है। सवाल यह भी उठता है कि घर बनाते समय प्रशासनिक अमला किस नींद में सो रहा था? संभवतः अदालत ने यही खोट पकड़ी।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि “क़ानून को ताख पर रखकर किया गया ‘बुलडोजर जस्टिस’ असंवैधानिक है। किसी के घर को सिर्फ इस आधार पर नहीं तोड़ा जा सकता कि वह दोषी है। फिर अफसर न्याय करने का काम अपने हाथ में नहीं ले सकते। वे किसी को कोर्ट में मुक़दमा चलाए जाने से पहले दोषी नहीं ठहरा सकते। वे जज नहीं बन सकते। अदालत ने अपने फैसले में आर्टिकल 21 का भी जिक्र किया। इसके तहत लोगों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है। शीर्ष अदालत ने लोगों के घरों में रहने के मौलिक अधिकार को ख़त्म करने के लिए बुलडोजर एक्शन के ‘डरावने मंजर’ की बात कही। साथ ही बुलडोजर से घरों और प्रतिष्ठानों को गिराने के लिए 15 सूत्री गाइडलाइन भी जारी किया। इसके तहत बुलडोजर एक्शन के 15 दिन पहले रजिस्टर्ड डाक से नोटिस देना शामिल है ताकि आरोपी बचाव के लिए उचित फोरम पर अपना तथ्य रख सके। ऐसा नहीं करने पर संबंधित अधिकारी से व्याज समेत घर बनाने का खर्च वसूल किया जाएगा। बिना उचित कारण बताए कोई तोड़फोड़ नहीं की जाएगी और नोटिस भेजने के बाद 15 दिन का समय दिया जाएगा। नोटिस की जानकारी जिला कलेक्टर को देनी अनिवार्य है। इस दौरान अधिकारी पीड़ित व्यक्ति की फ़रियाद सुनेंगे। इसकी रिकार्डिंग की जाएगी। इस पूरी प्रक्रिया के लिए एक डिजिटल पोर्टल बनाना अनिवार्य होगा जिसमें कार्रवाई का नोटिस और ऑर्डर की कॉपी अपलोड करना होगा। प्रभावित व्यक्ति के जवाब से असंतुष्ट होने पर दोबारा 15 दिन का नोटिस देना होगा ताकि प्रभावित व्यक्ति अदालत में अपना पक्ष रख सके। अगर अदालत इस बीच मामले पर स्टे नहीं देती है तो प्रोपर्टी गिराई जा सकती है। लेकिन उसकी भी वीडियोग्राफी करानी होगी और उसे पोर्टल पर अपलोड करना होगा।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम अदालत का यह फैसला आनेवाले दिनों के लिए नजीर बनेगा। अदालत के इस फैसले से आतंक के साए में जीवन बसर कर रहे लोगों को नि:संदेह राहत मिलेगी और सरकार के इशारे पर काम करनेवाले अधिकारियों की मनमानी पर अंकुश लगेगा। देखना दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ‘बुलडोजर एक्शन’ पर अंकुश लगा पाता है या सरकार और उसके नुमाइंदे इसका कोई तोड़ निकाल लेते हैं। यह तो आनेवाला समय ही बता सकता है।