औरेया में डीएम और पीडब्ल्यूडी के अधिशाषी अभियंता के बीच छिड़े विवाद ने प्रदेश में नौकरशाही की राजशाही प्रवृत्ति की कई परतें खोल डाली हैं। औरेया में महिला जिलाधिकारी नेहा प्रकाश कार्यभार संभाले हुए हैं जिनकी रिपोर्ट पर पिछले दिनों लोक निर्माण विभाग के प्रांतीय खंड के अधिशाषी अभियंता अभिषेक यादव को शासन ने निलंबित कर दिया है। नेहा प्रकाश ने अपनी रिपोर्ट में अधिशाषी अभियंता की कर्तव्यहीनता के कई मामलों का उल्लेख किया था जिसके बाद अधिशाषी अभियंता ने विभागीय प्रमुख सचिव को भेजे पत्र में डीएम के आरोपों को गलत बताते हुए उनकी नाराजगी की असल वजह उजागर की है। डीएम और अधिशाषी अभियंता में कौन सही है और कौन गलत लेकिन अधिशाषी अभियंता ने शक्तिशाली पदों पर जिलों में बैठे अधिकारियों में शाही तौर तरीकों को लेकर जो चर्चा की है उनका संबंध जनता के प्रति अधिकारियों के रवैये में आ रहे बिगाड़ से भी गहराई तक है।
उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक गठबंधन सरकारों का दौर रहा जिनमें राजनीतिक नेतृत्व की पकड़ अफसरशाही पर ढ़ीली पड़ती रही। 2007 में मायावती की और 2012 में अखिलेश यादव की अपने दम पर बहुमत की सरकारें बनी तो उन्होंने भी असीम राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में उलझे रहने से नौकरशाही को जन संस्कृति में ढालने का प्रयास नहीं कर पाया। उलटे इन सरकारों ने अपने उद्देश्यों केे लिए अफसरों का साधन के रूप में इस्तेमाल किया जिससे नौकरशाही का मनोबल बढ़ता गया। भारतीय जनता पार्टी जब सत्ता में आई और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने तो अनुमान किया गया था कि यह सरकार नौकरशाही को लोगों के लिए प्रतिबद्ध बनाने की दिशा में कोई बड़ी पहल करेगी।
1977 में जब केन्द्र में पहली बार सत्ता परिवर्तन हुआ और उपनिवेशवादी शासन की विरासत संभाले हुए कांग्रेस के स्थान पर जनवादी निजाम कायम करने का सपना देखने वाले हुकूमत में पहुंचे तो अलग ही नजारा देखने को मिला। इस परिवर्तन को एक उदाहरण से समझा जा सकता है जिसके तहत कई जिलों में सत्तारूढ़ पार्टी के आदर्शवादी नौजवानों ने अधिकारियों के परिवार को आम आदत की तरह शापिंग कराने के लिए पाये गये सरकारी वाहनों को रूकवा लिया। इसमें जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक तक की गाड़ियां नहीं बख्शी गई। मैम साहबों को जलील होकर गाड़ी से नीचे आना पड़ा और बाद में पैदल बंगले पर पहुंचना पड़ा। कई जगह व्यक्तिगत काम में लगी सरकारी गाड़ी का पैसा अधिकारियों की जेब से भरवा लिया गया। अधिकारियों में दहशत व्याप्त हो गई और उन्होंने बदलते जमाने की हवा के साथ चलने के नाम पर हुकूमत का रवैया छोड़कर अपने को लोगों की सेवा के लिए प्रस्तुत करने की संस्कृति में ढ़ालना शुरू कर दिया। पर यह सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली। कांग्रेस के सत्ता में लौटते ही अधिकारियों ने कमोबेश पुराने ढ़र्रे को फिर अपना लिया।
बावजूद इसके लोकतंत्र के विकास के साथ-साथ लोगों में अधिकार चेतना बढ़ती जा रही थी जिसके चलते नये प्रबंधन की ईजाद होने लगी। मनमोहन सिंह सरकार आते-आते इस जरूरत के अनुरूप अधिकारियों के लिए नये प्रशिक्षण और सेवा के नये तरह के ढ़ांचे के लिए विमर्श शुरू हो गया। होना तो यह चाहिए था कि अलग-अलग पार्टियों की सरकारें आती जाती रहती लेकिन नौकरशाही के नये गठन के यह प्रयास आगे बढ़ते रहते। पर सत्ता से बाहर रहने के दौरान उपभोक्ता संस्कृति के प्रति अरूचि प्रदर्शित करने वाली भारतीय जनता पार्टी को जब अवसर मिला तो सत्ता केन्द्रों में शाही अंदाज के पुनरूत्थान का नया दौर शुरू हो गया।
