
सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों के दो रिक्त पदों को भरने के लिए कॉलेजियम ने जिन नामों को मंजूरी दी उनमें एक नाम पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे विपुल मनु भाई पंचोली का है। पांच सदस्यीय कॉलेजियम में प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई के अलावा चार और सीनियर जजों में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति जेके माहेश्वरी और न्यायमूर्ति बीबी नागरत्ना शामिल थे। न्यायमूर्ति बीबी नागरत्ना ने विपुल पंचोली को सुप्रीम कोर्ट में स्थान देने के प्रस्ताव पर कड़ा विरोध जताया था। इसमें उन्होंने जो आपत्तिया रखी थी उनके आधार बहुत ठोस थे। फिर भी उनके विरोध को महत्व नही दिया गया। कॉलेजियम ने बहुमत से जस्टिस विपुल के नाम को हरी झंडी दिखा दी। तथापि जस्टिस नागरत्ना की इस मांग को कॉलेजियम को मानना पड़ा कि उनकी असहमति का नोट सुप्रीम कोर्ट की बेवसाइट पर अपलोड किया जाये।
तीन महीने पहले भी मई में जब कॉलेजियम की बैठक हुई थी उस समय भी न्यायमूर्ति पंचोली का नाम रखा गया था लेकिन जस्टिस बीबी नागरत्ना की आपत्तियों के कारण कॉलेजियम को तब उनके नाम की सिफारिश एक किनारे कर देनी पड़ी थी। अब जब गत 25 अगस्त को फिर कॉलेजियम की बैठक हुई तो दोबारा जस्टिस विपुल पंचोली का नाम सामने लाया गया। इस पर जस्टिस बीबी नागरत्ना ने पुनः कड़ी आपत्ति जताते हुए यह कह दिया कि जस्टिस विपुल की नियुक्ति के प्रस्ताव को आगे बढ़ाने से कॉलेजियम प्रणाली की बची-खुची विश्वसनीयता भी गर्क हो जायेगी। जस्टिस नागरत्ना का मन्तव्य साफ है कि वे मानती है कि कॉलेजियम प्रणाली ने हाल में जिस ढंग से काम किया है उससे उसकी साख लगातार गिर रही है।
न्याय व्यवस्था पर बारीक निगाह रखने वाले तटस्थ और विशेषज्ञ संगठन के रूप में शुमार कैंपैन फॉर ज्यूडिसियल आकाउंटबिल्टी एण्ड रिफार्म्स ने टिप्पणी की है कि न्यायमूर्ति पंचोली में ऐसा क्या खास दिखा जिससे दमदार आपत्तियों के होते हुए भी कॉलेजियम ने उनके नाम पर मुहर लगाई। सीजेएआर की टिप्पणी का मर्म बहुत गहरा और गंभीर है। तथ्यों से पता चलता है कि कॉलेजियम ने न केवल सुप्रीम कोर्ट में एक नाम को स्थान दिलाया है बल्कि एक भावी प्रधान न्यायाधीश का भी चयन किया है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की वरिष्ठता सूची देखें तो अक्टूबर 2031 में न्यायमूर्ति जयामाल्या बागची के सेवा निवृत्त होने के बाद वे प्रधान न्यायाधीश के पद के सबसे प्रमुख दावेदार होगें। न्यायमूर्ति विपुल पंचोली गुजरात से सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बनने वाले तीसरे जज हैं। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस एनवी अंजारिया का भी मूल हाईकोर्ट गुजरात है। इस तरह एक ही राज्य के तीन न्यायाधीशों को सुप्रीम कोर्ट में स्थान मिलने से क्षेत्रीय संतुलन पर असर पड़ा है। जस्टिस नागरत्ना ने इस बिंदु को भी उठाया था।
