राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अपने शताब्दी वर्ष में लो प्रोफाइल में रहने की घोषणा से उसके करोड़ों श्रृद्धालुओं और समूचे भाजपा संगठन को झटका लगा है। 2025 में संघ की स्थापना के 100 वर्ष पूरे हो जायेंगे। अब जबकि केन्द्र में और अधिकांश राज्यों में सत्ता का नियंत्रण पूर्ण बहुमत के साथ हिन्दूवादी ताकतों के हाथ में पहुंचने का संघ का मंसूबा साकार हो चुका है तो उसके लोगों द्वारा अपना शताब्दी वर्ष विजय पर्व की तरह भारी तामझाम के साथ मनाने का ताना-बाना बुना जा रहा था। गत दो वर्षो से इस बारे में चर्चायें छिड़ी हुई थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कैरियर के भविष्य को भी इन चर्चाओं में जोड़ा जाता था जिसके तहत बताया जा रहा था कि उनके लिए उम्र का प्रतिबंध शिथिल किया जायेगा ताकि संघ के शताब्दी वर्ष की पूरी आयोजना उनके नेतृत्व में हो सके। जाहिर है कि यह मत प्रकट कर दिया गया था कि 2025 में भाजपा के तीसरी बार सत्ता में आने पर कम से कम 2025 तक के लिए प्रधानमंत्री का ताज मोदी जी के सिर पर ही रहने दिया जायेगा। संघ ने भी इन चर्चाओं को नकारने में कोई दिलचस्पी नहीं ली बल्कि उसने अपने हावभाव से मौन स्वीकृतम लक्षणम की तर्ज पर अव्यक्त तरीके से इन चर्चाओं को अनुमोदित ही किया। अब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अप्रत्याशित रूप से कह दिया है कि शताब्दी वर्ष में संगठन का कोई धूमधाम करने का इरादा नहीं है। संघ अपने उद्देश्यों के लिए शताब्दी वर्ष में भी हर वर्ष की तरह खामोशी से काम करेगा। क्या संघ प्रमुख के उक्त निर्णय के पीछे कोई रणनीति है या सचमुच संघ उतना ही बीतराग संगठन है जितना दिखाने की चेष्टा वर्तमान में हो रही है।
संघ की छवि परदे के पीछे काम करने वाले भाजपा के मेंटोर या सूत्रधार की रही है। लेकिन हाल के वर्षों में यह जाहिर किया गया है कि भाजपा का वर्तमान नेतृत्व संघ से दिशा निर्देश लेने की परंपरा से अलग होना चाहता है। यह बात मार्क की जा रही है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकाल में एक भी बार नागपुर स्थित संघ के मुख्यालय में हाजिरी देने की जरूरत नहीं समझी। इसे लेकर चर्चायें फैला दी गई कि नरेन्द्र मोदी संघ प्रमुख मोहन भागवत को उम्र के आधार पर अपने से कनिष्ठ मानते हैं जिसके कारण उन्हें संघ प्रमुख का लिहाज करने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती।
नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के लिए संघ की अहमियत उत्सव मूर्ति तक सीमित कर दी है। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों में भाजपा की हार होने पर संघ ने भाजपा को उस पर अपना अधिकार जताते हुए मशविरा दिया था कि आगे से राज्यों के चुनाव वह मोदी के चेहरे पर लड़ने की बजाय स्थानीय चेहरे को आगे करे ताकि कर्नाटक की स्थिति की पुनरावृत्ति न हो सके शायद संघ का यह मशविरा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपनी सर्वोपरिता में दखल जैसा लगा इसलिए उन्होंने हिन्दी पट्टी के तीन बड़े राज्यों सहित पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव को लेकर कहीं कोई स्थानीय चहरा न उभारने का फैसला घोषित कर दिया। नतीजतन पांचों राज्यों में सिर्फ मोदी का चेहरा मतदाताओं के सामने रखा गया। संघ की अवज्ञा उसे हैसियत में रहने की चेतावनी जैसी थी जिसका कड़ा जबाव संघ देता अगर पांसे भाजपा के लिए उल्टे पड़ जाते। पर तीनों हिन्दी पट्टी के राज्यों पर जिस तरह से भाजपा का परचम बुलंद हुआ उससे संघ को अपनी बोलती बंद रखने में ही गनीमत नजर आयी।
