रविवार को मानवतावादी व्यवस्था पर आधारित नये भारत के निर्माण के शिल्पी रहे बाबा साहब अम्बेडकर की जयंती देश भर में धूमधाम से मनायी गई। जब देश को आजादी मिलना तय हो गया था और ऐसे में स्वतंत्र भारत के सुव्यवस्थित संचालन के लिए संविधान बनाने हेतु सभा का गठन किया जा रहा था तो सरदार बल्लभ भाई पटेल ने बाबा साहब को लेकर कहा था कि उनके लिए संविधान सभा के दरवाजे तो क्या एक खिड़की तक खुली रहने देना गंवारा नहीं करेंगे। उनके और कांग्रेस के प्रयास के बावजूद बाबा साहब किसी तरह बैरिस्टर जोगेन्दर नाथ मंडल की कोशिश के चलते बंगाल से संविधान सभा में दाखिल होने में सफल हो गये थे। संविधान सभा में उन्होंने जिस कानूनी सूझबूझ से काम किया और किसी पूर्वाग्रह को आड़े न आने देकर मजबूत और संपूर्ण व्यवस्था के निर्माण का खाका खींचने का हुनर दिखाया उससे सरदार पटेल की उनके बारे में राय पूरी तरह बदल गई। सरदार पटेल उन्हें एक कुुंठित विद्वान और नेता मानते थे जो हमेशा अपनी जाति और समुदाय के कष्टों को अलापता हुआ विष वमन करके हर विमर्श को बिगाड़ता रहता था। लेकिन संविधान सभा में जब उन्होंने बाबा साहब की निरपेक्षता और तार्किकता को देखा तो वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने घोषित किया कि देश के नये संविधान की रचना के लिए अम्बेडकर साहब से ज्यादा योग्य विद्वान वर्तमान में मिलना मुश्किल है। इस कारण जब बाबा साहब जहां से चुनकर आये थे वह हिस्सा पाकिस्तान में चला जाने से बाबा साहब की संविधान सभा से सदस्यता समाप्त हो गई तो उन्हें फिर सभा में वापस लाने के लिए जयकर के पुणे से इस्तीफे के कारण खाली हुई संविधान सभा की जनरल सीट से बाबा साहब को चुनवाने के लिए कांग्रेस पार्टी में वीटो का इस्तेमाल किया जिसके क्रम में उन्हें महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मावलंकर को जो उनके बेहद नजदीक थे कड़ी फटकार लगानी पड़ी। वजह यह थी कि मावलंकर नहीं चाहते थे कि बाबा साहब अम्बेडकर अब संविधान सभा में फिर से जगह पाकर कुछ खुराफात कर सकें क्योंकि वे उन्हें लेकर कुछ इसी तरह की धारणा बनाये हुए थे।
बाबा साहब अपने जीवन में जिस तरह की परिस्थितियों के भुक्तभोगी रहे उनका विद्रोही बन जाना और कटु हो जाना लाजिमी था। 20 मार्च 1927 को उन्होंने महाड़ में चवदार तालाब का पानी सामूहिक रूप से दलितों द्वारा पीने के लिए सत्याग्रह किया तो समाज के ठेकेदारों में खलबली मच गई थी। हालांकि बाबा साहब का कहना था कि वे यह आंदोलन इसलिए नहीं कर रहे कि दलितों के लिए प्यास बुझाने को कहीं और पानी नहीं है या इस तालाब का पानी बहुत जायकेदार है। लेकिन जिस तालाब में जानवरों को भी पानी पीने की मनाही नहीं है उसमें दलितों पर रोक क्यों। यह दलितों का इंसानी हक है कि वे भी अन्य लोगों की तरह इस तालाब का पानी पी सकें। उनके आंदोलन की सवर्ण समाज में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। रात में सवर्ण लठेतों ने दलितों के गांवों में घुसकर उनकी महिलाओं, वृद्धों और बच्चों पर निर्दय अत्याचार किये। ऐसे अनेक प्रसंग हैं लेकिन आज वे गढ़े मुर्दे उखाड़ने की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई।