जस्टिस पंचोली के बारे में बताया गया है कि 1991 में गुजरात हाईकोर्ट में वकालत शुरू करके उन्होंने अपने कैरियर का श्रीगणेश किया था। इसके बाद 2006 तक वे गुजरात हाईकोर्ट में सहायक सरकारी वकील और अतिरिक्त लोक अभियोजक के रूप में कार्य करते रहे। 2014 में उन्हें हाईकोर्ट में अतिरिक्त जज के रूप में जगह मिल गई। 2016 में वे स्थाई जज हो गये। उनका नाम तब सुर्खियों में आया जब उन्होंने राजीव गांधी के खिलाफ मानहानि के मुकदमे के वादी द्वारा लिये गये स्टे को अप्रत्याशित ढंग से हटा लिया। विचित्र बात यह थी कि मुकदमे के वादी ने अपने ही स्टे को हटवाने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जिस पर संदेह किया जाना चाहिए था। कानून की मान्य परंपराओं और स्थापनाओं के मददेनजर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीशों ने इस पर विचार किया था। उनके द्वारा की गई टिप्पणियां गोपनीय हैं लेकिन जस्टिस नागरत्ना कहती हैं कि जस्टिस विपुल पंचोली का गुजरात हाईकोर्ट से पटना हाईकोर्ट के लिए 2023 में किया गया स्थानांतरण सामान्य कार्रवाई नही थी। उन्होंने कॉलेजियम से उनकी नियुक्ति की सिफारिश को मंजूरी देने से पहले उक्त स्थानांतरण के फैसले से जुड़े दस्तावेज पढ़ने का आग्रह किया था लेकिन इसे अन्य जजों ने माना नही।
न्यायपालिका में जो हो रहा है वह असाधारण है। जस्टिस विपुल पंचोली की पदोन्नति का मामला अकेला नही है। 28 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने आरती अरुण साठे का चयन बांबे हाईकोर्ट में जज के लिए कर दिया। इस पर भी विवाद हुआ था। आरती साठे भाजपा की नेता रही हैं। फरवरी 2023 में उन्हें महाराष्ट्र की भाजपा इकाई ने प्रवक्ता पद की जिम्मेदारी दी थी जिसमें वे पार्टी की पक्षधरता के लिए अत्यन्त मुखर रहती थीं। लेकिन इसके बाद राजनीति छोड़कर कैरियर के लिए नये रास्ते की ओर वे उन्मुख हुईं। इसके तहत जनवरी 2024 में उन्होंने प्रवक्ता पद के साथ-साथ पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया था। कहा नही जा सकता कि उन्होंने यह कदम तब उठाया था जब बेहतर राजनीतिक सेवा के उपलक्ष्य में पॉवर कारी डोर की किसी बड़ी हस्ती ने उन्हें अधिक सुरक्षित नये क्षेत्र में स्थापित करवाने का भरोसा दे दिया था जिसमे गारंटी का तत्व था।
न्यायालयों की नियुक्तियों में कोई राजनैतिक कारक काम कर रहा है क्या? अगर ऐसा हो रहा है तो यह नया प्रयास नही है। इंदिरा गांधी ने तो खुले आम प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बात कही थी। उन्होंने 1973 और 1977 में अपने पसंद के कनिष्ठ जज को कई वरिष्ठों को सुपरसीड करते हुए प्रधान न्यायाधीश की कुर्सी तक पहुंचा दिया था। जस्टिस विपुल पंचोली के मामले में भी वरिष्ठता के आधार को दरकिनार किया गया। वे उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की अखिल भारतीय वरिष्ठता सूची में 57वें स्थान पर थे। जाहिर है कि उनका स्थान कनिष्ठतम था। उन्हें पदोन्नत करने के लिए 56 अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों को सुपरसीड किया गया।
इंदिरा गांधी के समय न्यायपालिका की छवि रूढ़िवादी बनी हुई थी जो आगे बढ़ने के लिए राजनीतिक नेतृत्व द्वारा शक्तियों और संसाधनों के केंद्रीयकरण पर प्रहार के लिए उठाये जा रहे कदमों में बाधक बन रही थी। सरकार की प्रगतिशील कार्रवाइयों में जनता को अपने हितों की रखवाली की मंशा नजर आ रही थी। इसलिए प्रतिबद्ध न्यायपालिका के इंदिरा गांधी के नारे को कहीं न कहीं जन समर्थन प्राप्त था। लेकिन अगर आज न्यायपालिका के कथित राजनीतिकरण के प्रयास में ऐसा कोई उददेश्य देखने की कोशिश करें तो निराशा हाथ लगती है।