औरेया के निलंबित अधिशाषी अभियंता अभिषेक यादव ने डीएम से असल झगड़े को लेकर अपने प्रमुख सचिव को लिखा है कि उनके बंगले के लिए शासन ने लगभग पौने तीन करोड़ का स्टीमेट तैयार किया था लेकिन उन्होंने किचन, बाथरूम और कमरों को महंगे सामान से सुसज्जित कराया जो कि नियमों के विरूद्ध था। इसका नतीजा यह हुआ कि तय बजट से लगभग 85 लाख रूपये ज्यादा खर्च हो गये फिर भी डीएम ने सब्र नहीं किया। उन्होंने बंगले में एक स्विमिंग पूल व आंतरिक सड़क के निर्माण का फरमान जारी कर दिया तो अधिशाषी अभियंता की घिग्घी बंध गई। उन्हें यह आशंका सताने लगी कि डीएम को खुश करने के चक्कर में कहीं वे बड़ा बयाना न ले बैठें। बजट से बाहर के भारी खर्चे की वसूली उनकी जेब से न होने लगे तो उन्होंने डीएम को स्विमिंग पूल बनाने में असमर्थता जता डाली। दूसरी ओर डीएम ने स्थिति को समझते हुए उन पर रहम करने की वजाय नाराज होकर उन्हें निलंबित करा दिया।
मालूम नहीं कि अधिशाषी अभियंता का यह खुलासा कितना सच है लेकिन बात अकेले नेहा प्रकाश की नहीं है। जिलों में डीएम ही नहीं सीडीओ, एडीएम और एसडीएम स्तर के अधिकारियों ने अनाधिकृत ढ़ंग से अपने बंगलों को महल के रूप में परिवर्तित करा लिया है फिर भी शासन आज तक यह नहीं पूंछ नहीं पाया कि इसके लिए अतिरिक्त बजट का इंतजाम कहां से हुआ और उन्होंने अपने आवासों की डिजाइन के संबंध में नियमों को तोड़ने की जुर्रत कैसे की। पता चला है कि मनरेगा के प्रशासनिक खर्च का बजट तक अधिकारियों के आवासों में लगवा दिया गया जो कि पूरी तरह गैर कानूनी है। आडिट के नाम पर केवल वसूली का एक और सेंटर स्थापित कर दिया जाता है जिसके कारण आडिट करने वाली कोई टीम अधिकारियों की माले मुफ्त दिले बे रहम के इस अंदाज पर आपत्ति करने की जहमत नहीं उठाती। जिला प्रशासन ही नहीं पुलिस प्रशासन के अधिकारी भी इस मर्ज में र्पीछे नहीं हैं। जिला पुलिस प्रमुखों ने पुलिस कर्मचारियों के आवास व अन्य सुविधाओं के बजट को अपने बंगले में मनमाने तरीके से इस्तेमाल करने की परपाटी अपना ली है। तमाम पुलिस प्रमुखों के बंगलों में किलों की तरह लोहे के बहुत ऊंचे-ऊंचे गेट लग गये हैं जिससे आपदा में भी कोई आम पीड़ित उनके बंगले पर फटकने का साहस न कर पाये।
अधिकारियों की इस सरेआम फिजूलखर्ची जैसे ही कारण हैं जिनसे सरकार टैक्स के जरिये कितने भी संसाधन जुटा लेने के बावजूद अभावग्रस्त होती जा रही है। इसका नतीजा विभागों में नौकरियां खत्म करके नौजवानों के भविष्य को अंधेरे मे धकेलने के रूप में सामने आ रहा है। कहने को अधिकारी यह तर्क दे सकते हैं कि निजी कंपनियों के एक्जीक्यूटिव उनसे बहुत ज्यादा ठाठबाट में रहते हैं जबकि वे अधिक महत्वपूर्ण हैं तो उनके जीवन स्तर को लेकर सरकार दकियानूसी का औचित्य क्या है। उनकी बात में एक दृष्टि से दम हो सकता है लेकिन क्या वे उतने जबावदेह होने को तैयार हैं जितने कारपोरेट के एक्जीक्यूटिव होते हैं।
दरअसल शाही रहन सहन का शौक उनकी निरंकुश और सर्वोपरिता की प्रवृत्ति को प्रतिबिंबित करने लगा है। अधिकारियों को यह समझाया जाना चाहिए कि उनका काम रूल करना नहीं गवर्नेंस है। सरकार लोगों की सहूलियत के लिए जो सेवायंे जुटाती है उनका लाभ पूरी तरीके से उन तक पहुंचाना अधिकारियों का कर्तव्य है जिसे वे नहीं निभा रहे। लोकतांत्रिक देश में अधिकारियों और कर्मचारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे प्रत्येक नागरिक के साथ शिष्टता और सम्मान से पेश आयें लेकिन ऐश्वर्य भरी जिंदगी ने उन्हें ऐसी सारी जिम्मेदारियों से विमुख होने का अवसर दे दिया है। इसका बढ़ता सिलसिला लोकतंत्र के लिए घातक है। औरेया के प्रसंग से सरकार को जागने का सबक लेना चाहिए और सरकारी बंगलों में गैरकानूनी तरीकों से अधिकारियों द्वारा कराई गई सज्जा की हर जिले में जांच करानी चाहिए व इसमें इंतहा बरतने वाले अधिकारियों पर तत्काल कार्रवाई करना चाहिए। बेहतर प्रशासन के लिए अधिकारियों में अनुशासन कायम करना जरूरी है। उन्हें रहन सहन के मामले में उतनी ही सुरूचि का परिचय देने की इजाजत हो जिसका प्रमाद सेवा की अपनी जिम्मेदारी न भूलने दे।