- September 21, 2023
समाजवाद और पंथ निरपेक्षता क्यों हजम नहीं होती
नये संसद भवन में कामकाज शुरू होने के दिन सभी सांसदों को संविधान की जो प्रति वितरित करायी गयी उसमें प्रस्तावना खंड से पंथ निरपेक्ष और समाजवाद शब्द गायब थे। इसे देखकर लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चैधरी ने यह मुद्दा उठाते हुये सरकार को घेरना चाहा तो सरकार की ओर से जबाव आया कि संविधान सभा ने जिस संविधान को अंतिम रूप दिया था उसकी प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे। सरकार ने संविधान की इसी मूल प्रति को वितरित कराया है न कि संशोधित को। समाजवाद और पंथ निरपेक्षता के संकल्प को बाद में इन्दिरा गांधी ने अपने समय 1976 में 42वें संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में जुड़वा दिया था। सवाल यह उठता है कि क्या सरकार ऐसा करने के लिये अधिकृत है।
इन्दिरा गांधी ने जब संविधान की प्रस्तावना में उक्त परिवर्तन कराया था तो यह कदम संविधान संशोधन की श्रेणी में आने के कारण उन्होंने इसकी पूरी तरह विधिक प्रक्रिया को पूरा किया था। जिसके मुताबिक किसी भी संविधान संशोधन के लिये संसद के दो तिहाई बहुमत और आधे से अधिक राज्यों का समर्थन अनिवार्य होता है। आश्चर्य है कि सरकार संविधान की मूल प्रति बनाम संशोधित संविधान की बहस खड़ी कर रही है। जबकि वह अपडेट संविधान को ही मूल संविधान मानने के लिये बाध्य है। इसके विपरीत कुछ स्थापित करना संविधान और संसद दोनों को नीचा दिखाने जैसा है। हो सकता है कि समाजवाद और पंथ निरपेक्षता को प्रस्तावना में स्वीकार न करने के पीछे सरकार के पास कुछ बाजिब दलीलें हों। अगर ऐसा है तो इन शब्दों को हटाने के लिये वह अपनी मर्जी से कदम नहीं उठा सकती। वह संविधान संशोधन की विहित प्रक्रिया अपनाने के बाद ही इन शब्दों को हटा सकती है।
वैसे सवाल यह भी है कि पंथ निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों पर सरकार को आपत्ति क्यों है। खास बात यह है कि सरकार उस समय इन शब्दों को हटाने पर जोर दे रही है जबकि इन व्यवस्थाओं के कारण विश्व बिरादरी में हिंदुओं के अत्याधिक लाभ के अवसर निर्मित हो गये हैं। जिस इंग्लैण्ड ने एक समय भारत को गुलाम बनाकर रखा था उसकी रहनुमायी करने का मौका वर्तमान में इंग्लैण्ड के संविधान के धर्म निरपेक्ष स्वरूप के कारण ऋषि सुनक के रूप में एक आस्थावान हिंदू को मिला है जबकि इंग्लैण्ड ईसाई बहुल देश है जहां हिंदुओं की बहुत कम आबादी है। ऋषि सुनक हिंदू धर्म और संस्कृति को मजबूत करने का मौका भी नहीं छोड़ रहे हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है और अमेरिका का माहौल धीरे धीरे ऐसा बनता जा रहा है कि स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि आगे चलकर वहां भी किसी धर्मनिष्ठ हिंदू को राष्ट्रपति बनने का अवसर मिल जायेगा। अगर ऐसा हुआ तो वह भी हिंदू धर्म की यश पताका को बुलंद करने में अपने देश के प्रति निष्ठा रखते हुये भी नहीं हिचकेगा। लेकिन भारत का पंथ निरपेक्ष चरित्र बदलने की चेष्टा की गयी तो हो सकता है कि विश्व बिरादरी का रूख हिंदुओं के प्रति बदल जाये। इंग्लैण्ड और अमेरिका में इसकी प्रतिक्रिया में लोग हिंदुओं से चिढ़ जाये और अपने देश के सर्वोच्च पद के लिये हिंदू नेता को चुनने में हिचक महसूस करने लगें।