आज मुददा यह है कि जज न्याय के पेशेवर मानकों के आधार पर फैसला सुनाये अथवा व्यक्तिगत धारणाओं के आधार पर। कई फैसले इस बीच ऐसे नजर आये हैं जिन्हें न्याय के पेशेवर मानकों की कसौटी पर हजम नही किया जा सकता। चीन द्वारा भारत की जमीन पर कब्जा किये जाने के राहुल गांधी के बयान पर सुप्रीम कोर्ट के जजों की जो टिप्पणियां सामने आईं वे स्पष्ट रूप से प्रदर्शित कर रहीं थी कि इनमें निरपेक्ष न्याय का प्रयास नही हुआ अपितु व्यक्तिगत धारणाएं हावी रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में भी कॉमार्शियल प्लेटफार्म पर की गई अभिव्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करने से सुप्रीम कोर्ट का नकार भी आम जन मानस को आहत करने वाला रहा है। दूसरी ओर चाहे सेना के अधिकार पर की गई साम्प्रदायिक टिप्पणी हो या सत्तारूढ़ पार्टी के एक सांसद द्वारा सुप्रीम अदालत को गृह युद्ध भड़काने का दोषी करार देने वाला बयान हो अगर न्यायाधीशों को उत्तेजित नही कर सका तो मानना पड़ेगा कि न्यायपालिका के ब्रेनवॉश की कोशिशें प्रभाव दिखाने लगी हैं। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में संघ का जो कार्यक्रम चल रहा है उसमें सर संघ चालक की यह सफाई कि उनका कोई गुप्त एजेंडा नही है इन तथ्यों की रोशनी में पूरी तरह विश्वास से परे है। अगर ऐसा न होता तो स्वाधीनता के बाद शासन के मूलभूत सिद्धांत अभी तक स्थापित हो चुके थे। मान्य सिस्टम के परिष्कृण के मामले में अलग-अलग दलों में होड़ रहती थी। इन स्थितियों में सरकार कोई बदल जाये लेकिन संविधान और संस्थाओं को बदलने की कोई बात नही होती थी। लेकिन आज बदलाव की कल्पना को लेकर कुछ तो ऐसा है जिसके लिए संविधान बदलने, मौजूदा संस्थाओं को ध्वस्त करके नई संस्थायें खड़ी करने की कुलबुलाहट आप में मचलती दिखती है। इसमें बहुदलीय लोकतंत्र के लिए कोई जगह नही है। इसलिए आपको समूचे विपक्ष को देशद्रोही साबित करने का नैरेटिव आगे बढ़ाने में कोई अचकचाहट नही होती। ईडी, सीबीआई व अन्य सरकारी एजेंसियों के इस्तेमाल से आप इसी मंशा का विस्तार कर रहे हैं तांकि विपक्षी दलों को नेता और कार्यकर्ता ढूढ़े न मिलें। विपक्ष के अस्तित्व को मिटाने के लिए आपकों एकपक्षीय चुनाव आयोग बनाना धर्म का काम लग रहा है। न्यायपालिका भी इस उददेश्य के लिए किस तरह गठित हो यह काम भी चल रहा है। संविधान की शपथ लेकर आपके लोग असंवैधानिक प्रतिज्ञायें गुंजाते हैं। वजह यह है कि यह संविधान भी आपकी कल्पनाओं के अनुरूप नही है। लेकिन अगर आपको लगता है कि सरकार और समाज चलाने का आपका ढांचा ज्यादा गुणात्मक है तो आपको खुले आम अपने विकल्प को सामने रखने का साहस दिखाना चाहिए। हिडिन एजेंडा तो तब होता है जब आप ऐसा कुछ करना चाहते हैं जो नैतिक औचित्य के विपरीत हो, जिसके लिए आपका ही जमीर गंवारा न करता हो तब चोर नीयत कपट का परिचय देने के लिए उकसाती है और ऐसी ही स्थिति में अपने एजेंडे को गुप्त रखने की मजबूरी बन जाती है।







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