विपक्ष की मुश्कें कसने में महारथ का प्रदर्शन करने वाले ईडी के निदेशक संजय मिश्रा को लगातार सेवा विस्तार दिये जाने का मामला अपने सामने आने पर उच्चतम न्यायालय की त्यौंरियां चढ़ गयीं थीं। उसने सरकार से पूंछ लिया था कि क्या आपके यहां संजय मिश्रा से काबिल कोई अफसर नहीं रह गया है जो आप इन्हें जीवन पर्यन्त बरकरार रखने पर तुले हुयें हैं। शब्द कुछ भी हों लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कहने का आशय कुछ ऐसा ही था। इसके बावजूद सरकार ने झेंपने की बजाय दूसरे पैंतरे अख्तियार किये और संजय मिश्रा को समय पर सेवानिवृत्त कर देने का आश्वासन देने के बाद भी किसी तरह आरजू मिन्नत करके उन्हें और मोहलत दिलाने की मर्जी सुप्रीम कोर्ट से ही पूरी करा ली। लेकिन संजय मिश्रा के अध्याय का सरकार ने अभी अंत नहीं किया है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी खबर के अनुसार सरकार अपनी सहजोरी दिखाने के लिये नया पद सृजित करने की तैयारी कर रही है। केन्द्रीय जांच अधिकारी यानी सीआईओ के नाम से सृजित होने वाला यह पद प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई के ऊपर होगा। इसका मुखिया इन दोनों एजेंसियों का बाॅस रहेगा और यह पद संजय मिश्रा के हवाले किया जायेगा। इसका संदेश साफ है कि सरकार सर्वोपरि है और इसे साबित करने में वह कोई रियायत देने को तैयार नहीं है।
संजय मिश्रा पर आलोचक कई आरोप लगाते हैं। कहते हैं कि उन्होंने ईडी का इस्तेमाल जिस तरह से विपक्ष की बड़ी से बड़ी हस्ती को पानी पिलवाने के लिये किया है उसके चलते वे प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की आंखों के तारे बन गये हैं। उनकी इसी उपयोगिता के कारण मोदी और शाह उन्हें अनंतकाल तक ईडी चीफ बनाये रखने की मशक्कत करते नजर आये। लेकिन मामला सिर्फ इतना नहीं है।
संजय मिश्रा अपनी विशेषताओं के एक मात्र नमूने नहीं हैं। अलबत्ता उन्होंने ईडी के राजनीतिक इस्तेमाल का जो रास्ता दिखाया है उसका बेहतरीन इस्तेमाल करने वाले अन्य और बहुत से अफसर भी पड़े होंगे जो संजय मिश्रा के हटने के बाद उनके शून्य को भर सकें। मोदी और शाह चाहें तो इन नमूनों को अफसर शाही में से तलाश सकतें हैं पर सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति के बाद उन्होंने जिद सी ठान ली कि संजय मिश्रा को ही रखेंगे। ऐसी जिद ठानने का उनका पहला मामला नहीं है। हर मामले में जिसमें उन्हें रोकने की कोशिश की जाये वे ऐसी जिद ठानते नजर आते है भले ही इससे वे किसी संवैधानिक संस्था की तौहीन करते नजर आयें।
दिल्ली सरकार के अफसरों के तबादले का मामला इस सिलसिले में याद किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अगर चुनी हुयी सरकार अपने हिसाब से अधिकारियों की तैनाती नहीं कर सकती तो फिर उसका मतलब ही क्या है इसलिये दिल्ली के उप राज्यपाल दिल्ली सरकार के द्वारा किये गये तबादलों में अड़ंगेबाजी नहीं कर सकते। उम्मीद तो यह थी कि जिस तरह से मोदी से भी ज्यादा विराट बहुमत वाली सरकारें अदालत के फैसलों का बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये सम्मान करतीं रहीं हैं उसी परंपरा का पालन मोदी करेंगे। पर हर कोई जैसा मोदी जी करें तो फिर मोदी जी का मतलब ही क्या है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को धता बताने के लिये एक अध्यादेश जारी कर दिया और इसके बाद संसद सत्र शुरू होने पर इस पर एक बिल पेश कर डाला। अब इस पर फिलहाल तो सुप्रीम कोर्ट असहाय हालत में है। दिल्ली सरकार केन्द्र की मंशा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के सामने गयी है लेकिन उसे कोई सफलता मिलने वाली है इसकी गुंजायश कम ही है।
