राहुल गांधी पिछड़ों के नये मसीहा के अवतार में हैं। यह कांग्रेस की परम्परागत लाइन से अलग हटकर पार्टी की नई पहचान बनाने का प्रयास है। देश में सबसे ज्यादा आबादी पिछड़ों की है जिन्हें अपनी मुट्ठी में करके कांग्रेस को पुनर्जीवन देने की जद्दोजहद राहुल गांधी बहुत शिद्दत के साथ कर रहे हैं। वे जातिगत जनगणना के साथ साथ सरकार के निर्णय की प्रक्रिया में पिछड़ों के हस्तक्षेप को सबसे प्रभावी रूप में स्थापित कराने के लिये अत्यंत मुखर हैं। उनकी इस मामले में दहाड़ पिछड़ों का ध्यान भी खींच रही है। लेकिन पिछड़ों में कांग्र्रेस के लिये वह जोश और ज्वार पैदा नहीं हो पा रहा। जिसका मंसूबा राहुल गांधी बांधे हुये हैं। इसके पीछे कांग्रेस पार्टी की कई कमजोरियां हैं।
सामाजिक मामलों में कांग्रेस यथा स्थितिवादी पार्टी रही है। इसी कारण जागरूकता बढ़ने और वंचितों में सत्ता केंद्रों पर पहुंचने की ललक ने जब ठाठे मारना शुरू किया तो राजनीति में कांग्रेस का पिछड़ना शुरू हो गया। खासतौर से नरसिंहा राव के समय कांग्रेस का यथा स्थितिवादी चरित्र ज्यादा खुलकर सामने आया। मंडल क्रांति के बाद पिछड़ों में जो आक्रामक राजनीतिक चेतना पैदा हुयी थी उसमें उन्हें दलों को परखने की एक नयी दृष्टि मिली। नरसिंहा राव मंडल के जलजले को ठंडा करते नजर आये जो कि कांग्रेस के वर्ग चरित्र के अनुरूप था। इसलिये वंचितों में उसकी विश्वसनीयता काफी घट गयी। बाद में सोनिया गांधी को पार्टी की यह जर्जर विरासत मिली तो उन्होंने पार्टी के अंदर एक नये समायोजन की जरूरत को पहचाना। इसका नतीजा था कि उन्होंने घोषणा की कि कांग्रेस में निचले से लेकर उच्च स्तर तक पार्टी के पदों में पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की भागीदारी कम से कम 55 प्रतिशत सुनिश्चित की जायेगी। उनके इस कदम ने कांग्रेस की राजनीति में प्रासंगिकता को एक बार फिर बहाल कर दिया और वह सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गयी। दो बार नरसिंहा राव के नेतृत्व में कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनायी तो उसका श्रेय सोनिया गांधी की सामयिक सांगठनिक योजना को रहा।
लेकिन सोनिया गांधी के पुत्र होते हुये भी राहुल गांधी अपनी मां के राजनीतिक मर्म को समझ नहीं पाये। शुरू में वे यथा स्थिति वादियों के फेर में पड़ गये। उन्होंने अपने को कुलीन सवर्ण के रूप में स्थापित करके पार्टी को आगे लाने का प्रयास किया। शुरू में उन्हें प्रशांत किशोर जैसे तथाकथित चुनाव विशेषज्ञ मिले जिनका भी विश्वास अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप सामाजिक यथा स्थिति वाद को मजबूत करने का था। इसके कारण जब अपने नीच जाति के होने की दुहाई देते हुये नरेंद्र मोदी कांग्रेस पर हमलावर हुये तो कांग्रेस रसातल में धसक गयी। जब राहुल गांधी की तंद्रा टूटी, खासतौर से भारत जोड़ो यात्रा से जब समाज की जड़ की सच्चाइयों से रूबरू होने का अवसर उन्हें मिला तो कांग्रेस की पिछली गलतियों को वे स्वीकार करने लगे और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दे पर खुलकर सामने आये जो कांग्रेस के लिहाज से बहुत ही साहसिक है लेकिन पिछड़ों का विश्वास अभी वे जीत नहीं पा रहे हैं। अगर पिछड़ों को वे कांग्रेस के साथ गोलबंद कर पायें तब तो बाजी ही पलट जायेगी।
दरअसल कांग्रेस सभ्रांत वर्ग की पार्टी है और अभी भी उसका नेतृत्व इसी वर्ग के हाथ में है। यह वर्ग सामाजिक न्याय की भाषा और व्याकरण से परिचित नहीं है। नतीजा यह है कि अकेले राहुल गांधी पिछड़ों के साथ हो रहे भेदभाव पर मुखर हो पा रहे हैं लेकिन पार्टी उनके साथ कदमताल नहीं कर पा रही है। दरअसल पिछड़ों और अन्य वंचितों का विश्वास जीतने के लिये राहुल गांधी को निचले स्तर तक सामाजिक न्याय के पक्ष में तार्किक तरीके से भिड़ने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की जरूरत है। जब तक कांग्रेस के पास वंचित नेताओं की फौज हर स्तर पर नहीं होगी। तब तक पिछड़ों के लिये जो संदेश वे देना चाहते हैं वह सम्प्रेषित नहीं हो पायेगा। इस मामले में भाजपा उसकी बहुत चतुर प्रतिद्वंद्वी साबित हो रही है। उसने पिछड़े और अन्य वंचितों की कतार पार्टी में हर स्तर पर पैदा कर ली है जो उनके वर्ग में सेंध लगाने में भाजपा के बड़े मददगार साबित हो रहे है जबकि भाजपा सामाजिक व्यवस्था को थोड़ा उदार बनाना चाहती है लेकिन उसे बदलना नहीं चाहती। पर इस अंतर को वंचितों के बीच स्पष्ट करने के लिये उन्हीं के वर्ग के नेता और कार्यकर्ता चाहिये। विश्वास तभी जमता है जब अपने लोग बात कहें। राहुल गांधी को अपनी पार्टी की इस कमजोरी को समझना होगा और पार्टी में वंचितों का हरावल दस्ता हर स्तर पर सामने लाना होगा। क्या इस बारे में वे कोई कोशिश कर रहे हैं।