राज्यपालों की भूमिका एक बार फिर चर्चा का विषय बन गई है। पंजाब के राज्यपाल के रवैये को लेकर राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी। इस मामले में अभी सुप्रीम कोर्ट ने काई आदेश तो पारित नहीं किया है लेकिन सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायधीश और पीठ में शामिल अन्य न्यायधीशों ने जो टिप्पणियां की उनसे राज्यपालों के व्यवहार पर बहस खड़ी हो गई है। कांग्रेस के एकाधिकार वादी शासन के दौर में विरोधी दल की राज्य सरकारों के खिलाफ राज्यपालों का इस्तेमाल केन्द्र में सत्तारूढ़ दल के एजेंटों के रूप में होना आम बात हो गई थी। विरोधी दलों की राज्य सरकारें राज्यपाल मनमानी रिपोर्ट देकर भंग करा देते थे। चुनाव में अगर विरोधी दल को किसी राज्य में बहुमत से कुछ कम या मैजिक नम्बर से कुछ ही ज्यादा सीटें मिल पाती थी तो राज्यपाल कोशिश करते थे कि विपक्ष के किसी नेता को मुख्यमंत्री की शपथ लेने का निमंत्रण न भेजें और केन्द्र में सत्तारूढ़ दल को मौका दें कि वो तोड़फोड़ करके दूसरे दल के जिस पिटठू नेता पर हाथ रखे उसकी ताजपोशी करा दी जाये। कहा जाता है कि एक बार तो हरियाणा के तत्कालीन राज्यपाल जीडी तपाशे की इस तरह की मनमानी से देवीलाल ने आपा खो दिया था और उन्हें चांटा रसीद कर दिया था। आंध्र में एनटी रामाराव बहुमत की विधायकों की संख्या लेकर राज्यपाल के दरवाजे पर परेड करते रहे लेकिन राज्यपाल केन्द्र का इशारा देखता रहा। यहां तक कि एनटी रामाराव को अपने विधायकों को लेकर दिल्ली में आकर परेड करानी पड़ी फिर भी उनकी सरकार कायम नहीं हो पायी। सारे विपक्षी दल एनटी रामाराव के पक्ष में हो गये, मीडिया में भी कांग्रेस की जबरदस्त खिलाफत हुई लेकिन कोई परवाह नहीं की गई। उस समय भारतीय लोकतंत्र एक तरह से शैशव अवस्था में था। सो उसके लिए यह चुनौतियां रहनी ही थी। लेकिन जैसे-जैसे लोकतंत्र परिपक्व हुआ स्थितियां बदली। केन्द्र राज्य के बीच संबंध तय करने के लिए सरकारी आयोग की गठन हुआ लेकिन उसकी सिफारिश तत्कालीन सरकार ठंडे बस्ते में डाले रही।
1996 आते-आते जब बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के राज्य सरकार को भंग करने की सिफारिश भेजने के मामले में अधिकार सीमित कर दिये। इस बीच संयुक्त मोर्चा, वाम मोर्चा ने संघवाद का एक आदर्श ढ़ांचा विकसित करने की कोशिश की। भारत विविधता का देश है। इसलिए अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों का उदय इसकी एक नियति है। जब इसे स्वीकार करने की भावना बढ़ी तो विरोधी दलों की राज्य सरकारें आश्वस्त रहने लगीं। मध्य प्रदेश में ही देखें भाजपा की राज्य सरकार बराबर टिकी रही जबकि केन्द्र में दो बार कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका मिला था। यहां तक कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी को भी अस्थिर करने की कोशिश मनमोहन सरकार के समय नहीं हुई जबकि व्यक्तिगत रूप से मोदी की कटु आलोचना कांग्रेस द्वारा की जा रही थी। भाजपा चूंकि राज्यपालों के माध्यम से राज्यों में केन्द्र द्वारा किये गये खिलवाड़ की भुक्तभोगी रही है इसलिए अपेक्षा की जाती थी कि भाजपा के अपनी दम पर बड़े बहुमत के दौर में संघवाद का सही मामले में पालन किया जायेगा यानी विमत की राज्य सरकारों के साथ केन्द्र के सुचारू रूप से कार्य करने की नयी संस्कृति विकसित होगी। लेकिन यह अपेक्षा मिथ्या साबित हुई।