सवाल इस बहस का भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट बड़ी है या सरकार। बहुत पहले इन्दिरा गांधी के समय ही सुप्रीम कोर्ट मान चुका था कि संसद सर्वोपरि है क्योंकि भारतीय संविधान में संप्रभुता लोगों में निहित की गयी है और लोग अपनी अभिव्यक्ति संसद के माध्यम से करते हैं। इसलिये संसद जो भी प्रावधान लागू करेगी सुप्रीम कोर्ट उसमें रूकावट नहीं बन सकता। पर संसद की सर्वोच्चता तय करते हुये भी उस पर एक अंकुश लगाया गया है कि वह संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई बदलाव नहीं कर सकती। वर्तमान सरकार की सर्व सत्तावादी मंशा को यह सीमित प्रतिबंध भी अखरा सो उसने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और तत्कालीन कानून मंत्री किरन रिजजू के माध्यम से कई बार यह स्थापित कराने की कोशिश की कि संसद की सत्ता निद्र्वंद्व है। वह कुछ भी कर सकती है भले ही संविधान का मूल ढ़ांचा बदलने की बात हो। इसी मानसिकता के कारण संवैधानिक संस्थाओं के बीच संतुलन और शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण का सिद्धांत उससे हजम नहीं होता। बार बार वह इसके जामे से बाहर होने की बेताबी दिखाती है। भले ही निरंकुश आकांक्षाओं के इस प्रदर्शन से लोकतंत्र के लिये कितनी भी आशंकायें पैदा होती हों।
यही मनोवृत्ति है जो प्रधानमंत्री को कहीं भी जबावदेह बनने से रोकती है। कोई भी लोकतांत्रिक नेता कितने भी बड़े पद पर क्यों न हो कभी प्रेस का सामना न करे यह अजीब है। एक स्थापित उसूल है कि जब संसद का सत्र चल रहा हो तो प्रधानमंत्री या मंत्री किसी ज्वलंत विषय पर पहले संसद के अंदर बयान देगा इसके बाद सदन के बाहर उस बारे में कुछ कह सकता है। पर जब विपक्ष मणिपुर के मुद्दे पर प्रधानमंत्री को बयान देने के लिये घेर रहा था और संसद सत्र शुरू हो गया था तो प्रधानमंत्री ने मणिपुर पर बोलने के लिये संसद के बाहर टीवी कैमरों को चुना, संसद की मर्यादा की परवाह किये बिना। इसे ढिठाई की पराकाष्ठा कहा जायेगा। इसके एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं। जब किसान आंदोलन हो रहा था जिसमें किसान सैंकड़ों की संख्या में मारे जा रहे थे उस समय भी उन्होंने कुछ न बोलने को अपनी इज्जत का सवाल बना लिया था। हिंडन वर्ग के खुलासे के बाद संसद में अडानी पर सरकार की मेहरबानी को लेकर उनपर उंगलियां उठीं तो उन्होंने संसद की अवहेलना करने के लिये ही सदन में इसका कोई उल्लेख नहीं किया। जाहिर है कि ऐसी परंपराओं से लोकतंत्र नहीं चल सकता। बहुमत की सर्वोपरिता है लेकिन कितने भी बड़े बहुमत वाले नेता लोगों से अपनी बात स्पष्ट करने के लिये दुराव नहीं करते क्योंकि इसमें उनकी हेठी नहीं बल्कि बड़प्पन प्रदर्शित होता है। बहुमत वाले नेता को अपने को लोकतंत्र के सबसे बड़े रखवाले के रूप में प्रस्तुत करना चाहिये लेकिन मोदी का आचरण तो ऐसा नहीं है।
अफसोस की बात है कि मोदी अपनी सकारात्मक उपलब्धियों से विपक्ष पर बढ़त कायम करने की बजाय विपक्ष का येनकेन प्रकारेण सफाया करके सुख की नींद लेने का उपक्रम कर रहे हैं। जबकि उनके पास सकारात्मक उपलब्धियों की अच्छी खासी पूंजी है। उन्हें सोचना होगा कि इतनी घनघोर नकारात्मक सोच के चलते इतिहास आगे जब उनका इंसाफ करने बैठेगा तो उन्हें कहां रखेगा। कोई भी व्यक्ति कितना भी बड़ा या शक्तिशाली क्यों न हो लेकिन आखिर हर व्यक्ति नश्वर है। आने वाले इतिहास में उसका जब मूल्यांकन का अवसर आता है तो वह चीजों को मेनेज करने के लिये उपस्थित नहीं रह जाता और उस समय इतिहास की शक्तियां बड़ी निर्ममता से उसकी अच्छाई और बुराई की पड़ताल करतीं हैं। हर व्यक्ति को इस भवितव्य का ख्याल जरूर रखना चाहिये।







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