वैसे तो संघ और भाजपा नेतृत्व के बीच व्यक्तित्व की टकराहट के प्रसंग पहले भी सामने आये। अटल बिहारी पाजपेयी को भी कभी-कभी उम्र में संघ प्रमुख के मुकाबले अपनी वरिष्ठता ध्यान आ जाती थी तो वे उनके दिशा निर्देश की अवज्ञा कर देते थे। लेकिन इसकी एक सीमा थी। अटल जी संघ प्रमुख की मर्यादा बनाये रखने की अहमियत जानते थे इसलिए वे अपनी अहम का संवरण करके लक्ष्मण रेखा के पीछे ठिठक जाना ही उचित समझते थे। लेकिन नरेन्द्र मोदी के गुरूर को किसी का ऐसा अदब करना गंवारा नहीं है यह जग जाहिर है। लगता है कि उनके इस रवैये ने संघ प्रमुख को इतना अन्यमनस्क कर दिया है कि उनको संगठन के शताब्दी वर्ष में कोई अतिरिक्त उत्साह दिखाने से तौबा करनी पड़ गई है। संघ प्रमुख ने कहा है कि संगठन का उद्देश्य ऐसे लोगों को तैयार करना है जो अपने काम का ढ़िंढ़ोरा पीटने की बजाय सभी को लाभ पहुंचाने के कर्तव्य का निर्वाह करें।
नैराश्य व्यक्ति के उदगारों को अमूर्त बना देता है। संघ प्रमुख के साथ जब उन्होंने संगठन के शताब्दी वर्ष को न मनाने की घोषणा की उस समय ऐसा अटपटापन स्पष्ट दिखायी दिया। आखिर संघ का क्या काम है यह उनको स्पष्ट करना चाहिए। अगर समाज सेवा के लिए समर्पित कैडर तैयार करना उसका लक्ष्य है तो संघ प्रमुख को देखना होगा कि उसके कार्यकर्ता भी सत्ता में पहुंचने के बाद अन्य पार्टियों के लोगों की तरह अपना घर भरने के लिए लालच क्यों दिखा रहे हैं। क्या उन्हें महात्मा गांधी और जय प्रकाश नारायण जैसे व्यक्तित्व याद नहीं हैं जिन्होंने ईमानदारी के साथ जन सेवा के लिए समर्पित संगठन बनाने के उद्देश्य को विफल होते देखा तो सार्वजनिक तौर पर अपनी ही मानस संतानों को श्रापित करने में चूक नहीं की। गांधी जी ने कांग्रेस जनों को भ्रष्टाचार में लिप्त देखा तो वे अपनी जुवान बंद नहीं रख पाये। उन्होंने खुलेआम ऐसे कांग्रेसियों को न केवल कोसा बल्कि कांग्रेस को भंग करने तक की मांग कर डाली थी। जय प्रकाश नारायण ने भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोख से निकलकर सत्ता में पहुंचे जनता पार्टी के नेताओं को लूट खसोट करते पाया तो खामोश रहने की बजाय उन्होंने इन नेताओं को चेतावनी देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि वीपी सिंह जो कि महात्मा गांधी व जेपी के कद के नहीं माने जाते ने भी जनता दल के गलत नेताओं को चुनाव मंे हराने की अपील मंच से करने में संकोच नहीं किया था। मोदी तो खांटी राजनीतिज्ञ हैं और खांटी राजनीतिज्ञ से नैतिकता के लिए अड़ने की बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन मोहन भागवत को तो त्यागी होने के नाते भाजपाइयों के पथभ्रष्ट होने पर कुछ बोलना चाहिए ताकि सार्वजनिक जीवन में शुचिता और ईमानदारी कायम करने की अपेक्षा के चलते भाजपा को सत्ता में पहुंचाने वाले आवाम के जी को ठंडक मिल सके। पर मोहन भागवत अकर्मण्य आदर्शवाद के प्रतीक बनकर बैठे हैं जिससे उज्जवल धवल समाज के निर्माण का उनका संकल्प ढ़ोंग बनकर रह गया है। वे बात करते हैं देश में लंबे समय के गुलामी की लेकिन यह नहीं बताना चाहते कि ऐसा क्यों हुआ। भाजपा के राज में ही सवर्णों के गांव में दलित दूल्हे की बारात घोड़े पर चढ़कर नहीं निकालने दी जाती जबकि इसी तरह की विभेदकारी मानसिकता वाले लोगों ने आस्तीन का सांप बनकर देश की एकता को तोड़कर आक्रांताओं के मंसूबे सफल किये। अगर देश के मान सम्मान के लिए मोहन भागवत में तड़प हो तो उन्हें ऐसे प्रसंगों पर उबल जाना चाहिए। कम से कम इस युग में तो किसी देश में सवर्ण राज जैसे एकांगी राज की मानसिकता रखना उस देश की प्रभुसत्ता और अखंडता की रक्षा का कार्य नहीं हो सकता।