भाजपा आज राज्यपालों के माध्यम से कांग्रेस युगीन कुख्यात दौर की याद दिला रही है। संघवाद के एकदम लड़खड़ा जाने की नौबत भाजपा ने पैदा कर रखी है। राज्यपाल और उप राज्यपालों का एक ही काम रह गया है कि गैर भाजपा दल को राज्य में मिले जनादेश को कैसे विफल किया जाये। मतदाताओं को एहसास कराया जाये कि अगर वे विरोधी दल की सरकारें अपने राज्य में चुनेंगे तो केन्द्र उन्हें काम नहीं करने देगा और अंततोगत्वा जब तक मतदाता यह सोचने को मजबूर न हो जायें कि राज्य में डबल इंजन की सरकार लायी जानी चाहिए तब तक खिलवाड़ होता रहे। इससे संबंधित राज्य में अव्यवस्था रहेगी तो संबंधित राज्य की जनता को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। दिल्ली में क्या हुआ। कहां भाजपा दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग करती थी कहां अब उसे विधानसभा के गठन से भी वंचित करने की तिकड़में की जारी हैं। केन्द्र के उप राज्यपाल ने अरविन्द केजरीवाल की सरकार को निरूपाय रखने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली के मामलों में बार-बार दखल देन पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने जब यह कहा कि अधिकारियों के तबादलों के बारे में निर्णय लेने का अधिकार उप राज्यपाल को नहीं है। दिल्ली सरकार ही इसके लिए पूर्ण रूप से अधिकृत मानी जानी चाहिए तो केन्द्र ने संसद में इसके खिलाफ नया कानून पारित कराकर सुप्रीम कोर्ट को बेवस कर दिया।
पश्चिम बंगाल में जब तक जगदीप धनकड़ राज्यपाल रहे तब तक ममता बनर्जी सरकार से उनका टकराव चलता ही रहा। खांटी राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों को एकतरफा राज्यपाल बनाया जा रहा है और प्रतीत हो रहा है कि उन्हें पहले दिन से ही यह टास्क सौंपा जाता है कि वे दूसरे दल की राज्य सरकार को एक क्षण भी सुचारू तरीके से काम न करने दें। पंजाब में राज्यपाल बनवारी लाल पुरौहित ने तीन विधेयक जुलाई से अटका रखे हैं जिस पर पंजाब सरकार ने दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के रवैये पर नाखुशी प्रकट की और कोर्ट में मौजूद सोलिसीटर जनरल तुषार मेहता से लंबित विधेयकों पर राज्यपाल ने क्या कार्यवाही की है इसकी रिपोर्ट मांगी जिसके बाद तुषार मेहता ने उन्हें बताया कि राज्यपाल ने तीनों विधेयकों पर आवश्यक कार्यवाही कर दी है लेकिन तत्काल रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है इसके लिए उन्होंने समय ले लिया। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि कार्यवाही तभी की जाती है जब मामला हमारे सामने तक पहुंच जाये। केरल और तमिलनाडु के राज्यपालों द्वारा विधानसभा से पारित विधेयकों को लटकाये रखने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट आ चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने केरल के मामले को पंजाब सरकार की याचिका के साथ ही अगली सुनवाई में सूचीबद्ध कर दिया है। केरल में तो आरिफ मोहम्मद खान को सुलझा हुआ नेता माना जाता है लेकिन उन्होंने दो वर्षो से राज्य सरकार के विधेयक लटका रखे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपालों को याद रखना चाहिए कि वे निर्वाचित प्राधिकारी नहीं हैं। उन्हें विधेयकों को रोक लेने की बजाय उसे कार्यवाही के लिए आगे बढ़ा देना चाहिए या राज्य सरकार को वापस कर देना चाहिए। इसके पहले महाराष्ट्र में उधव ठाकरे की सरकार को गिराने में भूमिका निभाने वाले तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यिारी के कृत्य को सुप्रीम कोर्ट पहले ही अनुचित ठहरा चुका है। राज्यपालों के दिमाग में महामहिम बन जाने के बाद भी राजनीति का भूत सवार बना रहता है। उत्तराखंड में राज्यपाल रहीं बेबी रानी मौर्या तो राज भवन से मुक्त होते ही फिर सक्रिय राजनीति में आ गई और विधायक का चुनाव लड़ने के बाद अब वे उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में सुशोभित हो रहीं हैं।