राज्य की धर्म निरपेक्षता की अवधारणा के इतिहास से लोगों को परिचित होना चाहिये। एक समय पश्चिम के ज्यादातर राष्ट्रों में पोप और धर्म का दखल शासन की दशा और फैसलों में रहता था। नयी तरह की दुनिया बनने के बाद महसूस किया गया कि यह व्यवहारिक नहीं हैं इसलिये उन्होंने शासन में धर्म के हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया। ऐसा नहीं है कि इंग्लैण्ड और अमेरिकी प्रशासन के धर्म निरपेक्ष घोषित होने से वहां के ईसाई नास्तिक हो गये हों बल्कि वहां शासन के शीर्ष पदों पर जो भी ईसाई हैं वे आज भी चर्च में जाते हैं और अपने धर्म के प्रति उतनी ही श्रद्धा रखते हैं जितने कि हिंदू। धर्म समाज के नियमन का सबसे प्राचीन संविधान है लेकिन जब दुनिया बहुत आगे निकल गयी तो धर्म के संविधान के ही एडवांसमेंट के रूप में ही आधुनिक संविधान लागू हुये और पश्चिम के राष्ट्र इसके चलते सबसे शक्तिशाली हो गये। धर्म के दखल से शासन को चलाने का तरीका समकालीन दुनिया में प्रगति के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा बन सकता है। इस सबक के कारण ही दुनिया के एकमात्र हिंदू राष्ट्र नेपाल में भी धर्म निरपेक्ष व्यवस्था को स्वीकार कर लिया गया है। इस समय मुस्लिम विश्व मुख्य रूप से मजहबी शासन की मरीचिका मेें अपनी खुशहाली के सपने बुन रहा है। लेकिन उसका क्या हश्र इस प्रतिगामी सोच के चलते हुआ है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
इसी तरह समाजवाद को लेकर भी भाजपा का बिदकना अत्यंत बेतुका है। आर्थिक उदारीकरण के बाद जिस तरह से कामगारों की आय सीमित हुयी है और सारी पूंजी का मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सिमट जाने का परिदृश्य गहराया है उसके बाद देश के लिये एक नये आर्थिक और सामाजिक माॅडल की मांग होनी चाहिये। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जी-20 के लिये मानव केंद्रित समावेशी व्यवस्था को प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित करके यही सोच दिखाया है। यह काम तभी हो सकता है जब समाजवादी संस्पर्श के साथ नयी व्यवस्था चलायी जाये। अंधाधुंध निजीकरण अनर्थकारी सिद्ध हो रहा है। निजीकरण से जहां संचार जैसे क्षेत्र में लोगों को लाभ मिला है वहीं शिक्षा और चिकित्सा को मुनाफाखोरों के हवाले किये जाने से लोगों का जीना दूभर हो रहा है। लोग संसाधनों की कमी के चलते मामूली पगार पर जीने के लिये मजबूर किये जा रहे हैं जो सरकारी कार्यालयों में आउटसोर्सिंग और संविदा भर्तियों के रूप में उजागर है वहीं कारपोरेट जगत का मुनाफा बढ़ रहा है। इस विषमता को रोकने के लिये जब तक गंभीर चिंतन नहीं होगा तब तक मानव केंद्रित विकास का लक्ष्य कैसे हांसिल किया जा सकता है। फिर समाजवाद तो भारतीय जनता पार्टी के संविधान में भी शामिल है। जब भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ था उस समय अटल जी ने इसके विधान में गांधीवादी समाजवाद का लक्ष्य जुड़वाया जो आज भी बरकरार है। यह बात दूसरी है कि संविधान से पंथ निरपेक्षता और समाजवाद को हटाने का संकेत यह देखने के लिये दिया गया हो कि इसकी प्रतिक्रिया आम वोटरों में क्या होती है। कहा