उपरोक्त प्रसंग के हवाले को देने का उद्देश्य यह बताना है कि बाबा साहब ने इतना भेदभाव और अत्याचार झेलते हुए भी सदबुद्धि नहीं गंवाई जो एक सच्चे ज्ञानी के लिए जरूरी है। उन्होंने अपने विवेक को समाप्त नहीं होने दिया और राजनीतिक जीवन की शुरूआत से ही शोषण व अन्याय से पीड़ित लोगों के अधिकारों की वकालत की। उन्होंने पहला दल इंडिपेडेंट लेबर पार्टी के नाम से बनाया। मजदूर कोई भी हो सकता है दलित भी और सवर्ण भी। इस तरह मजदूर मात्र के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए उन्होंने पहली पार्टी बनाई जो उनके चरित्र की उदात्ता को उजागर करता है। वायसराय की कौंसिल में जब वे श्रमिक सदस्य बने तो उन्हीं के कार्यकाल में श्रमिकों के काम करने के घंटे तय करने और कार्य स्थल पर उन्हें बुनियादी सुविधायें देने के कानून लागू हो सके। क्रिप्स मिशन के भारत आगमन के समय उन्हें जाति का बोध कराने वाली शिड्यूल कास्ट फेडरेशन नामक संगठन इसलिए बनाना पड़ा था कि क्रिप्स मिशन से बात करने के लिए जो शर्ते थी उसमें यह बाध्यता थी कि उसी संगठन को इसका अवसर दिया जायेगा तो किसी समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हो। तात्पर्य यह है कि बाबा साहब में संविधान सभा में बैठने का अनुग्रह मिलने के कारण बड़प्पन और उदारता का समावेश नहीं हुआ बल्कि वे शुरू से ही व्यापक राजनीतिक और सामाजिक सोच के धनी रहे।
उन्होंने दलितों व शूद्रों को लेकर नस्लगत आधार पर प्रतिपादित की गई विभाजनकारी धारणाओं का निवारण किया जो जताता है कि वे भारतीय समाज की एकता के कितने वे पक्षधर थे। उन्होंने साफ लिखा है कि यह स्थापनायें सही नहीं हैं कि दलित और पिछड़े भारत के मूल निवासी हैं जिन पर बाहर से आये सवर्ण आर्यों ने कब्जा जमाकर अत्याचार किये। उन्होंने बहुत ही तार्किक ढ़ंग से इस बात को सिद्ध किया कि दलित पिछड़ांे और सवर्णों में नस्ल का कोई भेद नहीं है क्योंकि जातियां तब बनी जब इन नस्लों में रोटी बेटी के संबंध स्थापित हो चुके थे और किसी नस्ल की कोई विशिष्ठता नहीं रह गई थी।
बाबा साहब ने कहा कि शुरूआत में केवल तीन वर्ण थे-ब्राह्यण, क्षत्रिय और वैश्य। शूद्र के नाम से तो कोई स्वतंत्र वर्ण था ही नहीं। शूद्र वस्तुतः सूर्यवंशी क्षत्रियों का एक गोत्र था। बाद में जब ब्राह्यणों से उनका संघर्ष छिड़ गया तो ब्राह्यणों ने उनका उपनयन संस्कार बंद करने की घोषणा कर दी जिससे उनकी सामाजिक हैसियत का अधोपतन हो गया। इसके बाद अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के आधार पर जातियां नीची की जाती रहीं।
हिन्दू समाज व्यवस्था और धार्मिक परंपराओं के बारे में उनका विवेचन बहुत शोधपूर्ण और नये निष्कर्षों से भरा है जिनको पढ़ना अत्यंत दिलचस्प है। हो सकता है कि कई विद्वान उनके निष्कर्षों से सहमत न हो पर किसी अनुसंधान के लिए जिस वैज्ञानिक पद्धति और प्रक्रिया की आवश्यकता है उसकी समझ उनका लेखन वखूबी कराता है। इस बात का स्यापा करना बहुत विचित्र लगता है कि हमारे इतिहास को पश्चिम के लोग या वामपंथी विक्रत कर गये। अगर ऐसा हुआ है तो इसमें किसी का दोष नहीं है हम खुद इसके लिए जिम्मेदार हैं। हमने खुद कहीं तथ्यात्मक इतिहास नहीं लिखा। किसी राजवंश में हर राजा किसी उपाधि को लगाता हो तो भारतीय विद्वान अपने लेखन में उनमें अंतर करने की चेष्टा नहीं करते रहे। अगर चन्द्रगुप्त के समय कोई घटना हुई तो कौन चन्द्रगुप्त थे प्रथम, द्वितीय या तृतीय पता ही नहीं चलता। इसलिए भारतीय इतिहास की गुत्थियां बहुत उलझी हुई हैं जिनको सही तरीके से सुलझाने के लिए बाबा साहब अम्बेडकर की तरह का अकादमिक श्रम अपेक्षित है और उनके साहित्य को पढ़कर विद्वान यही दिशा बोध प्राप्त करते हैं।
बाबा साहब की प्रतिभा बहुमुखी थी। वे चोटी के संविधानविद, अर्थशास्त्री, इतिहासवेत्ता और समाजशास्त्री थे। संविधान में उन्होंने दुनिया के सभी अच्छे संविधानों का सार लिया ताकि भारत का संवैधानिक शासन पूरी दुनिया के लिए एक नजीर बन सके। सोच की बाबा साहब जैसी विशालता ही ज्ञानी का सच्चा गुण है जिससे किसी तरह की संकीर्णता में उलझे बिना वह पूरे विश्व को सही आदर्श व्यवस्था का उजाला दिखा सके। दूसरों को शोषण और अन्याय का निवाला बनाने के लिए ज्ञान का इस्तेमाल करने वाले विद्वान शैतान का दूसरा रूप है।