पूरे देश में वन पार्टी रूल का सपना देखना कतई शुभ नहीं हो सकता। इसलिए केन्द्र को क्षेत्रीय आकांक्षाओं का सम्मान करने और विमत की राज्य सरकारों के साथ निर्वाह करके सुशासन कायम करने के गुर सीखने पड़ेंगे। राज्यपालों का रवैया नये सिरे से आलोचानओं के घेरे में आने के बाद एक बार फिर इस पद को समाप्त करने की मांग चल पड़ी है। अगर ऐसा संभव न तो आदर्श व्यवस्था के लिए राजनीतिक व्यक्ति की बजाय किसी कुशल पूर्व नौकरशाह या जज को राज्यपाल बनाने का अधिकतम प्रयास अपेक्षित है। यह परंपरा कायम करने की कोशिश हुई थी कि राज्यों में राज्यपाल नियुक्त करने में मुख्यमंत्री की भी सहमति ली जाये लेकिन यह परंपरा भी भुलाई जा रही है। वन पार्टी रूल की सनक में राजनीतिक व्यवस्था को बिगाड़ने के इस खेल के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं कहे जा सकते।
1996 आते-आते जब बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के राज्य सरकार को भंग करने की सिफारिश भेजने के मामले में अधिकार सीमित कर दिये। इस बीच संयुक्त मोर्चा, वाम मोर्चा ने संघवाद का एक आदर्श ढ़ांचा विकसित करने की कोशिश की। भारत विविधता का देश है। इसलिए अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों का उदय इसकी एक नियति है। जब इसे स्वीकार करने की भावना बढ़ी तो विरोधी दलों की राज्य सरकारें आश्वस्त रहने लगीं। मध्य प्रदेश में ही देखें भाजपा की राज्य सरकार बराबर टिकी रही जबकि केन्द्र में दो बार कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका मिला था। यहां तक कि गुजरात में नरेन्द्र मोदी को भी अस्थिर करने की कोशिश मनमोहन सरकार के समय नहीं हुई जबकि व्यक्तिगत रूप से मोदी की कटु आलोचना कांग्रेस द्वारा की जा रही थी। भाजपा चूंकि राज्यपालों के माध्यम से राज्यों में केन्द्र द्वारा किये गये खिलवाड़ की भुक्तभोगी रही है इसलिए अपेक्षा की जाती थी कि भाजपा के अपनी दम पर बड़े बहुमत के दौर में संघवाद का सही मामले में पालन किया जायेगा यानी विमत की राज्य सरकारों के साथ केन्द्र के सुचारू रूप से कार्य करने की नयी संस्कृति विकसित होगी। लेकिन यह अपेक्षा मिथ्या साबित हुई।
भाजपा आज राज्यपालों के माध्यम से कांग्रेस युगीन कुख्यात दौर की याद दिला रही है। संघवाद के एकदम लड़खड़ा जाने की नौबत भाजपा ने पैदा कर रखी है। राज्यपाल और उप राज्यपालों का एक ही काम रह गया है कि गैर भाजपा दल को राज्य में मिले जनादेश को कैसे विफल किया जाये। मतदाताओं को एहसास कराया जाये कि अगर वे विरोधी दल की सरकारें अपने राज्य में चुनेंगे तो केन्द्र उन्हें काम नहीं करने देगा और अंततोगत्वा जब तक मतदाता यह सोचने को मजबूर न हो जायें कि राज्य में डबल इंजन की सरकार लायी जानी चाहिए तब तक खिलवाड़ होता रहे। इससे संबंधित राज्य में अव्यवस्था रहेगी तो संबंधित राज्य की जनता को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। दिल्ली में क्या हुआ। कहां भाजपा दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग करती थी कहां अब उसे विधानसभा के गठन से भी वंचित करने की तिकड़में की जारी हैं। केन्द्र के उप राज्यपाल ने अरविन्द केजरीवाल की सरकार को निरूपाय रखने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली के मामलों में बार-बार दखल देन पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने जब यह कहा कि अधिकारियों के तबादलों के बारे में निर्णय लेने का अधिकार उप राज्यपाल को नहीं है। दिल्ली सरकार ही इसके लिए पूर्ण रूप से अधिकृत मानी जानी चाहिए तो केन्द्र ने संसद में इसके खिलाफ नया कानून पारित कराकर सुप्रीम कोर्ट को बेवस कर दिया।
