गरमाते चुनावी माहौल के बीच सत्ता पक्ष और विपक्ष के वाकयुद्ध का तीखापन बढ़ता जा रहा है लेकिन इस बार विपक्ष की रणनीति 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव से अलग है जिसके चलते सत्तापक्ष उसे अपनी पिच पर घेरने में अभी तक नाकाम बना हुआ है।
वर्तमान लोकसभा चुनाव की शुरूआत जब हुई थी तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुख्य रूप से विपक्ष पर अयोध्या में रामलला मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में आमंत्रण मिलने के बावजूद न आने को लेकर हमलावर हुए। अनुमान यह था कि विपक्ष इससे रक्षात्मक होकर जबाव देने में लग जायेगा और फंस जायेगा। लेकिन विपक्ष ने प्रधानमंत्री के इस आरोप को अनसुना कर दिया। नतीजा यह हुआ कि यह आरोप चुनावी मुद्दे में न बदल सका।
अपने इस तीर को बेकाम देखने के बाद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह ने मुम्बई हमले के लिए जिम्मेदार आतंकवादी कसाव को जेल के अंदर कांग्रेस शासन के समय बिरयानी खिलाये जाने का मुद्दा उछालने की कोशिश की। लेकिन विपक्ष फिर उनके जाल से कन्नी काट गया। अब उनके द्वारा यह राग अलापा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी पिछड़ों क आरक्षण को छीनकर मुसलमानों में बांटना चाहती है। उसे लिखकर यह वचन देना चाहिए कि सत्ता में आने पर वह ऐसा नहीं करेगी।
दरअसल इस बार विपक्ष पिच तय कर रहा है। चुनाव में मुख्य मुद्दा संविधान को बदलने की सत्तापक्ष की कथित मंशा व पिछड़ों और दलितों के आरक्षण की समाप्ति की आशंका के रूप में सामने आ रहा है और इसके असर की लगातार मिल रही टोह के चलते ही भाजपा मजबूर हुई है कि वह विपक्ष को अपनी पिच पर खींचने की कोशिश करने की बजाय उसकी पिच पर जाकर मीर साबित करने की जिद्दोजहद करे। पिछड़ों के आरक्षण में मुसलमानों को भागीदार बनाने के विपक्ष के इरादे का हउवा खड़ा करके भाजपा के शीर्ष नेता चुनावी संघर्ष के इसी कोंण को नुमाया करने में लगे हुए हैं।
लेकिन आश्चर्यजनक है कि पहले की तरह भाजपा किसी को नहीं भड़का पा रही है। उसके लाख प्रयास के बावजूद न तो इस बार लोगों में धर्मोन्माद पैदा हो रहा है और न ही पिछड़े व अन्य वंचित विपक्ष को लेकर बिदक पा रहे हैं। उल्टे भाजपा के अपने ही नेताओं की बेवकूफी से यह संदेश चला गया है कि उसके द्वारा 400 पार का नारा दिये जाने के पीछे संविधान मंे व्यापक उलटफेर की योजना है। गो कि भाजपा के ही कुछ लोगों ने इस संदर्भ में संविधान को नया रूप देेने के इरादे जता डाले। वैसे कोई धारणा किसी एक दो बयान के आने या प्रसंग के कारण तैयार नहीं होती। भारतीय जनता पार्टी के संदर्भ में प्रसंगों की लंबी श्रृंखला है जिससे यह राय बनती है कि भेदभाव मूलक वर्ण व्यवस्था का पुनरूत्थान उसका लक्ष्य है। तब संविधान और आरक्षण को लेकर जरा सी बात में उसके प्रति संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक ही हो गया है।
बाबा साहब अम्बेडकर के व्यक्तित्व और विचारों के प्रति भारतीय जनता पार्टी भी पूरी श्रृद्धा दिखाने का पाखंड करती है। डा अम्बेडकर ने अपने लेखन में साबित करने की कोशिश की थी कि ऋग्वेद काल में वर्ण व्यवस्था को कोई उल्लेख नहीं है जबकि वेद हिन्दू धर्म के आधार हैं। वर्ण व्यवस्था और उसका कट्टर स्वरूप बाद की ऐतिहासिक परिस्थितियों की देन है। इसलिए उनके कहने का आशय हमेशा यह रहा कि जब हिन्दू धर्म का मौलिक रूप से जातिगत व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं है तो बाद में गढ़ी गई उन संहिताओं और स्मृतियों को खारिज करने में क्या हर्ज है जिनमें शूद्रों और अछूतों के प्रति अत्यंत घृणापूर्ण भावनायें व्यक्त की गई हैं और बुनियादी मानवाधिकारों से उन्हें वंचित करने वाले क्रूर नियम बनाये गये हैं।
भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रवादी विचारधारा के एक बड़े स्रोत वीर साबरकर ने अछूतों और हिन्दू धर्म के अन्य वंचित तबकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण भावनायें जताई थी जिसके चलते वे और बाबा साहब अम्बेडकर प्रत्यक्ष मिलने का अवसर न मिलने के बावजूद वैचारिक स्तर पर एक दूसरे के नजदीक पहुंच गये थे। पर यह नजदीकी प्रतिफलित होने के पहले ही इस कारण टूट गई क्योंकि साबरकर ने हिन्दू धर्म में चातुर्य वर्ण व्यवस्था को मौलिक बताने का दुराग्रह कर डाला। महात्मा गांधी से भी उनका तालमेल इस कारण नहीं बन पाया क्योंकि शुरू में वे भी वर्ण व्यवस्था से पीछे न हटने पर अड़े हुए थे और जब उन्होंने अंतरजातीय विवाह करने वाले जोड़ों को ही आशीर्वाद देने जाने की प्रतिज्ञा करके वर्ण व्यवस्था पर करारी चोट करनी चाही तो उनकी हत्या हो गई।
भाजपा को मोदी युग में निद्र्वुद्व होकर सत्ता में आने का अवसर वर्ण व्यवस्था की बहाली का सपना दिखाकर ही मिला है यह सभी जानते हैं इसलिए उसके सुधारवादी चेहरे की एक सीमा है। पहले वंचित वर्ग भ्रमित था इसलिए भाजपा के असली चरित्र को समझ नहीं पा रहा था। लेकिन अब जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भारत सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ 03 पिछड़ी जातियों के होने को नाइंसाफी के एक बड़े मुद्दे के रूप में उछाला है तो उसकी चेतना जाग्रत होने लगी है। भाजपा एक ओर अखंड भारत की बात करती है दूसरी ओर उसे अखंड भारत के प्रतीक नायकों में से पिंड छुड़ाते देखा जाता है। नंदवंश और मौर्यवंश के महाराजाओं ने विशाल साम्राज्य तैयार करके प्राचीन समय में अखंड भारत का सपना साकार किया था अगर उन्हें महिमामंडित किया जाये तो अखंड भारत की चेतना को बल सही तौर पर मिलेगा लेकिन भाजपा की मजबूरी है कि वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि जो वर्ण व्यवस्था उसका धर्म है वह प्रतिपादित करती है कि नंदवंश और मौर्यवंश के सम्राट शूद्र थे। वर्ण व्यवस्था में शूद्रों को शासन प्रशासन चलाने और पराक्रम में अक्षम घोषित करके मेहनत मजदूरी के रास्ते पर धकेला गया है।
भारत के वास्तविक साम्राज्य अधिपतियों को पूजने की गलती की जायेगी तो वर्ण व्यवस्था खारिज हो जायेगी इसलिए उस कश्मीर तक में सम्राट अशोक की प्रतिमा लगाने की कोई पहल इस मूर्तिवादी सरकार द्वारा करने की सोची तक नहीं जा सकती जहां की राजधानी श्रीनगर को बसाने का श्रेय अशोक महान को ही है। अगर पिछड़ों और दलितों को प्रशासन में बाजिव प्रतिनिधित्व के लिए भाजपा की वचनबद्धता खरी हो तो मामला दावा प्रतिदावा में उलझाने की बजाय प्रधानमंत्री को आश्वासन देना चाहिए कि केन्द्र सरकार के सचिव मंडल में वंचितों को न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जायेगा लेकिन वह इसका वायदा तक नहीं कर सकते क्योंकि उनकी सोच में कहीं न कहीं यह शामिल है कि ये लोग योग्य नहीं होते। वे कांग्रेस से पिछड़ों के आरक्षण को लेकर अंडरटेकिंग मांगने की बजाय खुद लेटर इंट्री जैसे कदम को वापस लेने और सरकारी विभागों को निजी हाथों में सौंपने के इस दौर में वंचितों के लिए निजी क्षेत्र में भी विशेष अवसर का सिद्धांत लागू करवाने कदम उठाने का साहस दिखायें।
बहरहाल लोकसभा चुनाव में इस बार जिसकी जितनी संख्या भारी उसको उतनी भागेदारी का नारा मुख्य मुद्दा बनकर छाता हुआ दिखायी दे रहा है। सत्तापक्ष को ताकत देने वाला कोई मुद्दा इस समय बचा है तो वह है लाभार्थी परक योजनायें जिसमें सबसे बड़ी योजना गरीबों को मुफ्त राशन वितरण की साबित हो रही है।