यह जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की मंशा पूरे संविधान को बदलने और हिंदू राष्ट्र बनाने की है। हिंदू राष्ट्र के पीछे जो ललक है उसमें धर्म के तात्विक दर्शन पर कोई जोर नहीं है क्योंकि अगर ऐसा किया जाये तो एक बहुत ही नैतिक शासन के लिये प्रतिबद्धता दिखानी होगी। जैसी कि रामराज में वर्णित की जाती है। पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अभी तक ऐसा कोई प्रयास तो किया नहीं है बल्कि यह माना जाता है कि अटल जी और आडवानी जी के युग में पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा इसलिये दिया जाता था कि इन दोनों विभूतियों ने मूल्यों पर आधारित राजनीतिक और प्रशासनिक संस्कृति को लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पर आज के माहौल को क्या ऐसा कहा जा सकता है। दरअसल सामाजिक उपनिवेशवाद की व्यवस्था का लक्ष्य एक वर्ग ने तथाकथित हिंदू राष्ट्र में समाहित कर रखा है और भारतीय जनता पार्टी को चलाने वाली वर्ग सत्ता का सबसे बड़ा अभीष्ट यही है। ताजा उदाहरण पीएम विश्वकर्मा योजना का है। सामाजिक उपनिवेशवाद में कामगारों को जातियों के तौर पर चिन्ह्ति किया गया है और उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाया गया है। होना तो यह चाहिये था कि पेशे को जाति आधारित बनाने के परंपरागत दुष्चक्र को तोड़ा जाये। विश्वकर्मा योजना में उल्टा किया गया है। क्या अच्छा होता अगर गरीब जनरल कास्ट को नाईगीरी और मोचीगीरी जैसे कार्यों को अपनाकर खुशहाल बनने के लिये प्रेरित किया जाता और इसके लिये सरकार विशेष प्रोत्साहन करने की घोषणा करती। अगर हर जाति के लोग हर काम में संलग्न किये जायेंगे तो पेशे के आधार पर किसी को ओछा कहने की जरूरत नहीं रह जायेगी। पर विश्वकर्मा योजना तो हर जाति के पुश्तैनी पेशे को नये सिरे से बांधने का एक उपक्रम बन गया है। बहरहाल बात होनी चाहिये देश को मजबूत करने की जबकि सामाजिक उपनिवेशवाद आगे चलकर दमित जातियों के जो बहुतायत में है, कि असंतोष का कारण बनेगा जो देश के कतई हित में नहीं है।
इन्दिरा गांधी ने जब संविधान की प्रस्तावना में उक्त परिवर्तन कराया था तो यह कदम संविधान संशोधन की श्रेणी में आने के कारण उन्होंने इसकी पूरी तरह विधिक प्रक्रिया को पूरा किया था। जिसके मुताबिक किसी भी संविधान संशोधन के लिये संसद के दो तिहाई बहुमत और आधे से अधिक राज्यों का समर्थन अनिवार्य होता है। आश्चर्य है कि सरकार संविधान की मूल प्रति बनाम संशोधित संविधान की बहस खड़ी कर रही है। जबकि वह अपडेट संविधान को ही मूल संविधान मानने के लिये बाध्य है। इसके विपरीत कुछ स्थापित करना संविधान और संसद दोनों को नीचा दिखाने जैसा है। हो सकता है कि समाजवाद और पंथ निरपेक्षता को प्रस्तावना में स्वीकार न करने के पीछे सरकार के पास कुछ बाजिब दलीलें हों। अगर ऐसा है तो इन शब्दों को हटाने के लिये वह अपनी मर्जी से कदम नहीं उठा सकती। वह संविधान संशोधन की विहित प्रक्रिया अपनाने के बाद ही इन शब्दों को हटा सकती है।