पश्चिम बंगाल में जब तक जगदीप धनकड़ राज्यपाल रहे तब तक ममता बनर्जी सरकार से उनका टकराव चलता ही रहा। खांटी राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों को एकतरफा राज्यपाल बनाया जा रहा है और प्रतीत हो रहा है कि उन्हें पहले दिन से ही यह टास्क सौंपा जाता है कि वे दूसरे दल की राज्य सरकार को एक क्षण भी सुचारू तरीके से काम न करने दें। पंजाब में राज्यपाल बनवारी लाल पुरौहित ने तीन विधेयक जुलाई से अटका रखे हैं जिस पर पंजाब सरकार ने दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के रवैये पर नाखुशी प्रकट की और कोर्ट में मौजूद सोलिसीटर जनरल तुषार मेहता से लंबित विधेयकों पर राज्यपाल ने क्या कार्यवाही की है इसकी रिपोर्ट मांगी जिसके बाद तुषार मेहता ने उन्हें बताया कि राज्यपाल ने तीनों विधेयकों पर आवश्यक कार्यवाही कर दी है लेकिन तत्काल रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है इसके लिए उन्होंने समय ले लिया। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि कार्यवाही तभी की जाती है जब मामला हमारे सामने तक पहुंच जाये। केरल और तमिलनाडु के राज्यपालों द्वारा विधानसभा से पारित विधेयकों को लटकाये रखने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट आ चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने केरल के मामले को पंजाब सरकार की याचिका के साथ ही अगली सुनवाई में सूचीबद्ध कर दिया है। केरल में तो आरिफ मोहम्मद खान को सुलझा हुआ नेता माना जाता है लेकिन उन्होंने दो वर्षो से राज्य सरकार के विधेयक लटका रखे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपालों को याद रखना चाहिए कि वे निर्वाचित प्राधिकारी नहीं हैं। उन्हें विधेयकों को रोक लेने की बजाय उसे कार्यवाही के लिए आगे बढ़ा देना चाहिए या राज्य सरकार को वापस कर देना चाहिए। इसके पहले महाराष्ट्र में उधव ठाकरे की सरकार को गिराने में भूमिका निभाने वाले तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यिारी के कृत्य को सुप्रीम कोर्ट पहले ही अनुचित ठहरा चुका है। राज्यपालों के दिमाग में महामहिम बन जाने के बाद भी राजनीति का भूत सवार बना रहता है। उत्तराखंड में राज्यपाल रहीं बेबी रानी मौर्या तो राज भवन से मुक्त होते ही फिर सक्रिय राजनीति में आ गई और विधायक का चुनाव लड़ने के बाद अब वे उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में सुशोभित हो रहीं हैं।
पूरे देश में वन पार्टी रूल का सपना देखना कतई शुभ नहीं हो सकता। इसलिए केन्द्र को क्षेत्रीय आकांक्षाओं का सम्मान करने और विमत की राज्य सरकारों के साथ निर्वाह करके सुशासन कायम करने के गुर सीखने पड़ेंगे। राज्यपालों का रवैया नये सिरे से आलोचानओं के घेरे में आने के बाद एक बार फिर इस पद को समाप्त करने की मांग चल पड़ी है। अगर ऐसा संभव न तो आदर्श व्यवस्था के लिए राजनीतिक व्यक्ति की बजाय किसी कुशल पूर्व नौकरशाह या जज को राज्यपाल बनाने का अधिकतम प्रयास अपेक्षित है। यह परंपरा कायम करने की कोशिश हुई थी कि राज्यों में राज्यपाल नियुक्त करने में मुख्यमंत्री की भी सहमति ली जाये लेकिन यह परंपरा भी भुलाई जा रही है। वन पार्टी रूल की सनक में राजनीतिक व्यवस्था को बिगाड़ने के इस खेल के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं कहे जा सकते।
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