वैसे सवाल यह भी है कि पंथ निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों पर सरकार को आपत्ति क्यों है। खास बात यह है कि सरकार उस समय इन शब्दों को हटाने पर जोर दे रही है जबकि इन व्यवस्थाओं के कारण विश्व बिरादरी में हिंदुओं के अत्याधिक लाभ के अवसर निर्मित हो गये हैं। जिस इंग्लैण्ड ने एक समय भारत को गुलाम बनाकर रखा था उसकी रहनुमायी करने का मौका वर्तमान में इंग्लैण्ड के संविधान के धर्म निरपेक्ष स्वरूप के कारण ऋषि सुनक के रूप में एक आस्थावान हिंदू को मिला है जबकि इंग्लैण्ड ईसाई बहुल देश है जहां हिंदुओं की बहुत कम आबादी है। ऋषि सुनक हिंदू धर्म और संस्कृति को मजबूत करने का मौका भी नहीं छोड़ रहे हैं। अमेरिका का राष्ट्रपति दुनिया का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है और अमेरिका का माहौल धीरे धीरे ऐसा बनता जा रहा है कि स्पष्ट दिखाई देने लगा है कि आगे चलकर वहां भी किसी धर्मनिष्ठ हिंदू को राष्ट्रपति बनने का अवसर मिल जायेगा। अगर ऐसा हुआ तो वह भी हिंदू धर्म की यश पताका को बुलंद करने में अपने देश के प्रति निष्ठा रखते हुये भी नहीं हिचकेगा। लेकिन भारत का पंथ निरपेक्ष चरित्र बदलने की चेष्टा की गयी तो हो सकता है कि विश्व बिरादरी का रूख हिंदुओं के प्रति बदल जाये। इंग्लैण्ड और अमेरिका में इसकी प्रतिक्रिया में लोग हिंदुओं से चिढ़ जाये और अपने देश के सर्वोच्च पद के लिये हिंदू नेता को चुनने में हिचक महसूस करने लगें।
राज्य की धर्म निरपेक्षता की अवधारणा के इतिहास से लोगों को परिचित होना चाहिये। एक समय पश्चिम के ज्यादातर राष्ट्रों में पोप और धर्म का दखल शासन की दशा और फैसलों में रहता था। नयी तरह की दुनिया बनने के बाद महसूस किया गया कि यह व्यवहारिक नहीं हैं इसलिये उन्होंने शासन में धर्म के हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया। ऐसा नहीं है कि इंग्लैण्ड और अमेरिकी प्रशासन के धर्म निरपेक्ष घोषित होने से वहां के ईसाई नास्तिक हो गये हों बल्कि वहां शासन के शीर्ष पदों पर जो भी ईसाई हैं वे आज भी चर्च में जाते हैं और अपने धर्म के प्रति उतनी ही श्रद्धा रखते हैं जितने कि हिंदू। धर्म समाज के नियमन का सबसे प्राचीन संविधान है लेकिन जब दुनिया बहुत आगे निकल गयी तो धर्म के संविधान के ही एडवांसमेंट के रूप में ही आधुनिक संविधान लागू हुये और पश्चिम के राष्ट्र इसके चलते सबसे शक्तिशाली हो गये। धर्म के दखल से शासन को चलाने का तरीका समकालीन दुनिया में प्रगति के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा बन सकता है। इस सबक के कारण ही दुनिया के एकमात्र हिंदू राष्ट्र नेपाल में भी धर्म निरपेक्ष व्यवस्था को स्वीकार कर लिया गया है। इस समय मुस्लिम विश्व मुख्य रूप से मजहबी शासन की मरीचिका मेें अपनी खुशहाली के सपने बुन रहा है। लेकिन उसका क्या हश्र इस प्रतिगामी सोच के चलते हुआ है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
इसी तरह समाजवाद को लेकर भी भाजपा का बिदकना अत्यंत बेतुका है। आर्थिक उदारीकरण के बाद जिस तरह से कामगारों की आय सीमित हुयी है और सारी पूंजी का मुट्ठी भर लोगों के हाथों में सिमट जाने का परिदृश्य गहराया है उसके बाद देश के लिये एक नये आर्थिक और सामाजिक माॅडल की मांग होनी चाहिये। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जी-20 के लिये मानव केंद्रित समावेशी व्यवस्था को प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित करके यही सोच दिखाया है। यह काम तभी हो सकता है जब समाजवादी संस्पर्श के साथ नयी व्यवस्था चलायी जाये। अंधाधुंध निजीकरण अनर्थकारी सिद्ध हो रहा है। निजीकरण से जहां संचार जैसे क्षेत्र में लोगों को लाभ मिला है वहीं शिक्षा और चिकित्सा को मुनाफाखोरों के हवाले किये जाने से लोगों का जीना दूभर हो रहा है। लोग संसाधनों की कमी के चलते मामूली पगार पर जीने के लिये मजबूर किये जा रहे हैं जो सरकारी कार्यालयों में आउटसोर्सिंग और संविदा भर्तियों के रूप में उजागर है वहीं कारपोरेट जगत का मुनाफा बढ़ रहा है। इस विषमता को रोकने के लिये जब तक गंभीर चिंतन नहीं होगा तब तक मानव केंद्रित विकास का लक्ष्य कैसे हांसिल किया जा सकता है। फिर समाजवाद तो भारतीय जनता पार्टी के संविधान में भी शामिल है। जब भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ था उस समय अटल जी ने इसके विधान में गांधीवादी समाजवाद का लक्ष्य जुड़वाया जो आज भी बरकरार है। यह बात दूसरी है कि संविधान से पंथ निरपेक्षता और समाजवाद को हटाने का संकेत यह देखने के लिये दिया गया हो कि इसकी प्रतिक्रिया आम वोटरों में क्या होती है। कहा यह जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की मंशा पूरे संविधान को बदलने और हिंदू राष्ट्र बनाने की है। हिंदू राष्ट्र के पीछे जो ललक है उसमें धर्म के तात्विक दर्शन पर कोई जोर नहीं है क्योंकि अगर ऐसा किया जाये तो एक बहुत ही नैतिक शासन के लिये प्रतिबद्धता दिखानी होगी। जैसी कि रामराज में वर्णित की जाती है। पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अभी तक ऐसा कोई प्रयास तो किया नहीं है बल्कि यह माना जाता है कि अटल जी और आडवानी जी के युग में पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा इसलिये दिया जाता था कि इन दोनों विभूतियों ने मूल्यों पर आधारित राजनीतिक और प्रशासनिक संस्कृति को लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। पर आज के माहौल को क्या ऐसा कहा जा सकता है। दरअसल सामाजिक उपनिवेशवाद की व्यवस्था का लक्ष्य एक वर्ग ने तथाकथित हिंदू राष्ट्र में समाहित कर रखा है और भारतीय जनता पार्टी को चलाने वाली वर्ग सत्ता का सबसे बड़ा अभीष्ट यही है। ताजा उदाहरण पीएम विश्वकर्मा योजना का है। सामाजिक उपनिवेशवाद में कामगारों को जातियों के तौर पर चिन्ह्ति किया गया है और उनके प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाया गया है। होना तो यह चाहिये था कि पेशे को जाति आधारित बनाने के परंपरागत दुष्चक्र को तोड़ा जाये। विश्वकर्मा योजना में उल्टा किया गया है। क्या अच्छा होता अगर गरीब जनरल कास्ट को नाईगीरी और मोचीगीरी जैसे कार्यों को अपनाकर खुशहाल बनने के लिये प्रेरित किया जाता और इसके लिये सरकार विशेष प्रोत्साहन करने की घोषणा करती। अगर हर जाति के लोग हर काम में संलग्न किये जायेंगे तो पेशे के आधार पर किसी को ओछा कहने की जरूरत नहीं रह जायेगी। पर विश्वकर्मा योजना तो हर जाति के पुश्तैनी पेशे को नये सिरे से बांधने का एक उपक्रम बन गया है। बहरहाल बात होनी चाहिये देश को मजबूत करने की जबकि सामाजिक उपनिवेशवाद आगे चलकर दमित जातियों के जो बहुतायत में है, कि असंतोष का कारण बनेगा जो देश के कतई हित में नहीं है।